रविवार, 29 मार्च 2009

बात पते की/ किसान को 21 सौ, चपरासी को 15 हजार

देविंदर शर्मा
सरकारी कर्मचारियों के वेतन आयोग की तर्ज पर किसान आय आयोग गठित करने की मांग जोर पकड़ रही है. तीन वर्ष पूर्व सबसे पहले मैंने किसानों के लिए सुनिश्चित मासिक आय के प्रावधान की मांग की थी. अब धीरे-धीरे देश हताश किसान समुदाय की आय सुरक्षा के बुनियादी मुद्दे पर ध्यान दे रहा है. अर्थव्यवस्था के आधार स्तंभ किसानों को सुनिश्चित आय प्रदान कर हम वास्तव में अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने के लिए जरूरी टानिक दे रहे हैं.
कुछ समय पहले जींद में एक रैली में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने साफ-साफ कहा था कि अगर उनका दल सत्ता में आया तो वह किसानों को प्रत्यक्ष आर्थिक सहायता प्रदान करेंगे. तेलगूदेशम पार्टी के चंद्रबाबू नायडू भी किसानों समेत तमाम गरीबों के लिए काफी कुछ देने की घोषणा कर चुके हैं. इस बात का अहसास होते ही कि भारतीय राजनीतिक नेतृत्व किसानों को सीधे-सीधे आर्थिक सहायता की जरूरत के संबंध में सचेत हो रहा है, अर्थशास्त्रियों और नीति निर्माताओं में बेचैनी शुरू हो गई है. कुछ ने कहना शुरू कर दिया है कि किसानों को धन देने से वे आलसी हो जाएंगे.
इस प्रकार के विश्लेषण से मैं विचलित नहीं हूं. हममें से बहुत से लोगों को, जो किसानों को करीब से जानते हैं, यह पता है कि केवल किसान ही धन का सही इस्तेमाल करना जानते हैं. इसीलिए हम चाहते हैं कि वित्त मंत्री केवल उन्हीं के लिए अपनी तिजोरी खोलें. अन्य सभी इन संसाधनों को बर्बाद कर डालेंगे.
वैश्विक कृषि की समझ के आधार पर कहा जा सकता है कि आधुनिक कृषि में खेती की दो तरह की अवधारणाएं हैं. पहली है, पाश्चात्य देशों में उच्च अनुदान प्राप्त खेती और दूसरी अवधारणा गुजारे की खेती में देखने को मिलती है, जो विकासशील देशों में प्रचलित है.
गुजारे की खेती को बचाने का एकमात्र उपाय यही है कि विकसित और धनी देशों की तर्ज पर उन्हें भी प्रत्यक्ष आर्थिक सहयोग दिया जाए. अगर आप सोचते हैं कि मैं गलत हूं तो धनी और विकसित देशों में प्रत्यक्ष आर्थिक सहयोग बंद करके देख लें, इन देशों की खेती ताश के पत्तों की तरह भरभराकर ढह जाएगी. इसलिए समस्या कृषि की इन व्यवस्थाओं के प्रकार की है, जिन्हें अपनाने के लिए विश्व को बाध्य किया जा रहा है.
पहली हरित क्रांति औद्योगिक कृषि व्यवस्था में फली-फूली, जिसने हमें उस संकट में फंसा दिया है, जिसका हम आज सामना कर रहे हैं. इसने भूमि की उर्वरता खत्म कर दी, कुपोषण को बढ़ाया, भूजल स्तर सोख लिया और मानव के स्वास्थ्य व पर्यावरण पर तो कहर बनकर टूटी पड़ी. इससे कोई सबक सीखने के बजाय हम दूसरी हरित क्रांति की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं.
यह हरित क्रांति वर्तमान संकट को बढ़ाएगी और जैसा कि विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संघ की मंशा है, किसानों को खेती से बेदखल कर देगी.
दूसरी हरित क्रांति जीएम फसलों के घोड़े पर सवार होकर आ रही है. यह कड़े आईपीआर कानूनों में बंधी हुई है. इसके तहत बीजों पर निजी कंपनियों का नियंत्रण हो जाएगा. साथ ही बाजार व्यवस्था में भारी बदलाव कर किसानों की जेब में बची-खुची रकम भी निकाल ली जाएगी.
कृषि को फायदेमंद बताने के नाम पर इस व्यवस्था में अनुबंध खेती, खाद्य पदार्थों की रिटेल चेन, खाद्य वस्तुओं का विनिमय केंद्र और वायदा कारोबार आदि आते हैं. अगर ये व्यवस्थाएं कारगर होतीं और किसानों के लिए लाभदायक होतीं तो फिर अमेरिकी सरकार किसानों की मुट्ठी भर आबादी को किसी न किसी रूप में भारी-भरकम प्रत्यक्ष आर्थिक सहायता क्यों देती?
