बचपन में जब गांव का देसी नाच (नाटक) देखकर घर लौटता, तो कई दिनों तक एक ही सवाल मन-मस्तिष्क में कौंधता रहता था। डांट के डर से घर और स्कूल में किसी से पूछ नहीं पाता था कि कल रात नाच के स्टेज पर जिसने नकाब पहन सबको खूब डराया था, वह आखिर था कौन ? उसका क्या नाम है ? वह कहां रहता है ? गांव-बस्तियों में तो वह कभी कहीं दिखाई नहीं देता? अक्सर नौकरों से पूछता ? दलित बस्तियों के हमउम्र बच्चों से पूछता- अच्छा, बताओं तो आल्हा-उदल के नाच में उस दिन लठैत कौन बना था? तब वे नौकर, वे हमउम्र गरीब बच्चे मेरी मुर्खता पर खिलखिलाकर हंस पड़ते और कहते- धत तेरी के ! अरे ऊ तो कैला मुसहर का बेटा छुतहरूवा था। वही जो ठाकुर साहेब की हलवाही करता है। जवाब सुनने के बाद अचानक सवाल से दिलचस्पी खत्म हो जाती थी। छुतहरूवा का चेहरा याद करके ही खौफनाक जिज्ञाशों पर मानो ठंडा पानी पड़ जाता था। मन ही मन तब खुद से कहता- अरे छुतहरू मुसहर ? वह क्या डरायेगा किसी को ? उसे तो ठाकुर साहेब की पांच वर्ष की पोती भी मां-बहन की गाली देती रहती है और वह सिर झुकाकर सबकुछ सुनते रहता है।
वह नाच का नकाब था, जो रात के बाद हमेशा के लिए उतर जाता फिर अगले नाच तक उसे कोई नहीं पहनता था। लेकिन आज उस नकाब को देखता हूं जिसे हर किसी ने अपने चेहरे पर लगा लिया है। अक्सर इस नकाब के पीछे का चेहरा नहीं दिखता। जिस शख्स से हम अभी-अभी मिले, वह वास्तव में कौन है और उसका असली सूरत कैसी है, हम नहीं पहचान पाते। इन नकाबों के पीछे छिपे हुए इंसान का पता कोई नहीं जानता।
बहुत सारे पेशे के बहुत सारे लोगों से मिला हूं। कुछ स्वनामधन्य, कुछ स्वकामधन्यों से भी। कुछ कला प्रेमी, कुछ सेवा प्रेमी, कुछ साहित्य प्रेमी, तो समाज प्रेमी। किसी ने समाज सेवा को अपना धर्म बताया तो किसी ने कला की उपासना को अपने जीवन का ध्येय गिनाया। किसी ने नैतिकता का पाठ पढ़ाया तो किसी ने क्रांति को अनिवार्य बताया। जबकि वे सभी झूठे थे। संयोग से मैंने पत्रकारिता को अपना पेशा बनाया और जिसके कारण यह सूची लंबी होती गयी और नित नयी हो रही है। दुनिया को लोगों का अता-पता बताता हूं, लेकिन सच्चाई यह है कि मैं खुद वैसे लोगों की सच्चाई नहीं जानता, जिनके बारे में मैं अधिकारपूर्वक लिखता हूं। कितनी झूठी हो गयी है यह दुनिया? कितने झूठे हो गये हैं हम? जिनसे एक व्यक्ति भी प्रेम नहीं करता, हम उन्हें समाजसेवी कहकर संबोधित करते हैं। जो अपने सिवा किसी के बारे में नहीं सोचता, हम उसे एक्टिविस्ट कहते हैं।
कुछ लोगों को जानता हूं, जो सचमुच बहुत खूबसूरत हैं क्योंकि वे नकाब नहीं लगाते। लेकिन ऐसे लोगों को अक्सर हाशिए पर पाता हूं। एक मित्र हैं, जो इंजीनीयर, मैनेजर, आइएएस, डॉक्टर कुछ भी बन सकते थे। उसने मैट्रिक की परीक्षा में राज्य में प्रथम सौ में स्थान लाया था। लेकिन उसे शिक्षक बनने का जुनून था। बन भी गया। लेकिन केंद्रीय विद्यालय की राजनीति उसे शिक्षण-कार्य नहीं करने देती। हमेशा ही उसका तबादला होते रहता है, क्योंकि प्राचार्य और ऊपरी अधिकारियों के भ्रष्ट-व्यवसाय का वह हिस्सा बनना नहीं चाहता। एक सप्ताह पहले उसे अंडमान भेज दिया गया। एक पत्रकार को जानता हूं , जो सच लिखता है। बेहद काला है, लेकिन मुझे सुंदर दिखता है। उसने बीच कॉरियर में पत्रकारिता को अलविदा कह दिया है। ऐसे नकाबपोश समाज से जब मेरा मन ऊब जाता है, तो लौटकर गांव चला जाता हूं। छुतहरूवा मुसहर के नकली नकाब को देखने। दलित बस्तियों के उन हमउम्रों से मिलने, जो मुझे बहुत विद्वान समझते हैं। लगता है मेरे चेहरे पर भी नकाब आ गया है। अगर यह सच नहीं होता, तो वे आज भी मुझे उल्लू समझते और हंसते और कहते, अरे ऊ तो छुतहरूवा था, हेंहेंहें...
