देश के चुनावी इतिहास में नया अध्याय जोड़ने वाला बिहार विधानसभा चुनाव-2010 (जो यह बतायेगा कि विकास और गुड गवर्नेंस के नाम पर इस देश में चुनाव जीते जा सकते हैं या नहीं) के परिणामों के बारे में तरह-तरह के विश्लेषण-आकलन, अनुमान-पुर्वानुमान हो रहे हैं। हर मन में एक ही सवाल है कि बिहार में इस बार क्या होगा ? नीतीश का जादू चलेगा या फिर लालू-रामविलास की जोड़ी बाजी मार ले जायेगी? कहीं चंद्रबाबू की तरह नीतीश के विकासवाद की हवा तो नहीं निकल जायेगी ?
हालांकि अधिकतर एग्जिट पोल में राजग की जीत बतायी जा रही है, लेकिन किसी के पास अपनी बात के समर्थन में ठोस सबूत या तर्क नहीं हैं। सभी आकलन परंपरागत फॉमूर्ले पर आधारित हैं, जिनमें जातीय समीकरणों को मुख्य तर्क बनाया जा रहा है। नीतीश कुमार की सरकार की उपलब्यिों को बहस में शामिल तो की जाती है, लेकिन इसे परिणाम-निर्धारक बात नहीं मानी जाती। चूंकि एग्जिट पोल के सैंपल्स शहरी इलाके के हैं, इसलिए इसके आधार पर अगली विधानसभा की शक्लो-सूरत के बारे में साफ-साफ कुछ भी नहीं कहा जा सकता। ग्रामीण बिहार में इस बार मतों का रूझान इस कदर मिलाजुला है कि पड़ोस वाले को नहीं मालूम कि उनके पड़ोसी ने किस निशान पर बटन दबाया।
दूसरी ओर यह भी सच है कि बिहार में अभी जातीय समीकरण का अस्तित्व खत्म नहीं हुआ है और इस बार भी लगभग तमाम जातियों ने अपने-अपने परंपरागत जाति-प्रेम, गोत्र-मोह या पूर्वाग्रह में मतदान किये हैं। लेकिन यह ट्रेंड भी इस कदर जटिल है कि इसके आधार पर भी नहीं बताया जा सकता कि चुनावी पलड़ा राजद के पक्ष में झुकेगा या राजग के पक्ष में। वह इसलिए कि इस बार दोनों पक्षों का जातीय जनाआधार लगभग बराबर है। अगर यादव जाति राजद के पक्ष में इनटैक्ट है, तो कुर्मी-कोइरी राजग के पक्ष में और इन दोनों की संख्या-ताकत लगभग बराबर है। मुस्लिम और तथाकथित अगड़ी जातियों के मतों में विभाजन हुआ है और इन दोनों समुदाय के मत अच्छे-खासे प्रतिशत में कांग्रेस को मिले हैं, जो पिछले चुनाव में राजग को मिले थे। राजद को मुस्लिम मतों का नुकसान तो हुआ है, लेकिन इसका फायदा राजग को नहीं मिलने जा रहा। वहीं राजग को सवर्ण मतों का जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई वे दलित मतों में सेंधमारी करके पूरा करते दिख रहे हैं। इस लिहाज से दोनों प्रमुख दल मसलन राजद और राजग मोटे तौर बराबर की स्थिति में है।
इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि इस बार बिहार विधानसभा की तस्वीर न्यूट्रल मतदाताओं के मतों से ही निर्धारित होगी। और यही मतदाता इस बार यह तय करेंगे कि बिहार में अगली सरकार किसकी बनेगी। गौरतलब है कि बिहार में ऐसी करीब एक दर्जन जातियां हैं, जो किसी भी दल का कट्टर समर्थक नहीं हैं। इनमें धानुक, बनिया, खतवे, सूड़ी, कमार-सोनार, कुम्हार, मालाकार, पनबाड़ी आदि प्रमुख हैं। ये बिहार की कुल आबादी के लगभग 16-17 प्रतिशत हैं। अगर मंडल के दौर को छोड़ दें, तो आज तक ये जातियां कभी भी किसी पार्टी का कट्टर समर्थक नहीं रही हैं। कोई संदेह नहीं कि इनका लालू यादव और उनकी राजनीति से मोह भंग हो चुका है और संकेत है कि इस चुनाव में इन जातियों के अधिकतर मत राजग को मिले हैं। अगर सच में एक मुश्त रूप में ऐसा हुआ है, तो नीतीश की वापसी तय समझिये। अगर ऐसा नहीं हुआ तो बिहार में त्रिशंकु विधानसभा की संभावना ही दिखती है, क्योंकि यह साफ है कि शहरी क्षेत्र में जद (यू)-भाजपा क्लीन स्वीप करने जा रही है। ग्रामीण इलाके में मुकाबला कांटे का है, इसलिए जिस पक्ष में ये न्यूट्रल जातियां झुकेंगी, वही अगले 24 नबंवर को पटना में झंडा फहरायेगा।