तकलीफदेह बात यह है कि कृषि का यह विफल माडल ही भारत में आक्रामक तरीके से स्थापित किया जा रहा है. मुझे कभी-कभी हैरत होती है कि कृषि वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री और योजनाकार वास्तव में कर क्या रहे हैं? 40 साल से असरदार नौकरशाह और प्रौद्योगिकीविद किसानों को यही बताते आ रहे हैं कि वे जितना ज्यादा अन्न पैदा करेंगे, उनकी उतनी ही आमदनी बढ़ेगी. इस तरह चालीस सालों से वे किसानों को गुमराह करते आ रहे हैं.
ऐसा उन्होंने क्यों किया, इसकी सीधी-सी वजह है. वास्तव में वे किसानों की मदद नहीं कर रहे थे, बल्कि किसानों की आड़ में खाद, कीटनाशक, बीज और कृषि संबंधी यांत्रिक उपकरण बनाने वाली कंपनियों के व्यापारिक हितों को बढ़ावा दे रहे थे. इसीलिए एनएसएसओ के इस आकलन पर हैरानी नहीं होती कि इन 40 साल के बाद एक किसान परिवार की मासिक आय मात्र 2115 रुपये है. किसान परिवार में पांच सदस्यों के साथ-साथ दो पशु भी शामिल हैं.
छठे वेतन आयोग में सरकारी सेवा में कार्यरत चपरासी को 15 हजार रुपये वेतन का वायदा किया गया है. एक राष्ट्र के रूप में क्या हम यह नहीं सोच सकते कि किसान की कम से कम इतनी आय तो हो जितना कि एक चपरासी वेतन पाता है? जब एक किसान परिवार की मासिक आय 2115 रुपये है तो नौकरशाहों और प्रौद्योगिकी के धुरंधरों को शर्म क्यों नहीं आनी चाहिए? यदि वे शर्मिंदा नहीं होते तो हमें उन्हें अपनी गलती स्वीकारने को बाध्य करना चाहिए.
उन कृषि अर्थशास्त्रियों के बारे में सोचिए जो शोध प्रबंधों, अध्ययनों और विश्लेषणों के माध्यम से हमें यह घुट्टी पिला रहे हैं कि आधुनिक कृषि लाभप्रद है. अब वे कहां हैं? क्या उनकी कोई जवाबदेही नहीं है. उनके गलत आकलनों की वजह से ही लाखों छोटे और सीमांत किसानों का जीवन उजड़ गया है.
इन बीते वर्षों में किसानों को गुमराह किया गया. उन्हें इस बात का विश्वास दिलाया गया कि अगर वे और प्रयास करते हैं तो उन्हें और लाभ होगा. यही नहीं, ये अर्थशास्त्री, वैज्ञानिक और नौकरशाह अब मुक्त बाजार, कमोडिटी एक्सचेंज, वायदा कारोबार और खाद्य रिटेल चेन की दुहाई देने लगे हैं कि इससे कृषि आर्थिक रूप से समर्थ होगी. अमेरिका और यूरोप में यह प्रयोग सफल नहीं रहा है. भारत में भी यह सफल नहीं हो पाएगा.
यह ध्यान देने योग्य है कि किस तरह एक दोषपूर्ण नीति को भारत में इतनी तेजी के साथ बढ़ावा दिया जा रहा है. वायदा कारोबार, कमोडिटी एक्सचेंज का फायदा किसानों को नहीं, बल्कि सट्टेबाजों, परामर्शदायक संस्थाओं, रेटिंग एजेंसियों और व्यापरियों को होगा.
विडंबना यह भी है कि किसान नेता किसानों के लिए एक निश्चित मासिक आय की मांग नहीं कर रहे हैं. वे केवल अधिक न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग कर रहे हैं.
इनमें से कोई इस बात को नहीं समझ पा रहा है कि मुश्किल से 35 से 40 प्रतिशत किसान ही ऐसे हैं जो अंतत: सरकारी खरीद का लाभ उठा पाते हैं. शेष किसान समुदाय, जो वास्तव में बहुसंख्यक है, खाद्यान्न का उत्पादन करता है. अगर उनके पास थोड़ा-बहुत बेचने के लिए है तो भी उन्हें कम से कम भोजन की पूर्ति तो करनी ही है. अगर वे खुद के लिए अनाज नहीं उगाते तो देश को उतनी मात्र में खाद्यान्न आयात करना पड़ेगा.
दूसरे शब्दों में वे आर्थिक समृद्धि पैदा कर रहे हैं. इसलिए उन्हें भी देश के लिए पैदा की जा रही आर्थिक समृद्धि के बदले में क्षतिपूर्ति मिलनी चाहिए।
(प्रतिष्ठित पोर्टल रविवार डाट काम से साभार। समसामयिक मुद्दे पर सम्यक दृष्टि के लिए इस साइट पर जरूर जायें, यूआरएल है http://www.raviwar.com/ )

