शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

जानकर अनजान बनने का दौर (वेल्थ ड्रेन के नये ट्रेंड्‌स पर एक खुदरा चिंतन)

कहते हैं कि दादा भाई नैरोजी के ड्रेन ऑफ वेल्थ सिद्धांत के प्रकाशन से पहले तक भारत के लोगों को नहीं मालूम था कि वे गुलाम हैं, जिसके कारण सालों-साल तक अंग्रेज भारत को अपना उपनिवेश बनाये रखने में कामयाब हुये। लेकिन आज का भारत उतना बदनसीब नहीं है। देश जागरूक हो गया है। आज लोगों को बाजार की गुलामी के बारे में पता है। हर जानकार और चिंतनशील लोग बाजार की गुलामी को समझ रहे हैं, लेकिन फिर भी विद्रोह की आवाज कहीं से नहीं उठ रही। तो कैसे मान लिया जाये कि हम जाग्रत समाज के नागरिक हैं।
बाजार की गुलामी किसी भी लिहाज से ब्रिटीश गुलामी से कम नहीं है। ढ़ाई सौ वर्षों में जितने धन अंग्रेज यहां से विदेश ले गये होंगे, उससे कई गुना ज्यादा धन आज देश से बाहर जा रहा है। स्विस बैंक की राशि, अंग्रेजों द्वारा बटोरी गयी राशि से कम नहीं होगी ! बाजार ने वेल्थ ड्रेन के नये द्वार खोल दिये हैं, भूंमंडलीकरण ने इसे वैधता का लबादा पहना दिया है। भारत में कुछ लोगों का जीवन-स्तर बढ़ रहा है, जिसके बहाने बाजार को न्यायसंगत ठहराया जा रहा है। याद रहे अंग्रेजी गुलामी के दौर में भी देश के कुछ लोगों के जीवन-स्तर लगातार उठते गये थे। बाजार टिकाउ और समरस विकास कभी नहीं कर सकता। यह इसके मौलिक कांसेप्ट में ही नहीं है। कोसी अंचल की एक कहावत है- अंधरा कें जागने कून , अंधरा कें सुतने कून।

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

कुछ गूंगी और कुछ बहरी तस्वीरें

दहाये हुए देस का दर्द-69







यह कौन-सी जगह है, यह कैसा दयार है ? किसका निजाम है यह, यहां किसकी हुकूमत है ? इन चित्रों को देखकर आपके मन में भी ये सवाल उठ सकते हैं। जिनके जवाब हैं- यह पूर्वोत्तर बिहार के सुपौल-अररिया जिले का एक इलाका है, दो साल पहले कोशी की बाढ़ में ये पुल ध्वस्त हो गये थे, यहां पिछले पांच साल से तथाकथित विकास पुरुष नीतीश कुमार की हुकूमत है। अगली हुकूमत के लिए जनादेश संकलन का काम फिलहाल चल रहा है। कोशी अंचल में यह पूरा हो चुका है। चुनाव में ये तस्वीरें किसी दल के लिए मुद्दे नहीं थीं। किसी पार्टी के किसी नेता को ये तस्वीरें नजर नहीं आयीं । जी हां, अब तस्वीरें चुनाव के मुद्दे नहीं होते। सिर्फ और सिर्फ "नाम'' ही मुद्दा होता है। नेताओं के नाम ही मुद्दे होते हैं। मसलन एक मुद्दे का नाम नीतीश कुमार है, दूसरे मुद्दे का नाम लालू प्रसाद है, तीसरे का नाम राहुल गांधी है। लेकिन जनता है कि "नाम'' को ही मुद्दा मान बैठी है। मसलन नीतीश माने "विकास'', लालू माने "जातिवाद'' और राहुल माने "युवा''। मेरी खोपड़ी तो यही कहती है ! यह मौजूदा राजनीतिशास्त्रके सापेक्षवाद का सिद्वांत है, जहां गरीबी का गरीब से और तस्वीरों का तदवीर से कोई नाता-रिश्ता नहीं होता है। अगर यह सच नहीं होता, तो ये तस्वीरें इस चुनाव में हर जगह बोल रही होतीं ; इस कदर गूंगी-बहरी नहीं होतीं ।
(ये तस्वीरें सुपौल जिले के इंजीनियरिंग के एक छात्र सौरभ कुमार झा ने उपलब्ध करायी, उन्हें धन्यवाद)

