सोमवार, 29 नवंबर 2010

गरीब राज्य की अमीर विधानसभा


बिहार गरीब है, लेकिन बिहार विधानसभा में अब गरीबों के लिए जगह कम होती जा रही है। यह गरीब नेताओं के लिए नो एंट्री प्लेस बनती जा रही है। ठीक लोकसभा की तरह। अब देश की सर्वोच्च पंचायत- लोकसभा भारत की नहीं, बल्कि इंडिया का प्रतिनिध सदन बनकर रह गयी है। हाल में पंद्रहवें बिहार विधानसभा के लिए कुल 243 विधायक निर्वाचित हुये हैं और इनमें 47 विधायक करोड़पति हैं। गौरतलब है कि चौदहवीं विधानसभा में करोड़पति विधायकों की संख्या महज आठ थी। यह आंकड़ा विधायकों के शपथ पत्र पर आधारित है, इसलिए इसे अंतिम सच नहीं माना जा सकता। हकीकत में करोड़पति विधायकों की संख्या सवा सौ से ज्यादा होगी, क्योंकि यह बात अब किसी से छिपी हुई नहीं है कि शपथ पत्र में प्रत्याशी अपनी संपत्ति का सही ब्यौरा नहीं देते।
नवनिर्वाचित विधायकों का प्रोफाइल देखने पर और कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। देश भर में ऐसा प्रचार हो रहा है कि इस बार बिहार विधानसभा में दागी विधायकों का सफाया हो गया है, लेकिन शपथ पत्र के अनुसार, कुल 243 विधायकों में 141 आपराधिक मामलों के आरोपी हैं और उन पर विभिन्न न्यायालयों में मुकदमा लंबित है। दिलचस्प बात यह कि पिछली विधानसभा में सिर्फ 117 विधायकों के विरुद्ध ही आपराधिक मामले चल रहे थे। हां, नयी बात यह जरूर हुई है कि सत्ताधारी दल के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले दागी प्रत्याशी तो इस बार विधानसभा पहुंच गये हैं, लेकिन विपक्षी पार्टियों के दागी उम्मीदवार इसमें असफल रहे।
इन तथ्यों से स्पष्ट है कि हालिया बिहार चुनाव में कोई सफाई-क्रांति नहीं हुई है, जैसा कि कहा जा रहा हां, इतना जरूर हुआ है कि इस गरीब प्रदेश की
विधानसभा अचानक अमीर जरूर हो गयी है। यह चुनाव में धन बल के बढ़ते प्रभुत्व का क्रांतिकारी उदाहरण है। संकेत साफ है कि देश का लोकतंत्र बहुत तेजी से पूंजीतंत्र में बदलता जा रहा है। अगर यह सिलसिला यों ही चलता रहा, तो आने वाले समय में चुनाव अमीरों का खेल बनकर रह जायेगा। उसमें आम नागरिक की भूमिका मतदान तक सीमित हो जायेगी। जिनके पास पैसा नहीं होगा, वे तमाम योग्यताओं-सरोकारों आदि के बावजूद जनप्रतिनिधि नहीं बन सकेंगे।

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

विकास नहीं विकास की आस की जीत

बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए की जीत के विश्लेषण में राजनीतिक पंडित एक बार फिर सामान्यीकरण सिद्धांत का सहारा ले रहे हैं। बात को आसान बनाने के लिए वे बहुत आसानी से नीतीश की जीत को काम का इनाम कह रहे हैं। लेकिन यह आधा सच है। पूरा सच यह है कि एनडीए गठबंधन की जीत विकास की आस की जीत है। जनता ने नीतीश सरकार पर भरोसा किया है और उन्हें लगता है कि यह सरकार बिहार की तकदीर बदल सकती है। इस भरोसे के पीछे कुछ ठोस वजह है। अपने पहले कार्यकाल में नीतीश सरकार ने सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षाा और विधि-व्यवस्था को सुधारने की जो कोशिश की , उसके कारण बिहार की जनता में एक विश्वास पैदा हुआ। जिस तरह अंधेरे में रोशनी का सूक्ष्म पुंज भी दूर से ही चिह्नित हो जाता है, उसी तरह नीतीश के थोड़े-से सुधार भी जनता को साफ-साफ नजर आये । चूंकि राजद के शासन में बिहार हर तरह से अंधकारमय हो गया था, इसलिए भी नीतीश के थोड़े काम की भी मैराथन चर्चा हुई। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह विकास की आस का नतीजा है।