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

सुने हैं कि वोटा-वोटी होने वाला है

मुझे नहीं मालूम कि आगामी आम चुनाव को लेकर आम शहरी मतदाता क्या सोच रहे हैं। हालांकि रोज टेलीविजन पर चुनावी-बहस सुनता हूं और अखबारों-पत्रिकाओं में छपे लंबे-लंबे लेख पढ़ता हूं। ये लेख, ये टेलीविजन के कार्यक्रम नेताओं के बारे में तो बहुत कुछ बताते हैं, लेकिन आम जन के बारे में कुछ नहीं कह पाते। शहरी समाज में शायद यह संभव भी नहीं है । यहां ऐसा कोई माध्यम नहीं है जिससे आप आम जन के नब्जों को पढ़ सकें। हालांकि शहर में हर दिन सेमिनार और गोष्ठियां होते रहते हैं। अब कहने की जरूरत नहीं कि सेमिनार में भाग लेने वाले कभी "आम' नहीं हो सकते, सेक्यूलर होने का तो सवाल ही नहीं उठता है। यहां सेक्यूलर से मेरा मतलब वास्तविक सेक्यूलरिज्म से है। और वास्तविक सेक्यूलरिज्म का जो मतलब मैं जानता हूं उसके अनुसार, जहां दो मानव के बीच में किसी आधार पर कोई भेद-भाव न हो। क्या सेमिनारों में, गोष्ठियों में ऐसा होता है ? वहां भाग लेने के लिए एक शर्त होती है, कभी घोषित कभी अघोषित। आप आयोजकों द्वारा निर्धारित खास योग्यता, खास वाद, खास गठबंधन, खास गुट और खास मकसद में फिट बैठें तो उनके आयोजन का हिस्सा है अन्यथा नहीं। तो फिर इन्हें सेक्यूलर कैसे माने ?
हां, गांव में ऐसा माध्यम आज भी उपलब्ध है। गांव के हाट में, गांव के चौराहे पर, पोखर के महार पर, गांव के रेलवे-हॉल्ट और खास-खास दलान पर आम लोग बैठते हैं, जहां सेक्यूलर बहस चलती रहती है। पिछले दिनों मुझे एक ऐसी ही लंबी बहस सुनने का अवसर मिला। मैं बिहार के सुपौल जिले के एक गांव के रेलवे स्टेशन पर गाड़ी की प्रतीक्षा में बैठा था। मेरे अलावा वहां करीब पचास-साठ लोग और बैठे हुए थे। गाड़ी दो घंटे विलंब से चल रही थी। खुले आसमान वाले उस कच्चे प्लैटफार्म की हरी दूब पर लोगों के बीच बहस चल रही थी। बहस का मुद्दा था, आगामी संसदीय चुनाव। बहस में शामिल अधिकतर लोग इस बात पर एकमत थे कि कोई भी जीते, उनका भला नहीं होने वाला। लेकिन वोट तो देना ही है, चलो किसी को दे देंगे। हालांकि बहस में कई मुद्दों पर वे एक-दूसरे से असहमत भी थे। इस दो घंटे की बहस को सुनने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि ग्रामीणों का सभी पार्टियों, सभी नेताओं से मोह-भंग हो चुका है। और वे यह मानकर चल रहे हैं कि यह व्यवस्था उनके लिए कुछ नहीं कर सकती। गौरतलब है कि सुपौल लोकसभा क्षेत्र (परिसीमन से पहले सहरसा) के मतदाताओं ने लगभग सभी दलों के प्रत्याशियों को संसद भेजा है।
गांव के हाट में एक किसान दूसरे किसान से बात कर रहा था। पहले ने सवाल किया, सुने हैं कि वोटा-वोटी होने वाला है ?
दूसरे का जवाब था- अभी बहुत टेम है। जब तीन-चार दिन बचेगा, तब पूछियेगा इ सवाल।
सो काहे ?
तबे न नेतवन सब कें गाड़ी गांव में दौड़ेगी। झूठ-सांच बोलेगा। हाट-बजार में भाषण देगा। कहीं-कहीं हेलिकाप्टर उतार देगा। और कहेगा, वोट हमको ही दीजियेगा। जीतेंगे तो फलां काम कर देंगे। हियां रेल चला देंगे, हुआं बस चला देंगे, इंदिरा आवास देंगे तो जवाहर योजना देंगे । लेकिन हमको पता है, सब ठगबाज है। जीतकर अपना घर भरेंगे और कुछो नहीं करेंगे। उधर देखिये। लूच्चा सबको। झकास कुर्ता-पायजामा पहन कें अभिये से मूंछ टेर रहा है। यही सब नेताओं के कार्यकर्ता बनेगा। दस-दस, पांच-पांच हजार टका टानेगा कंडीडेड सब सें। एके महीना में गांजा-दारू में उड़ा देगा सब टका आउर फेर चोरी-छिनतई करने लगेगा।
हं- हं, ठीके कहते हैं, ऊ सरवा जलेश्वरा के बेटा को देखिये न ? ड्रेस से तो लगता है कि जैसे सुभाष बोस हो। लेकिन हम से पूछिये ओकर सच। सरवा पॉकेटमारी में पकड़ा गिया था, कटिहार टीशन पर। छह मास जेल काटकर आया है। कहता है लालटेन पार्टी का प्रचार कर रहे हैं।
हेंहेंहें....
सही बात। अच्छे, हाट-बजार हो गिया?
क्या होगा हाट बजार ? जेब में तो भूजी भांग नहीं है, चौराहा पर पान कहां से खायेंगे। बस नोन-तेल लिए हैं।
राम-राम !
राम-राम !

गुरुवार, 26 मार्च 2009

इस दलदल में प्रेम-क्रीड़ा करो प्रिये

बेकार झगड़ा न करो प्रिये
इस अगाध आकर्षण को निष्काम न करो
चलो, उठो अपने बालों को संवारो
और इस दलदल में
प्रेम का क्रीड़ा करो
तबतक
जबतक, दलदल ठस्स नहीं होये
तबतक
जबतक, नगंई ढक नहीं जाये

हम बहुत नग्न हो चुके हैं प्रिये
चलो मैं आलिंगन करूं तुम्हें
और तुम मुझे
और चुंबन के ताप से पैदा करें कोई चिंगारी
इस जंगली बेहयाई को जला देने के लिए
सफेदपोशों की अनैतिकता की नाश के लिए
भ्रष्टाचार की इस समुद्र को सूखा देने के लिए

बेकार झगड़ा न करो प्रिये
प्यार में अगर आग होती है
तो जलन भी होनी चाहिए
हाथों की लकीर नहीं होती दरिद्रता
शर्त यह है कि क्रांति होनी चाहिए
बेकार झगड़ा न करो प्रिये
हाथों में ले लो मेरा हाथ
प्यार करने वाले देंगे हमारा साथ
हम करेंगे क्रांति की क्रीड़ा
इन मक्कार सत्तालोलुपों की छाती पर
एक दिन
क्योंकि हम हैं मनुज, मनुज, मनुज

मंगलवार, 24 मार्च 2009

नेपाल आठवां सबसे खतरनाक देश

पत्रकारों के लिए नेपाल विश्व का आठवां सबसे खतरनाक देश बन गया है। हाल में ही अंतरराष्ट्रीय मीडिया संगठन, कमेटी टू प्रोटेक्ट जनर्लिस्ट (सीपीजे) ने यह घोषणा की। गौरतलब है कि यह संस्था हर साल दुनिया में प्रेस की स्थितियों और पत्रकारिता के अन्य पहलुओं पर इंडेक्स जारी करती है। संस्था ने अपने हालिया इंडेक्स में कहा है कि दुनिया के 14 देशों में पत्रकारों के जानमाल पर गंभीर संकट है और इन देशों की सरकार पत्रकारों पर हमला करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने में या तो असक्षम है या फिर वे जानबूझकर उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं करना चाहती। इस इंडेक्स में इराक सबसे ऊपर है। इसके बाद क्रमशः सियरालियोन, सोमालिया, श्रीलंका, कोलंबिया , फिलीपिंस और अफगानिस्तान हैं। इस सूची को जारी करते हुए सीपीजे ने कहा है कि नेपाल में पिछले एक साल में एक दर्जन पत्रकारों की हत्या हुई तथा कई दर्जनों केऊपर हमले हुए । इसके अलावा अन्य तरीकों से भी पत्रकारों का उत्पीड़न हुआ, लेकिन किसी भी मामले में सरकार की ओर से कोई संतोषजनक कार्रवाई नहीं हुई। सबसे हैरत की बात यह है कि इस सूची में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र का दावा करने वाले भारत का नाम भी शामिल है। भारत सूची में सबसे नीचे यानी 14वें नंबर पर है। इसके बावजूद यह भारत के लिए शर्मनाक बात है, क्योंकि सूची में शामिल अन्य देशों में राजनीतिक अस्थिरता के साथ-साथ गृह यृद्ध जैसे हालात हैं और वहां कानून -व्यवस्था का कमजोर होना लाजिमी है। लेकिन भारत, जहां के राजनेता अंतरराष्ट्रीय मंचों पर राजनीतिक और प्रशासनिक स्थिरता की बात करते नहीं थकते, तब भारत का इस सूची में शामिल होना काफी चिंता की बात है।