हालांकि अधिकतर एग्जिट पोल में राजग की जीत बतायी जा रही है, लेकिन किसी के पास अपनी बात के समर्थन में ठोस सबूत या तर्क नहीं हैं। सभी आकलन परंपरागत फॉमूर्ले पर आधारित हैं, जिनमें जातीय समीकरणों को मुख्य तर्क बनाया जा रहा है। नीतीश कुमार की सरकार की उपलब्यिों को बहस में शामिल तो की जाती है, लेकिन इसे परिणाम-निर्धारक बात नहीं मानी जाती। चूंकि एग्जिट पोल के सैंपल्स शहरी इलाके के हैं, इसलिए इसके आधार पर अगली विधानसभा की शक्लो-सूरत के बारे में साफ-साफ कुछ भी नहीं कहा जा सकता। ग्रामीण बिहार में इस बार मतों का रूझान इस कदर मिलाजुला है कि पड़ोस वाले को नहीं मालूम कि उनके पड़ोसी ने किस निशान पर बटन दबाया।
दूसरी ओर यह भी सच है कि बिहार में अभी जातीय समीकरण का अस्तित्व खत्म नहीं हुआ है और इस बार भी लगभग तमाम जातियों ने अपने-अपने परंपरागत जाति-प्रेम, गोत्र-मोह या पूर्वाग्रह में मतदान किये हैं। लेकिन यह ट्रेंड भी इस कदर जटिल है कि इसके आधार पर भी नहीं बताया जा सकता कि चुनावी पलड़ा राजद के पक्ष में झुकेगा या राजग के पक्ष में। वह इसलिए कि इस बार दोनों पक्षों का जातीय जनाआधार लगभग बराबर है। अगर यादव जाति राजद के पक्ष में इनटैक्ट है, तो कुर्मी-कोइरी राजग के पक्ष में और इन दोनों की संख्या-ताकत लगभग बराबर है। मुस्लिम और तथाकथित अगड़ी जातियों के मतों में विभाजन हुआ है और इन दोनों समुदाय के मत अच्छे-खासे प्रतिशत में कांग्रेस को मिले हैं, जो पिछले चुनाव में राजग को मिले थे। राजद को मुस्लिम मतों का नुकसान तो हुआ है, लेकिन इसका फायदा राजग को नहीं मिलने जा रहा। वहीं राजग को सवर्ण मतों का जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई वे दलित मतों में सेंधमारी करके पूरा करते दिख रहे हैं। इस लिहाज से दोनों प्रमुख दल मसलन राजद और राजग मोटे तौर बराबर की स्थिति में है।
इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि इस बार बिहार विधानसभा की तस्वीर न्यूट्रल मतदाताओं के मतों से ही निर्धारित होगी। और यही मतदाता इस बार यह तय करेंगे कि बिहार में अगली सरकार किसकी बनेगी। गौरतलब है कि बिहार में ऐसी करीब एक दर्जन जातियां हैं, जो किसी भी दल का कट्टर समर्थक नहीं हैं। इनमें धानुक, बनिया, खतवे, सूड़ी, कमार-सोनार, कुम्हार, मालाकार, पनबाड़ी आदि प्रमुख हैं। ये बिहार की कुल आबादी के लगभग 16-17 प्रतिशत हैं। अगर मंडल के दौर को छोड़ दें, तो आज तक ये जातियां कभी भी किसी पार्टी का कट्टर समर्थक नहीं रही हैं। कोई संदेह नहीं कि इनका लालू यादव और उनकी राजनीति से मोह भंग हो चुका है और संकेत है कि इस चुनाव में इन जातियों के अधिकतर मत राजग को मिले हैं। अगर सच में एक मुश्त रूप में ऐसा हुआ है, तो नीतीश की वापसी तय समझिये। अगर ऐसा नहीं हुआ तो बिहार में त्रिशंकु विधानसभा की संभावना ही दिखती है, क्योंकि यह साफ है कि शहरी क्षेत्र में जद (यू)-भाजपा क्लीन स्वीप करने जा रही है। ग्रामीण इलाके में मुकाबला कांटे का है, इसलिए जिस पक्ष में ये न्यूट्रल जातियां झुकेंगी, वही अगले 24 नबंवर को पटना में झंडा फहरायेगा।
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