मुझे नहीं मालूम कि आगामी आम चुनाव को लेकर आम शहरी मतदाता क्या सोच रहे हैं। हालांकि रोज टेलीविजन पर चुनावी-बहस सुनता हूं और अखबारों-पत्रिकाओं में छपे लंबे-लंबे लेख पढ़ता हूं। ये लेख, ये टेलीविजन के कार्यक्रम नेताओं के बारे में तो बहुत कुछ बताते हैं, लेकिन आम जन के बारे में कुछ नहीं कह पाते। शहरी समाज में शायद यह संभव भी नहीं है । यहां ऐसा कोई माध्यम नहीं है जिससे आप आम जन के नब्जों को पढ़ सकें। हालांकि शहर में हर दिन सेमिनार और गोष्ठियां होते रहते हैं। अब कहने की जरूरत नहीं कि सेमिनार में भाग लेने वाले कभी "आम' नहीं हो सकते, सेक्यूलर होने का तो सवाल ही नहीं उठता है। यहां सेक्यूलर से मेरा मतलब वास्तविक सेक्यूलरिज्म से है। और वास्तविक सेक्यूलरिज्म का जो मतलब मैं जानता हूं उसके अनुसार, जहां दो मानव के बीच में किसी आधार पर कोई भेद-भाव न हो। क्या सेमिनारों में, गोष्ठियों में ऐसा होता है ? वहां भाग लेने के लिए एक शर्त होती है, कभी घोषित कभी अघोषित। आप आयोजकों द्वारा निर्धारित खास योग्यता, खास वाद, खास गठबंधन, खास गुट और खास मकसद में फिट बैठें तो उनके आयोजन का हिस्सा है अन्यथा नहीं। तो फिर इन्हें सेक्यूलर कैसे माने ?
हां, गांव में ऐसा माध्यम आज भी उपलब्ध है। गांव के हाट में, गांव के चौराहे पर, पोखर के महार पर, गांव के रेलवे-हॉल्ट और खास-खास दलान पर आम लोग बैठते हैं, जहां सेक्यूलर बहस चलती रहती है। पिछले दिनों मुझे एक ऐसी ही लंबी बहस सुनने का अवसर मिला। मैं बिहार के सुपौल जिले के एक गांव के रेलवे स्टेशन पर गाड़ी की प्रतीक्षा में बैठा था। मेरे अलावा वहां करीब पचास-साठ लोग और बैठे हुए थे। गाड़ी दो घंटे विलंब से चल रही थी। खुले आसमान वाले उस कच्चे प्लैटफार्म की हरी दूब पर लोगों के बीच बहस चल रही थी। बहस का मुद्दा था, आगामी संसदीय चुनाव। बहस में शामिल अधिकतर लोग इस बात पर एकमत थे कि कोई भी जीते, उनका भला नहीं होने वाला। लेकिन वोट तो देना ही है, चलो किसी को दे देंगे। हालांकि बहस में कई मुद्दों पर वे एक-दूसरे से असहमत भी थे। इस दो घंटे की बहस को सुनने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि ग्रामीणों का सभी पार्टियों, सभी नेताओं से मोह-भंग हो चुका है। और वे यह मानकर चल रहे हैं कि यह व्यवस्था उनके लिए कुछ नहीं कर सकती। गौरतलब है कि सुपौल लोकसभा क्षेत्र (परिसीमन से पहले सहरसा) के मतदाताओं ने लगभग सभी दलों के प्रत्याशियों को संसद भेजा है।
गांव के हाट में एक किसान दूसरे किसान से बात कर रहा था। पहले ने सवाल किया, सुने हैं कि वोटा-वोटी होने वाला है ?
दूसरे का जवाब था- अभी बहुत टेम है। जब तीन-चार दिन बचेगा, तब पूछियेगा इ सवाल।
सो काहे ?