गुरुवार, 19 मार्च 2009

आखिरी अहाते में

सत्ता की राजनीति में डूबे हमारे नेता अब शायद अंतिम अहाते में पहुंच गये हैं। उस अहाते में,जहां सरपट दौड़ा जाता है। जहां किसी को किसी चीज की फिक्र करने की कोई आवश्यकता नहीं होती। धोती खुल जाती है, दौड़ जारी रहती है। पैर टूट जाते हैं, लेकिन भागते जाने का सिलसिला नहीं थमता। किसी बात पर शर्म नहीं होती, किसी पतन का परवाह नहीं रहता। सिर्फ एक ही चीज उन्हें याद रहती है, वह है कुर्सी और सत्ता। सत्ता और कुर्सी के लिए उन्हें हर बात हर शर्त मंजूर है। जनता कह रही है आप बेहया हैं, आपको कुछ याद नहीं। एक घंटे पहले तक आप उस पार्टी के सबसे कर्मठ कार्यकर्ता थेअचानक उसके विरोधी कैसे हो गये। आप तो कसम खाकर कहते थे कि मरूंगा तो इस पार्टी के झंडे के तले और जीऊंगा तो इसी के बैनर तले। एक टिकट क्या नहीं मिली कि आप उसके दुश्मन नंबर वन हो गये। पटना में आप उनसे कुश्ती करेंगे और दिल्ली में गलबहिया ? यह कैसे संभव है ? कल तक आप जिसको शैतान की औलाद कह रहे थे पलभर में वह आपके इतने प्यारे कैसे हो गयेकि आज उनके गले में हाथ डालकर फोटो खींचवा रहे हैं ?
नेता जी का जवाब होता है- सब आपके लिए जनता जनार्दन । ये सारे बेहयापन, सारी कुर्बानियां, ये रंग बदलना, ये चोला उतारना और पहनना; सब आपके लिए सरकार। आप कुछ मत पूछो तो ही भला है। मानो जनता वैद्यनाथ धाम का भोला बाबा हो और नेता उनके पंडे। भोला बाबा का नाम लो और चढ़ावा पंडों के हवाले कर दो। इसलिए नेता कह रहे हैं- आप तो सिर्फ वोट देने के दिन घर से निकलना और हमारे निशान के सामने बटन दबा देना। देश को हम चलायेंगे। आपको चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। जनता एक से नजर उठाकर दूसरे की ओर उम्मीद भरी दृष्टि से देखती है कि शायद कोई मिल जाये। लेकिन नहीं मिलता। अहाते में दूर-दूर तक बेशर्मों की फौज खड़ी है। सभी जाने-पहचाने, एक से गिरकर एक। कोई मंदिर को गलिया रहा है तो कोई मस्जिद को। कोई जाति को गलिया रहा है तो कोई मजहब को। कोई भाई बहन को ,तो कोई बहन भाई को शपिया रहे हैं। जनता इस बदबूदार अहाते से दूर भाग जाना चाहती है, लेकिन नहीं भाग पाती। टेलीविजन वाले उनका पीछा नहीं छोड़ रहे। वे अहाते को पैकेट में पैक कर जनता के बैठक खाने में भेज रहे हैं। कहां जाये जनता, क्या करे जनता। जनता की माने तो राजनीति अपनी आखिरी अहाते में दाखिल हो चुकी है। लेकिन उन्हें इससे आगे जाना होगा। इस अहाते को बंद करना होगा। नये अहाते बनाने होंगे। पता नहीं जनता इस बात को कब समझेगी।