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

पहली परीक्षा कोशी में








दहाये हुए देस का दर्द-68


चुनाव
की महिमा अपरमपार है। यह ऐसा शय है कि राई को पर्वत और चोटी को खाई बना दे। जहां बारहों महीने अमावश्या रहता हो, चुनाव वहां पूनम का चांद चमका सकता है। इसलिए अगर चुनाव के दौरान कोशी में मुझे काशी दिख रही है, तो आपको चकित नहीं होना चाहिए। हालांकि कोशी और काशी में कोई साम्य नहीं, लेकिन मुझे इन दिनों कोशी में काशी का नजारा दिखाई दे रहाहै ।

काशी में कोने-कोने से लोग मुरादें लेकर आते हैं। बाबा विश्वनाथ सामने माथा टेकते हैं । भगवान को खुश करने के लिए पंडा को चढ़ावा देते हैं और अपने-अपने घरों को लौट जाते हैं। वैसे कोशी में ऐसा कोई तीर्थस्थान नहीं है, इसलिए बड़े लोग सकारण भी इधर का रुख नहीं करते। भले ही कोशी में कोई प्रतापी मंदिर न हो, लेकिन यहां बिहार विधानसभा की साढ़े तीन दर्जन "जाग्रत' सीटें जरूर हैं। बिहार का चुनावी इतिहास बताता है कि जिस पार्टी को कोशिकी माई का आशीर्वाद मिलता है वही पाटलिपुत्र की सत्ता पर विराजती है। कोशी जिस पार्टी की ओर मुड़ गयी उसका कल्याण हो गया, जिससे मुंह मोड़ लिया उसका सर्वनाशतय है। इसलिए यहां पिछले डेढ़-दो पखवारे से तरह-तरह के वेश-भूषा में भांति-भांति के "चुनावी श्रद्धालु ' पहुंच रहे हैं। सोनिया से लेकर राहुल तक और लालू से लेकर तेजस्वी तक कोशी में चुनावी तीर्थाटन कर चुके हैं। वोटर भगवान को बड़े-बड़े वादे कबूल चुके हैं। सभी चुनावी श्रद्धालु वोटर भगवान को खुश करने के लिए चुनावी पंडाओं (दलाल, माफिया, ठेकेदार ) को भारी चढ़ावा कर रहे हैं। आज रात इसका क्लाइमेक्स होगा क्योंकि कल सुबह ईवीएम के पट खुलेंगे। गांवों में पिछले कई शामों से दारू-शराब की "कोशी' बह रही है आज शाम वह कई जगह "बांधों' को तोड़ देगी।
यह संयोग नहीं, बल्कि शांत क्षेत्र (गैर-नक्सल) होने का तोहफा है कि निर्वाचन आयोग ने इस बार बिहार विधानसभा चुनाव का आगाज कोशी से किया है। वैसे यहां सामान्य दिनों में शासन के तमाम अवसर, योजना- आयोजना और सुविधाएं सबसे बाद में पहुंचते हैं और कभी-कभी कोशी की सीमा में दाखिल होने से पहले ही पूरे हो जाते हैं। कोशी तक आते-आते सरकारों (राज्य और केंद्र दोनों सरकार) की तमाम "नदियां' सूख जाती हैं। पूर्व रेल मंत्राी ललित नारायण मिश्र के निधन के बाद इस इलाके में रेलवे की एक इंच नयी पटरी नहीं बिछी। पांच दशक में पर व्यक्ति सड़क और पर कैपिटा इनकम लगभग स्थिर है। बिजली सपने में और रोजगार पंजाब-हरियाण-दिल्ली में मिलते हैं। यह लिस्ट इतनी लंबी है कि मैं इस पर एक किताब लिख रहा हूं।
बहरहाल चुनावी मौसम है, तो चुनाव की ही बात करते हैं। कोशी में कल यानी 21 अक्तूबर को मतदान होने हैं। प्रचार खत्म हो चुका है। सभी पार्टियों के प्रचार का फलाफल "जीरो बटे सन्नाटा' है। हालांकि कोशी के लोगों को नहीं मालूम कि विकास किस चिड़िया का नाम है, लेकिन सत्ताधारी दल पूरे डेढ़ महीने तक यहां नीतीश-राग में विकास के कोरस गाते रहे। लोग कोशी की प्रलयंकारी बाढ़ के मलहम की उम्मीद लगाये बैठे थे, लेकिन सरकार ने उन्हें विकास का बेसुरा संगीत सुनाकर आराम करने की सलाह दी। वे यह भूल गये की दोजख में जन्नत की बात किसी को समझ में नहीं आती और प्रसव पीड़ा की बात में कुंआरियों की दिलचस्पी नहीं हो सकती। सत्ताधारी नेता साथ में यह आश्वासन भी देते गये अगली बार मुकम्मल इलाज करेंगे। कोशी की प्रलयंकारी बाढ़ को राष्ट्रीय आपदा कहकर मुकर जाने वाली कांग्रेस और उसके नेता एंटी नीतीश-राग गाकर ही अपने कर्त्तव्यों से इतिश्री कर लिये। लालू का क्या कहना, वे तो बाढ़ को गरीबी का सौगात मानते हैं। बाढ़ पीड़ितों को याद है कि उन्होंने एक बार कहा था,"बाढ़ तो गरीबों के लिए वरदान है। बाढ़ में गरीबों को सिंगी-मांगूर, कब्बई, गरई मछली मिलती है। अगर बाढ़ें नहीं आयेंगी तो गरीबों को ये मछलियां कभी नसीब नहीं होंगी।' खुद को ठेठ देहाती कहने वाले लालू को शायद नहीं मालूम कि अब बाढ़ में मछलियां नहीं आतीं, क्योंकि इन्हें इनके उद्‌गम में ही खत्म कर दिया गया है।
बहरहाल, कुछ घंटे बाद ही कोशी में मतदान आरंभ होने वाला है, तो मेरे जेहन में कई सवाल उठ रहे हैं। कि इस बार कोशी के मतदाता क्या करेंगे, किधर जायेंगे? जहां तक उनके मूड को मैं समझ पाया हूं, कोशी के लोग उदास हैं। कुछ-कुछ हताश भी। उनका सभी दलों से मोहभंग हो चुका है। इसलिए यहां इस बार निर्दलीयों की अच्छी संभावना है। चूंकि लोग हताश-उदास है, इसलिए मतदान का प्रतिशत बहुत कम रहेगा। हालांकि लोग सत्ताधारी दल को भी पसंद नहीं करते, लेकिन वे खाई और कुआं की तर्ज पर राजद-लोजपा के बदले जद (यू) और भाजपा की ओर ही जायेंगे। लेकिन सबसे बड़ी बात यह कि इस बार कोशी में कांग्रेस का पुनर्जन्म होने वाला है। उसे सीट तो ज्यादा नहीं मिलेगी, लेकिन हर इलाके में अच्छा-खासा वोट मिलेगा। इसका संकेत पिछले लोकसभा चुनाव में भी देखने को मिला था, जिसका फायदा कांग्रेस उठा नहीं सकी। अगर वह कोशी की उपेक्षा को लक्ष्य करके केंद्रीय स्तर से कुछ पहल करती तो आज इस इलाके में कांग्रेस की तस्वीर कुछ और होती। लेकिन ग्रास रूट तक पहुंचने की बात करने वाले राहुल गांधी को किसी ने यह बात शायद नहीं बतायी। राजनीतिक रूप से जागरूक कोशी के मतदाता को यह हकीकत भी मालूम है। देखना है कि इस बार कोशी बिहार के ताज पर किसे बिठाती है, क्योंकि यहां जिसे बहुमत मिलेगा, वही बिहार में अगली सरकार बनायेगा। इसमें कोई संदेह नहीं। नेतागण कृपया इतिहास देख लें।