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

न्यूट्रल वोटर्स लिखेंगे बिहार की तकदीर


देश के चुनावी इतिहास में नया अध्याय जोड़ने वाला बिहार विधानसभा चुनाव-2010 (जो यह बतायेगा कि विकास और गुड गवर्नेंस के नाम पर इस देश में चुनाव जीते जा सकते हैं या नहीं) के परिणामों के बारे में तरह-तरह के विश्लेषण-आकलन, अनुमान-पुर्वानुमान हो रहे हैं। हर मन में एक ही सवाल है कि बिहार में इस बार क्या होगा ? नीतीश का जादू चलेगा या फिर लालू-रामविलास की जोड़ी बाजी मार ले जायेगी? कहीं चंद्रबाबू की तरह नीतीश के विकासवाद की हवा तो नहीं निकल जायेगी ?
हालांकि अधिकतर एग्जिट पोल में राजग की जीत बतायी जा रही है, लेकिन किसी के पास अपनी बात के समर्थन में ठोस सबूत या तर्क नहीं हैं। सभी आकलन परंपरागत फॉमूर्ले पर आधारित हैं, जिनमें जातीय समीकरणों को मुख्य तर्क बनाया जा रहा है। नीतीश कुमार की सरकार की उपलब्यिों को बहस में शामिल तो की जाती है, लेकिन इसे परिणाम-निर्धारक बात नहीं मानी जाती। चूंकि एग्जिट पोल के सैंपल्स शहरी इलाके के हैं, इसलिए इसके आधार पर अगली विधानसभा की शक्लो-सूरत के बारे में साफ-साफ कुछ भी नहीं कहा जा सकता। ग्रामीण बिहार में इस बार मतों का रूझान इस कदर मिलाजुला है कि पड़ोस वाले को नहीं मालूम कि उनके पड़ोसी ने किस निशान पर बटन दबाया।
दूसरी ओर यह भी सच है कि बिहार में अभी जातीय समीकरण का अस्तित्व खत्म नहीं हुआ है और इस बार भी लगभग तमाम जातियों ने अपने-अपने परंपरागत जाति-प्रेम, गोत्र-मोह या पूर्वाग्रह में मतदान किये हैं। लेकिन यह ट्रेंड भी इस कदर जटिल है कि इसके आधार पर भी नहीं बताया जा सकता कि चुनावी पलड़ा राजद के पक्ष में झुकेगा या राजग के पक्ष में। वह इसलिए कि इस बार दोनों पक्षों का जातीय जनाआधार लगभग बराबर है। अगर यादव जाति राजद के पक्ष में इनटैक्ट है, तो कुर्मी-कोइरी राजग के पक्ष में और इन दोनों की संख्या-ताकत लगभग बराबर है। मुस्लिम और तथाकथित अगड़ी जातियों के मतों में विभाजन हुआ है और इन दोनों समुदाय के मत अच्छे-खासे प्रतिशत में कांग्रेस को मिले हैं, जो पिछले चुनाव में राजग को मिले थे। राजद को मुस्लिम मतों का नुकसान तो हुआ है, लेकिन इसका फायदा राजग को नहीं मिलने जा रहा। वहीं राजग को सवर्ण मतों का जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई वे दलित मतों में सेंधमारी करके पूरा करते दिख रहे हैं। इस लिहाज से दोनों प्रमुख दल मसलन राजद और राजग मोटे तौर बराबर की स्थिति में है।
इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि इस बार बिहार विधानसभा की तस्वीर न्यूट्रल मतदाताओं के मतों से ही निर्धारित होगी। और यही मतदाता इस बार यह तय करेंगे कि बिहार में अगली सरकार किसकी बनेगी। गौरतलब है कि बिहार में ऐसी करीब एक दर्जन जातियां हैं, जो किसी भी दल का कट्टर समर्थक नहीं हैं। इनमें धानुक, बनिया, खतवे, सूड़ी, कमार-सोनार, कुम्हार, मालाकार, पनबाड़ी आदि प्रमुख हैं। ये बिहार की कुल आबादी के लगभग 16-17 प्रतिशत हैं। अगर मंडल के दौर को छोड़ दें, तो आज तक ये जातियां कभी भी किसी पार्टी का कट्टर समर्थक नहीं रही हैं। कोई संदेह नहीं कि इनका लालू यादव और उनकी राजनीति से मोह भंग हो चुका है और संकेत है कि इस चुनाव में इन जातियों के अधिकतर मत राजग को मिले हैं। अगर सच में एक मुश्त रूप में ऐसा हुआ है, तो नीतीश की वापसी तय समझिये। अगर ऐसा नहीं हुआ तो बिहार में त्रिशंकु विधानसभा की संभावना ही दिखती है, क्योंकि यह साफ है कि शहरी क्षेत्र में जद (यू)-भाजपा क्लीन स्वीप करने जा रही है। ग्रामीण इलाके में मुकाबला कांटे का है, इसलिए जिस पक्ष में ये न्यूट्रल जातियां झुकेंगी, वही अगले 24 नबंवर को पटना में झंडा फहरायेगा।

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

वो सिर्फ ओबामा

वो प्रबल राष्ट्र
वो सबल समाज
जिनका अपना न कोई इतिहास
जिनका है यह अटल विश्वास
बिना शिकार
जीवन बेकार
देश बेकार
दुनिया बेकार
उस प्रचंड राष्ट्र के राष्ट्रपति
न हो सकते हैं यात्री
वो आये और लौट गये
संग 'चौर-चीत' भी लेते गये
अब सेंध पड़ेगा टाट में
सब कुछ होगा हाट में

मत समझो उसे सुदामा
वह सिर्फ ओबामा, सिर्फ ओबामा