बुधवार, 18 मार्च 2009

कूको न कोयल

दहाये हुए देस का दर्द-39
अगर वह हादसा नहीं हुआ होता,तो नजारा पिछले बसंत के माफिक ही होता। बसंत का महीना। होली का जोगीरा और कोयल की कूक। ये तीनों मिले तो किनका मन नहीं हूलस जायेगा । अगर कुसहा प्रलय नहीं हुआ होता तो उषाकाल की सुबह में पीपल के पेड़ पर कौअॆ और कोयल के बीच चोंच-युद्ध का दृश्य आम होता। उनके मल्लयुद्धों से आजिज आकर दूसरी चिड़िया पेड़ छोड़ देती। और अल्हड़, मनफेंक नौजवानों का समवेत स्वर गुंजता- जोगीरा सरारारा ... और डोयढ़ी बुहाड़ती नवविवाहिता, नजरें नींचाकर चौअन्नी मुस्की में मन-ही-मन गातीं, ननदिया अपने भैया को भेजो संदेश कि कोयल कूके सगर देस...
भैंस चराकर लौटते चरवाहे, ढेले फेंकते और दुष्ट कौअॆ को भदेस गाली देते- ""तोरा बहि के... देखही रे झिरवा, इ सरवा कोयली कें। सरवा अपन अंडा कौआ के खोता में राखे ले (रखने के लिए) कौन-कौन आसन कर रहा है। पहले एक ठो कोयली (कोयल) आकर कौआ को भड़कायेगा और जब कौआ उसको दबाड़ने (खदेड़ने) लगेगा तो दूसरा कोयली मौका पाबि कर चुपके-से ओकर खोता (घोंसला)में अपना अंडा छोड़ देगा। जब कौआ घूइम-फिर के आवेगा, तो ऊ कोयली के अंडा को अपना समझकर खूब जतन से सेवेगा। मूरख कौआ-कौआइन को डेढ़ महीना तक पतो नाहीं चलेगा कि ऊ अपन नाहीं कोयली कें बच्चा को पाल रहा है। जब गेल्हा (कोयल का बच्चा) काउ-काउ के बदले कूउउ-कूउउ राग शुरू कर देवेगा तब ओकर (उसका) माथा ठनकेगा। इ तो हम दोसर के बच्चे को पाल रहे थे! फिर देखना, इ गेल्हा के हाल! सरवा के नसीबे में चोंच-मार लिखा है। एतना चोंचियायेगा कौआ-कौआइन कि बेचारा पर दया आ जावेगा। ''
" लेकिन दोष त कोयलिया कें है। ऊ कुकर्म करता है और भोगता है गेल्हा।''
" ... फेर आया रे। हूआं देखो। मार साल कोयली के ढेला।''
" ... ओ हो हो, हुइस(चूक) गिया, थोड़े से हुइस गिया। हमर निसान तें पक्का था। हो हो हो...''
इस बार मैं यह नजारे देखने के लिए तरस कर रह गया हूं। इसे देखने के लिए पिछले कुछ दिनों से सुबह पांच बजे उठ जाता हूं। खेत-मैदान में दूर-दूर तक निकल जाता हूं। न किसी कोयल की कूक सुनाई देती है और न ही कौअॆ का काउं-काउं। भैंसवार इक्के-दुक्के जरूर दिख जा रहे हैं, मगर कौअॆ-कोयल का चोंच-युद्ध कहीं देखने को नहीं मिलता। भैंसवारों से पूछता हूं- "" एहि बेर कोयली नहीं आया, कि हो झिरो ? हम तो एको बेर कूक नहीं सुने हैं ? ''
झिरवा शरमा जाता है। फिर कहता है- "हं भैया, हमहूं सब एहि बेर कोयली कें कुनू (कोई) सून-घान (आभास) नहीं पाये हैं। लगता है कोयली सब भी कोशिकी के प्रलय से डर गिया है।''
घर लौटकर विचार करता हूं। प्राणि विज्ञान की पुरानी किताबों को उलटता हूं। उनमें कोयल के स्वभावों को ध्यान से पढ़ता हूं। स्पष्ट तौर पर यहां कुछ नहीं बताया गया है, लेकिन चिड़ियों के स्वभावों के बारे में कहा गया है कि मौसमी चिड़िया पारिस्थितिकी के प्रति अत्यंत संवेदनशील होती हैं। उन्हें बिगड़ी हुई पारिस्थितिकी को परखने की तीक्ष्ण शक्ति होती है।
तो क्या कोयल को पता है कि इधर के हालात ठीक नहीं हैं ? शायद हां। कोशी क्षेत्र में हालात बहुत खराब हैं। बाढ़ ने पेड़ों को सूखा दिया है। रेत ने हरियाली को। क्या खाये कोयल और किस पेड़ पर वह बिठाये बसेरा। आम की मंजरी हुई कुछ डालियां उनका इंतजार कर रही हैं, लेकिन कोयल लापता है। उसकी कूक सुनाई नहीं देती, बाढ़ग्रस्त इलाकों में।
सूर्योदय की पहली किरण जब रेत से नहाये खेतों पर पड़ती है, तो दृश्य बहुत मनोरम लगता है। लेकिन यह मनोहरी भाव ज्यादा देर तक नहीं टिकता। सुबह के नौ बजते-बजते तेज सूखी पछवा हवा चलने लगती है। हवा में धूल का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। ऐसा लगता है जैसे मानो किसी रेगिस्तान में पहुंच गये हो। शाम तक यही स्थिति रहती है। वैसे आजकल कोशी इलाके में शाम से पहले ही अंधियारा छा जाता है। रात से पहले ही रात आ जाती है ! मन तरस कर रह जाता है, लेकिन कोयल नहीं कूकती।