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

समूचा शहर बहुरुपिया होगा


उल्के जलने लगे हैं
तकिया भींगने लगा है
अक्सर देर से आती है नींद
उधर अंधेरे में गुम हो गये
बुझते हुए उल्के के अग्निचिह्न
अब दिन में नहीं आता कोई शायर
इसलिए नींद में आता है एक युवक
यही कोई 19-20 साल का
उसने देखा है जंगल
कोई दस साल से
शहर में रमा है
संसद को गमा है
" उजला आदमी, काला आदमी, हरा आदमी, लाल आदमी
सुबह का आदमी, शाम का आदमी
दिन का आदमी, रात का आदमी
आदमी-आदमी, किते आदमी ''
का पहाड़ा पढ़ा है

++


कोई दरवाजे पर फेंक देगा एक अखबार
सचिवालय के बाबू
हवा खाने निकलेंगे
औरतों की लंबी कतारें
टपकते नलों पर टूट पड़ेंगी
और सुबह हो जायेगी
जिससे निकलेगा एक दिन
जो रात से भी काला होगा
हर चेहरे पर लग जायेंगे नकाब
पूरा शहर बहुरूपिया होगा
बच्चे का टिफीन, मैडम खा जायेंगी
मैडम भी शाम तक साबूत नहीं बचेंगी
नहीं
पता
अगली रात नींद कब आयेगी !