पिछले आठ लाख वर्षों में कभी भी धरती इतनी काली नहीं हुई। जी हां, कार्बन हमारे यहां कालापान का ही प्रतीक है। पिछले आठ लाख वर्षों के इतिहास में कार्बनडाइऑक्साइड गैस की मात्रा 300 पीपीएम (पार्टस पर मीलियन) से ज्यादा नहीं हुई। लेकिन आज यह चार 400 पीपीएम के आसपास पहुंचने वाली है। इसके कारण धरती में ताप ग्रहण करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। यह भौतिक नियम है कि कार्बनडाइआक्साइड तथा अन्य ग्रीन हाउस गैसें में हीट रिटेन (ताप धारण) करने की प्रवृत्ति होती है। प्रकारांतर से यही ताप धरती के औसत तापमान को बढ़ा रहा है, जो प्रकारांतर से पर्यावरण को प्रभावित करता है। इसके कारण धु्रवीय और द्वीपीय हिमनद पिघल रहे हैं, नतीजे में समुद्र का जल - स्तर बढ़ रहा है। चूंकि समुद्र पृथ्वी के जलवायु का सबसे बड़ा नियंता (रेगुलेटर) है, इसलिए पर्यावरण असंतुलन के कारण पृथ्वी की पारिस्थितिकी नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रही है। ये तथ्य वैज्ञानिक तौर पर साबित हो चुके हैं और इसमें शक-सुबहा की कोई गुंजाइश नहीं है। कोपेनहेगन में चल रहे जलवायु वार्ता का महत्व इसलिए भी बढ़ गया है, क्योंकि प्रकृति दो चांस नहीं देती। दुनिया को पहले ही संभल जाना चाहिए, अभी भी वक्त है। हद पार करने के बाद संभलने का कोई रास्ता नहीं बचेगा। तब शायद... एवरीथिंग विल बी पेरिश्ड फॉर एवर !
(आठ लाख वर्षों के कार्बन उत्सर्जन का ग्राफ देखने के लिए नीचे क्लिक करें)
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