सोमवार, 16 मार्च 2009

इस नकाब पर मर-मर जाऊं

बचपन में जब गांव का देसी नाच (नाटक) देखकर घर लौटता, तो कई दिनों तक एक ही सवाल मन-मस्तिष्क में कौंधता रहता था। डांट के डर से घर और स्कूल में किसी से पूछ नहीं पाता था कि कल रात नाच के स्टेज पर जिसने नकाब पहन सबको खूब डराया था, वह आखिर था कौन ? उसका क्या नाम है ? वह कहां रहता है ? गांव-बस्तियों में तो वह कभी कहीं दिखाई नहीं देता? अक्सर नौकरों से पूछता ? दलित बस्तियों के हमउम्र बच्चों से पूछता- अच्छा, बताओं तो आल्हा-उदल के नाच में उस दिन लठैत कौन बना था? तब वे नौकर, वे हमउम्र गरीब बच्चे मेरी मुर्खता पर खिलखिलाकर हंस पड़ते और कहते- धत तेरी के ! अरे ऊ तो कैला मुसहर का बेटा छुतहरूवा था। वही जो ठाकुर साहेब की हलवाही करता है। जवाब सुनने के बाद अचानक सवाल से दिलचस्पी खत्म हो जाती थी। छुतहरूवा का चेहरा याद करके ही खौफनाक जिज्ञाशों पर मानो ठंडा पानी पड़ जाता था। मन ही मन तब खुद से कहता- अरे छुतहरू मुसहर ? वह क्या डरायेगा किसी को ? उसे तो ठाकुर साहेब की पांच वर्ष की पोती भी मां-बहन की गाली देती रहती है और वह सिर झुकाकर सबकुछ सुनते रहता है।
वह नाच का नकाब था, जो रात के बाद हमेशा के लिए उतर जाता फिर अगले नाच तक उसे कोई नहीं पहनता था। लेकिन आज उस नकाब को देखता हूं जिसे हर किसी ने अपने चेहरे पर लगा लिया है। अक्सर इस नकाब के पीछे का चेहरा नहीं दिखता। जिस शख्स से हम अभी-अभी मिले, वह वास्तव में कौन है और उसका असली सूरत कैसी है, हम नहीं पहचान पाते। इन नकाबों के पीछे छिपे हुए इंसान का पता कोई नहीं जानता।
बहुत सारे पेशे के बहुत सारे लोगों से मिला हूं। कुछ स्वनामधन्य, कुछ स्वकामधन्यों से भी। कुछ कला प्रेमी, कुछ सेवा प्रेमी, कुछ साहित्य प्रेमी, तो समाज प्रेमी। किसी ने समाज सेवा को अपना धर्म बताया तो किसी ने कला की उपासना को अपने जीवन का ध्येय गिनाया। किसी ने नैतिकता का पाठ पढ़ाया तो किसी ने क्रांति को अनिवार्य बताया। जबकि वे सभी झूठे थे। संयोग से मैंने पत्रकारिता को अपना पेशा बनाया और जिसके कारण यह सूची लंबी होती गयी और नित नयी हो रही है। दुनिया को लोगों का अता-पता बताता हूं, लेकिन सच्चाई यह है कि मैं खुद वैसे लोगों की सच्चाई नहीं जानता, जिनके बारे में मैं अधिकारपूर्वक लिखता हूं। कितनी झूठी हो गयी है यह दुनिया? कितने झूठे हो गये हैं हम? जिनसे एक व्यक्ति भी प्रेम नहीं करता, हम उन्हें समाजसेवी कहकर संबोधित करते हैं। जो अपने सिवा किसी के बारे में नहीं सोचता, हम उसे एक्टिविस्ट कहते हैं।
कुछ लोगों को जानता हूं, जो सचमुच बहुत खूबसूरत हैं क्योंकि वे नकाब नहीं लगाते। लेकिन ऐसे लोगों को अक्सर हाशिए पर पाता हूं। एक मित्र हैं, जो इंजीनीयर, मैनेजर, आइएएस, डॉक्टर कुछ भी बन सकते थे। उसने मैट्रिक की परीक्षा में राज्य में प्रथम सौ में स्थान लाया था। लेकिन उसे शिक्षक बनने का जुनून था। बन भी गया। लेकिन केंद्रीय विद्यालय की राजनीति उसे शिक्षण-कार्य नहीं करने देती। हमेशा ही उसका तबादला होते रहता है, क्योंकि प्राचार्य और ऊपरी अधिकारियों के भ्रष्ट-व्यवसाय का वह हिस्सा बनना नहीं चाहता। एक सप्ताह पहले उसे अंडमान भेज दिया गया। एक पत्रकार को जानता हूं , जो सच लिखता है। बेहद काला है, लेकिन मुझे सुंदर दिखता है। उसने बीच कॉरियर में पत्रकारिता को अलविदा कह दिया है। ऐसे नकाबपोश समाज से जब मेरा मन ऊब जाता है, तो लौटकर गांव चला जाता हूं। छुतहरूवा मुसहर के नकली नकाब को देखने। दलित बस्तियों के उन हमउम्रों से मिलने, जो मुझे बहुत विद्वान समझते हैं। लगता है मेरे चेहरे पर भी नकाब आ गया है। अगर यह सच नहीं होता, तो वे आज भी मुझे उल्लू समझते और हंसते और कहते, अरे ऊ तो छुतहरूवा था, हेंहेंहें...

शनिवार, 7 मार्च 2009

क्या जंगल भी हमारे दुश्मन बन जायेंगे

जीवन और जंगल के मध्य सनातन काल से गहरी दोस्ती चली आ रही है। प्राचीन मानवों के लिए जंगल आवास और भोजन का का अकेला स्रोत था, तो आधुनिक मानव के लिए लकड़ी, फल, कंद-मूल के साथ-साथ शुद्ध वायु का अनन्य स्रोत। लेकिन नवीनतम अनुसंधान बताते हैं कि जंगल के चरित्र में बदलाव आ रहा है और अगर पर्यावरण असंतुलन का वर्तमान सिलसिला यों ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब जंगल दोस्त के बदले दुश्मन हो जायेंगे। पर्यावरण वैज्ञानिकों के एक दल ने हाल में ही इस बात से दुनिया को अगाह किया है। इस दल का कहना है कि सतत सूखा के कारण एशिया, दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका महादेशों के विशाल वर्षा वनों की प्रकृति में बदलाव आ रहा है। इसके कारण हमेशा से कार्बनडाइऑक्साइड गैस जैसे हानिकारक गैसों का अवशोषण करने वाले ये वन अपनी भूमिका निभाने में असमर्थ हो रहे हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि सूखा, आग और प्रदूषण के कारण इन वनों की पारिस्थितिकी में परिवर्तन हो रहा है। और अगर यह सिलसिला यों ही चलता रहा तो आने वाले समय में जंगल कार्बनाडाइऑक्साइड को सोखने के बदले कार्बनडाइऑक्साइड का उत्सर्जन की करने लगेंगे। ऐसी परिस्थिति में पर्यावरण में कार्बनडाइआक्साइड गैस की मात्रा बढ़ती चली जायेगी। जिसके परिणाम सृष्टिनाशक भी हो सकते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह प्रवृत्ति आमेजन घाटी के विशाल वर्षा वन में भी देखी जा रही है, जो दुनिया का विशालतम वर्षा वन है।
शोधकर्ताओं के अनुसार, आमेजन घाटी के वन के एक हिस्से में वर्ष 2005 में भारी सूखा पड़ा था। तीन वर्ष बाद जब सूखे प्रभावित हिस्से में वैज्ञानिकों सर्वेक्षण किया तो पाया कि वन के इन क्षेत्रों में कार्बनडाइऑक्साइड की मात्रा सामान्य से कहीं ज्यादा है। इसके आधार पर वैज्ञानिकों ने कहा कि सूखा प्रभावित हिस्सा अब कार्बन सोखने के बदले इसका उत्सर्जन कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि पिछले दो दशकों से लगातार यह देखा जा रहा है कि दुनिया के वर्षा वन सूखा की चपेट में आ रहे हैं। इसकी मुख्य वजह पर्यावरण असंतुलन है।
शोधकर्ताओं ने कहा कि दुनिया में प्रदुषण और ग्रीनहाउस गैसों के कारण जो पर्यावरण असंतुलन की स्थिति पैदा हो रही है उसका शिकार जंगल भी हो रहा है। जबकि आज भी वर्षा वन मानवीय गतिविधियों द्वारा पैदा की जा रही कार्बनडाइआक्साइड गैस का सबसे बड़ा अवशोषक है। दुनिया के कुल कार्बनडाइऑक्साइड गैसों का 10 प्रतिशत अकेले वर्षा वन द्वारा अवशोषित किये जाते हैं। एक आंकड़ा के मुताबिक, अभी दुनिया में प्रति वर्ष मानवीय गतिविधियों के कारण कुल 1.2 खरब टन कार्बनडाइऑक्साइड गैस का उत्सर्जन होता है। इस शोध में आगे कहा गया है कि वर्षा वनों में एक हेक्टेयर में 100 मिलीमीटर बारिश की कमी होने से उसके कार्बनडाइआक्साइड अवशोषण में प्रति हेक्टेयर 5.3 टन की घटोतरी हो जाती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि मानवीय हस्तक्षेप के कारण ऐसे भी दुनिया भर में जंगल के रकबा में कमी आ रही है। सूखा, आग और प्रदुषण जैसी घटनाएं जले में नमक छिड़कने का काम कर रही हैं ।

