बुधवार, 18 मार्च 2009

कूको न कोयल

दहाये हुए देस का दर्द-39
अगर वह हादसा नहीं हुआ होता,तो नजारा पिछले बसंत के माफिक ही होता। बसंत का महीना। होली का जोगीरा और कोयल की कूक। ये तीनों मिले तो किनका मन नहीं हूलस जायेगा । अगर कुसहा प्रलय नहीं हुआ होता तो उषाकाल की सुबह में पीपल के पेड़ पर कौअॆ और कोयल के बीच चोंच-युद्ध का दृश्य आम होता। उनके मल्लयुद्धों से आजिज आकर दूसरी चिड़िया पेड़ छोड़ देती। और अल्हड़, मनफेंक नौजवानों का समवेत स्वर गुंजता- जोगीरा सरारारा ... और डोयढ़ी बुहाड़ती नवविवाहिता, नजरें नींचाकर चौअन्नी मुस्की में मन-ही-मन गातीं, ननदिया अपने भैया को भेजो संदेश कि कोयल कूके सगर देस...
भैंस चराकर लौटते चरवाहे, ढेले फेंकते और दुष्ट कौअॆ को भदेस गाली देते- ""तोरा बहि के... देखही रे झिरवा, इ सरवा कोयली कें। सरवा अपन अंडा कौआ के खोता में राखे ले (रखने के लिए) कौन-कौन आसन कर रहा है। पहले एक ठो कोयली (कोयल) आकर कौआ को भड़कायेगा और जब कौआ उसको दबाड़ने (खदेड़ने) लगेगा तो दूसरा कोयली मौका पाबि कर चुपके-से ओकर खोता (घोंसला)में अपना अंडा छोड़ देगा। जब कौआ घूइम-फिर के आवेगा, तो ऊ कोयली के अंडा को अपना समझकर खूब जतन से सेवेगा। मूरख कौआ-कौआइन को डेढ़ महीना तक पतो नाहीं चलेगा कि ऊ अपन नाहीं कोयली कें बच्चा को पाल रहा है। जब गेल्हा (कोयल का बच्चा) काउ-काउ के बदले कूउउ-कूउउ राग शुरू कर देवेगा तब ओकर (उसका) माथा ठनकेगा। इ तो हम दोसर के बच्चे को पाल रहे थे! फिर देखना, इ गेल्हा के हाल! सरवा के नसीबे में चोंच-मार लिखा है। एतना चोंचियायेगा कौआ-कौआइन कि बेचारा पर दया आ जावेगा। ''
" लेकिन दोष त कोयलिया कें है। ऊ कुकर्म करता है और भोगता है गेल्हा।''
" ... फेर आया रे। हूआं देखो। मार साल कोयली के ढेला।''
" ... ओ हो हो, हुइस(चूक) गिया, थोड़े से हुइस गिया। हमर निसान तें पक्का था। हो हो हो...''
इस बार मैं यह नजारे देखने के लिए तरस कर रह गया हूं। इसे देखने के लिए पिछले कुछ दिनों से सुबह पांच बजे उठ जाता हूं। खेत-मैदान में दूर-दूर तक निकल जाता हूं। न किसी कोयल की कूक सुनाई देती है और न ही कौअॆ का काउं-काउं। भैंसवार इक्के-दुक्के जरूर दिख जा रहे हैं, मगर कौअॆ-कोयल का चोंच-युद्ध कहीं देखने को नहीं मिलता। भैंसवारों से पूछता हूं- "" एहि बेर कोयली नहीं आया, कि हो झिरो ? हम तो एको बेर कूक नहीं सुने हैं ? ''
झिरवा शरमा जाता है। फिर कहता है- "हं भैया, हमहूं सब एहि बेर कोयली कें कुनू (कोई) सून-घान (आभास) नहीं पाये हैं। लगता है कोयली सब भी कोशिकी के प्रलय से डर गिया है।''
घर लौटकर विचार करता हूं। प्राणि विज्ञान की पुरानी किताबों को उलटता हूं। उनमें कोयल के स्वभावों को ध्यान से पढ़ता हूं। स्पष्ट तौर पर यहां कुछ नहीं बताया गया है, लेकिन चिड़ियों के स्वभावों के बारे में कहा गया है कि मौसमी चिड़िया पारिस्थितिकी के प्रति अत्यंत संवेदनशील होती हैं। उन्हें बिगड़ी हुई पारिस्थितिकी को परखने की तीक्ष्ण शक्ति होती है।
तो क्या कोयल को पता है कि इधर के हालात ठीक नहीं हैं ? शायद हां। कोशी क्षेत्र में हालात बहुत खराब हैं। बाढ़ ने पेड़ों को सूखा दिया है। रेत ने हरियाली को। क्या खाये कोयल और किस पेड़ पर वह बिठाये बसेरा। आम की मंजरी हुई कुछ डालियां उनका इंतजार कर रही हैं, लेकिन कोयल लापता है। उसकी कूक सुनाई नहीं देती, बाढ़ग्रस्त इलाकों में।
सूर्योदय की पहली किरण जब रेत से नहाये खेतों पर पड़ती है, तो दृश्य बहुत मनोरम लगता है। लेकिन यह मनोहरी भाव ज्यादा देर तक नहीं टिकता। सुबह के नौ बजते-बजते तेज सूखी पछवा हवा चलने लगती है। हवा में धूल का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। ऐसा लगता है जैसे मानो किसी रेगिस्तान में पहुंच गये हो। शाम तक यही स्थिति रहती है। वैसे आजकल कोशी इलाके में शाम से पहले ही अंधियारा छा जाता है। रात से पहले ही रात आ जाती है ! मन तरस कर रह जाता है, लेकिन कोयल नहीं कूकती।

1 टिप्पणी:

इष्ट देव सांकृत्यायन ने कहा…

कोयल और कौवा ही नहीं, मुझे तो लगता है कि अब वह दिन भी दूर नहीं है जब मनुष्य भी किताबों की ही थाती बन कर रह जाएगा.