वह नाच का नकाब था, जो रात के बाद हमेशा के लिए उतर जाता फिर अगले नाच तक उसे कोई नहीं पहनता था। लेकिन आज उस नकाब को देखता हूं जिसे हर किसी ने अपने चेहरे पर लगा लिया है। अक्सर इस नकाब के पीछे का चेहरा नहीं दिखता। जिस शख्स से हम अभी-अभी मिले, वह वास्तव में कौन है और उसका असली सूरत कैसी है, हम नहीं पहचान पाते। इन नकाबों के पीछे छिपे हुए इंसान का पता कोई नहीं जानता।
बहुत सारे पेशे के बहुत सारे लोगों से मिला हूं। कुछ स्वनामधन्य, कुछ स्वकामधन्यों से भी। कुछ कला प्रेमी, कुछ सेवा प्रेमी, कुछ साहित्य प्रेमी, तो समाज प्रेमी। किसी ने समाज सेवा को अपना धर्म बताया तो किसी ने कला की उपासना को अपने जीवन का ध्येय गिनाया। किसी ने नैतिकता का पाठ पढ़ाया तो किसी ने क्रांति को अनिवार्य बताया। जबकि वे सभी झूठे थे। संयोग से मैंने पत्रकारिता को अपना पेशा बनाया और जिसके कारण यह सूची लंबी होती गयी और नित नयी हो रही है। दुनिया को लोगों का अता-पता बताता हूं, लेकिन सच्चाई यह है कि मैं खुद वैसे लोगों की सच्चाई नहीं जानता, जिनके बारे में मैं अधिकारपूर्वक लिखता हूं। कितनी झूठी हो गयी है यह दुनिया? कितने झूठे हो गये हैं हम? जिनसे एक व्यक्ति भी प्रेम नहीं करता, हम उन्हें समाजसेवी कहकर संबोधित करते हैं। जो अपने सिवा किसी के बारे में नहीं सोचता, हम उसे एक्टिविस्ट कहते हैं।
कुछ लोगों को जानता हूं, जो सचमुच बहुत खूबसूरत हैं क्योंकि वे नकाब नहीं लगाते। लेकिन ऐसे लोगों को अक्सर हाशिए पर पाता हूं। एक मित्र हैं, जो इंजीनीयर, मैनेजर, आइएएस, डॉक्टर कुछ भी बन सकते थे। उसने मैट्रिक की परीक्षा में राज्य में प्रथम सौ में स्थान लाया था। लेकिन उसे शिक्षक बनने का जुनून था। बन भी गया। लेकिन केंद्रीय विद्यालय की राजनीति उसे शिक्षण-कार्य नहीं करने देती। हमेशा ही उसका तबादला होते रहता है, क्योंकि प्राचार्य और ऊपरी अधिकारियों के भ्रष्ट-व्यवसाय का वह हिस्सा बनना नहीं चाहता। एक सप्ताह पहले उसे अंडमान भेज दिया गया। एक पत्रकार को जानता हूं , जो सच लिखता है। बेहद काला है, लेकिन मुझे सुंदर दिखता है। उसने बीच कॉरियर में पत्रकारिता को अलविदा कह दिया है। ऐसे नकाबपोश समाज से जब मेरा मन ऊब जाता है, तो लौटकर गांव चला जाता हूं। छुतहरूवा मुसहर के नकली नकाब को देखने। दलित बस्तियों के उन हमउम्रों से मिलने, जो मुझे बहुत विद्वान समझते हैं। लगता है मेरे चेहरे पर भी नकाब आ गया है। अगर यह सच नहीं होता, तो वे आज भी मुझे उल्लू समझते और हंसते और कहते, अरे ऊ तो छुतहरूवा था, हेंहेंहें...
2 टिप्पणियां:
aashiq ishak की naamaj padte है .....
jisme कोई arf नहीं hoata
n jubaan hilti है
n honth fadfdate है
paak namaji wahi haota है
परीक्षा सदैव ही सत्य की ही होंती है। उसे ही कसौटी पर कसा जाता है। झूठ चूंकि सब पहचानते हैं इसलिए न तो उसकी परीक्षा होती है न ही उसे कसौटी पर कसा जाता है।
जीत भी सच की ही होती है किन्तु अन्त में।
सब कुछ पीडादायक है किन्तु सच यही है।
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