बुधवार, 4 मार्च 2009

रात वाली गाड़ी (पहली कड़ी)

इयन जैक्स
आज से तीस वर्ष पहले इंग्लैंड निवासी इयन जैक्स भारत आये थे। भारत भ्रमण के दौरान वे भारतीय रेल पर इतना मोहित हुए कि तीस साल यहां की रेलगाड़ियों में ही गुजार दिये। इस दौरान वे देश के कोने-कोने की रेल गाड़ियों में घूमते-विचरते रहे। जैक्स हाल में ही अपने देश लौट गये हैं। उन्होंने अपनी रेल-यात्राओं पर एक यात्रा वृतांत भेजा है जो काफी दिलचस्प है। यहां मैं मूल अंग्रेजी में लिखे उनके यात्रा वृतांत का हिन्दी अनुवाद रख रहा हूं ।
दिल्ली से कोलकाता जा रही रात की इस गाड़ी में मैं सोने का प्रयास कर रहा हूं, लेकिन नींद नहीं आ रही। इसलिए मैं भारत की अपनी पिछली रेल-यात्राओं का स्मरण कर रहा हूं। करीब एक सौ यात्राओं को याद कर चुका हूं। यादों का यह सिलसिला बहुत लंबा है, मन थक रहा है। जो यात्राएं अभी याद नहीं आ रहीं उसे फिर कभी पर छोड़ रहा हूं। लेकिन अजीब-अजीब बातें और चीजें याद आ रही हैं- यात्राओं की अनगिनत सुबहें, सुबह के समय चाय के कुल्हड़ में डाली गयी सिगरेट की राखें, स्टेशन के प्लैटफार्म पर बैठकर दूसरी रूट की गाड़ियों का इंतजार वगैरह-वगैरह... भारत में गोल्ड फ्लैक सिगरेटों का नामी ब्रांड है और कोयले वाली इंजन की धुआं बेहतरीन धुआं है और इंजन की सिटी सबसे बेहतरीन शोर और चाय सबसे उत्तम पेय... सहयात्रियों से की गयी बातचीत भी मुझे सिद्दत से याद आ रही है। कानपुर के खोमचे वाले की आवाज- केमको, केमको... हाथ देखने वाले ज्योतिषी की भविष्यवाणी, बैरक से घर लौट रहे भारतीय सैनिकों के अल्हड़ विचार और सहयात्रियों के साथ एक रात की दोस्ती। कभी-कभी यह अल्पकालिक दोस्ती भी काफी रागात्मक रूप ले लेती थी।
तीस वर्ष पहले जब मैं यात्रियों से मिलता था, तो वे रेलगाड़ियों से भली-भांती परिचित होते थे। इस कारण नहीं कि वे रेलगाड़ियों के प्रति विशेष रूचि रखते थे, बल्कि इसलिए कि रेल भारत में आवागमन का सबसे प्रमुख साधन है। वहां की सड़कें खतरे से खाली नहीं हैं और विमान-यात्रा तो आज भी खास व्यक्तियों के लिए ही है। भारत के लोग ट्रेनों के बारे में काफी जानकारी रखते हैं। मसलन कि कौन-सी गाड़ी वाहियात है, कौन-सी गाड़ी की टाइमिंग अच्छी है और कौन तेज चलती है और कौन-कौन सी गाड़ियां बेहद सुस्त रफ्तार से चलती हैं। लोग आपको बतायेंगे कि बरकाकाना जाने वाली गाड़ी के 9 नंबर के डिब्बे में अगर आप बैठेंगे तो आपको गोमो में गाड़ी बदलनी नहीं पड़ेगी। यह असाधारण ज्ञान है। यहां इंग्लैंड में लोग आपको ट्रेन के बारे में इतने विस्तार से नहीं बता सकते। इसके लिए आपको रेलवे कार्यालय से संपर्क करना पड़ेगा, लेकिन भारत के स्टेशनों पर ये बातें आपको साधारण यात्री भी बता देंगे। लोग कहेंगे- ओह श्रीमान आप तो अपर इंडिया से मत ही जाइये, इससे तो आप गंतव्य तक पहुंचते-पहुंचते बुढ़े हो जायेंगे। लोग आउटर सिगनल, लूप लाइन, अप ट्रेन, डाउन ट्रेन की भी सूचना दे देते हैं। वे मेल, एक्सप्रेस, सुपर फास्ट, पैसेंजर ट्रेनों के अंतर को समझते हैं। मानो उनके पास न्यूमैन की किताब हो। जब 1976 में मैं पहली बार भारत गया था तो न्यूमैन की किताब का 110वीं वर्षगांठ मनायी जा रही थी। इसमें आपको बताया जाता है कि अगर आपको पटना से पूणे जाना है तो आपके लिए कौन-कौन से मार्ग और कौन-कौन सी गाड़ियां हो सकते हैं। भारतीय लोग कहते हैं- रेल भारत को जोड़ती है, कि रेलवे ब्रिटिशों द्वारा भारत को दी गयी सर्वोतम उपहार है।
मार्क्सवादियों द्वारा शासित बंगाल में कम्युनिस्टों के बीच इस मुद्दे पर मतांतर है। कुछ लोग मार्क्स के कट्टर समर्थक हैं तो कुछ उनकी धारणा में संशोधन चाहते हैं। कट्टर मार्क्सवादियों का कहना है कि भारतीय रेल पर मार्क्स के विचार बिल्कुल ठीक थे कि ब्रिटिश ने भारत में रेलवे की स्थापना कर इस देश में क्रांति की नींव रख दी। क्योंकि रेलवे के कारण यहां औद्योगिक विकास ने गति पकड़ी जिसके कारण कामगार पैदा हुए और फिर क्रांति। लेकिन मार्क्स के विरोधियों का कहना है कि ब्रिटिश ने अपने स्वार्थ में रेलवे की स्थापना की और अगर इसमें भारतीयों को लाभ हो गया तो वह महज एक संयोग है।
मैं अब अपने कंपार्टमेंट की ओर देख रहा हूं। यह दो बर्थ का एक केबिन है। कभी यह नवविवाहितों के लिए होता था। यह राजधानी एक्सप्रेस है जिसे भारत की बेहतरीन ट्रेन कही जाती है। इसके सभी डिब्बे वातानुकूलित हैं और भारत के हिसाब से तेज भी । मैं प्रथम श्रेणी के डिब्बे में हूं जो ट्रेन का सर्वश्रेष्ठ क्लास है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसमें आधुनिक लग्जरी की कोई निशानी भी है। इसी बात से मुझे 1977 की फ्रंटियर एक्सप्रेस की याद आ रही है। वर्ष 1977 में मैंने इसमें यात्रा की थी। उस समय इस गाड़ी के वातानुकूलित डिब्बे के शीशे से प्लैटफार्म का दृश्य स्पष्ट दिखते थे। वह दृश्य देख मेरा मन द्रवित हो जाता था। लोग प्लैटफार्म पर गंदे चादर में लिपटकर सोते रहते थे, मानो वह जिंदा इंसान नहीं बल्कि चादरों में लपेटी हुई लाश हो। हालांकि इस ट्रेन के शीशे पर डार्क पालिश चढ़ी हुई है और अंदर की रोशनी व्यवस्था एवं साज-सज्जा बेहतर है, लेकिन अब भी प्लैटफार्म पर 1977 के दृश्य वैसे ही दिखते हैं। भारत में गरीबी और अमीरी की खाई लगातार चौड़ी हो रही है, ये प्लैटफार्म उसी का सबूत है। हालांकि समाजशास्त्री इसे भारतीय समाज के भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं मानते। बावजूद इसके अमीरी और गरीबी की खाई यहां बढ़ती ही जा रही है।
भारतीय रेलवे की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कभी भी यहां कि सरकार ने रेलवे के प्रति उदासीनता नहीं दिखायी। इसी का परिणाम है कि भारत में रेल सेवा लगातार विकसित की है। अब जबकि भारतीय अर्थव्यवस्था की सीरत बदल रही है और साथ ही जनसंख्या का विस्फोट भी जारी है तो रेलवे को सतत विकसित करते जाना अनिवार्य है। अन्यथा भारत की नागरिक परिवहन व्यवस्था चौपट हो जायेगी और एक मात्र इस वजह से भी देश के अंदर भारी बबंडर उठ सकता है।
रेलवे भारत का सबसे बड़ा नियोजन संस्था है। लगभग 14 लाख लोग रेलवे में कार्यरत है जोकि विश्व का रिकॉर्ड है। एक ही प्रबंधन के तले इतनी बड़ी संख्या में कर्मी अन्यत्र कहीं नहीं है। हाल के दिनों में भारतीय रेलवे ने उन्नयन के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं, विदेशी निवेश भी हुआ है, लेकिन अभी भी यहां की ट्रेनें कई चीजों से महरुम हैं।
(शेष अगली कड़ी में )

मंगलवार, 3 मार्च 2009

कहती हैं लड़कियां- मैं प्रेम नहीं करता

रक्तों से सने और आंसुओं से नहाये
इस अतिरोमाण्टिक दौर में
जब ईश्वर
सीजोफ्रेनिक भक्तों से डरकर मंदिर-मस्जिद छोड़ गये हैं
और बड़े-छोटे पर्दों ने मिलकर
प्रेम का आखिरी अर्थ खोज लिया है
कि प्यार-मोहव्वत और इश्क
अंततः नितंबो-वक्षों-कुल्हों-शिश्णों का मेल ही है
तब
जानना चाहती हैं लड़कियां
कि प्रेम के प्रति मुझमें कोई रूचि क्यों नहीं है
कि क्यों मैं उनके बीच रहते हुए भी कहीं और रहता हूं
मेरे बासी चेहरे पर भेदती निगाह डाल
पारित कर देती हैं प्रस्ताव- लड़कियां
कि मैं एक हृदयविहीन प्राणी हूं
कि मैं बहुत ठस्स और रूखड़ा हूं
कि मैं वह नहीं जो दिखता हूं
एक लड़के का प्रेमिकाविहीन होना
कितनी बड़ी बात है, शहर में
गलबहिया डाले बगैर पार्क में बैठने के
के कितने मायने हो सकते हैं
तब और भी ज्यादा
जब आप परीक्षा में प्रथम आ रहे हों
और सेमिनार व सभा में
भूख-बेरोजगारी, मौत-आतंक और
भ्रष्टाचार पर कुछ बोल गये हों
प्रेम में डूबने को आतुर लड़कियां
नहीं डूबना चाहती कोसी की बाढ़ में
सेहरावत और धूपिया से सम्मोहित लड़कियों को
स्माइल पिंकी की चर्चा से चिढ़
26/11 से झुंझलाहट
3/3 से अकुलाहट
और मंदी से बौखलाहट होती है
हालांकि
ये यूनीवर्सिटी के लाइब्रेरी में अक्सर
टॉपर लड़कों के साथ बैठती हैं
कॉमरेड - टाइप कुर्ता भी इन्हें पसंद है
बारूद-भूख, बाढ़-कराह के मुद्दे से भी इन्हें परहेज नहीं
लेकिन महज उतना
जितने से एक क्षणिक रोमांच हो जाये
कुछ-कुछ वैसा ही जैसा
नजर बचाकर किस करने के दौरान होता है
लड़कियां , जो अभी-अभी ग्रेजुएट की हैं
अभी-अभी ब्याय फ्रेंड के साथ सिनेमा हॉल से निकली हैं
अभी-अभी दोपहिये बाहन के पीछे बैठी हैं
मुझसे कहती हैं- मैं प्रेम नहीं करता