तबे न नेतवन सब कें गाड़ी गांव में दौड़ेगी। झूठ-सांच बोलेगा। हाट-बजार में भाषण देगा। कहीं-कहीं हेलिकाप्टर उतार देगा। और कहेगा, वोट हमको ही दीजियेगा। जीतेंगे तो फलां काम कर देंगे। हियां रेल चला देंगे, हुआं बस चला देंगे, इंदिरा आवास देंगे तो जवाहर योजना देंगे । लेकिन हमको पता है, सब ठगबाज है। जीतकर अपना घर भरेंगे और कुछो नहीं करेंगे। उधर देखिये। लूच्चा सबको। झकास कुर्ता-पायजामा पहन कें अभिये से मूंछ टेर रहा है। यही सब नेताओं के कार्यकर्ता बनेगा। दस-दस, पांच-पांच हजार टका टानेगा कंडीडेड सब सें। एके महीना में गांजा-दारू में उड़ा देगा सब टका आउर फेर चोरी-छिनतई करने लगेगा।
हं- हं, ठीके कहते हैं, ऊ सरवा जलेश्वरा के बेटा को देखिये न ? ड्रेस से तो लगता है कि जैसे सुभाष बोस हो। लेकिन हम से पूछिये ओकर सच। सरवा पॉकेटमारी में पकड़ा गिया था, कटिहार टीशन पर। छह मास जेल काटकर आया है। कहता है लालटेन पार्टी का प्रचार कर रहे हैं।
हेंहेंहें....
सही बात। अच्छे, हाट-बजार हो गिया?
क्या होगा हाट बजार ? जेब में तो भूजी भांग नहीं है, चौराहा पर पान कहां से खायेंगे। बस नोन-तेल लिए हैं।
राम-राम !
राम-राम !
हां, गांव में ऐसा माध्यम आज भी उपलब्ध है। गांव के हाट में, गांव के चौराहे पर, पोखर के महार पर, गांव के रेलवे-हॉल्ट और खास-खास दलान पर आम लोग बैठते हैं, जहां सेक्यूलर बहस चलती रहती है। पिछले दिनों मुझे एक ऐसी ही लंबी बहस सुनने का अवसर मिला। मैं बिहार के सुपौल जिले के एक गांव के रेलवे स्टेशन पर गाड़ी की प्रतीक्षा में बैठा था। मेरे अलावा वहां करीब पचास-साठ लोग और बैठे हुए थे। गाड़ी दो घंटे विलंब से चल रही थी। खुले आसमान वाले उस कच्चे प्लैटफार्म की हरी दूब पर लोगों के बीच बहस चल रही थी। बहस का मुद्दा था, आगामी संसदीय चुनाव। बहस में शामिल अधिकतर लोग इस बात पर एकमत थे कि कोई भी जीते, उनका भला नहीं होने वाला। लेकिन वोट तो देना ही है, चलो किसी को दे देंगे। हालांकि बहस में कई मुद्दों पर वे एक-दूसरे से असहमत भी थे। इस दो घंटे की बहस को सुनने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि ग्रामीणों का सभी पार्टियों, सभी नेताओं से मोह-भंग हो चुका है। और वे यह मानकर चल रहे हैं कि यह व्यवस्था उनके लिए कुछ नहीं कर सकती। गौरतलब है कि सुपौल लोकसभा क्षेत्र (परिसीमन से पहले सहरसा) के मतदाताओं ने लगभग सभी दलों के प्रत्याशियों को संसद भेजा है।
गांव के हाट में एक किसान दूसरे किसान से बात कर रहा था। पहले ने सवाल किया, सुने हैं कि वोटा-वोटी होने वाला है ?
दूसरे का जवाब था- अभी बहुत टेम है। जब तीन-चार दिन बचेगा, तब पूछियेगा इ सवाल।
सो काहे ?
तबे न नेतवन सब कें गाड़ी गांव में दौड़ेगी। झूठ-सांच बोलेगा। हाट-बजार में भाषण देगा। कहीं-कहीं हेलिकाप्टर उतार देगा। और कहेगा, वोट हमको ही दीजियेगा। जीतेंगे तो फलां काम कर देंगे। हियां रेल चला देंगे, हुआं बस चला देंगे, इंदिरा आवास देंगे तो जवाहर योजना देंगे । लेकिन हमको पता है, सब ठगबाज है। जीतकर अपना घर भरेंगे और कुछो नहीं करेंगे। उधर देखिये। लूच्चा सबको। झकास कुर्ता-पायजामा पहन कें अभिये से मूंछ टेर रहा है। यही सब नेताओं के कार्यकर्ता बनेगा। दस-दस, पांच-पांच हजार टका टानेगा कंडीडेड सब सें। एके महीना में गांजा-दारू में उड़ा देगा सब टका आउर फेर चोरी-छिनतई करने लगेगा।
हं- हं, ठीके कहते हैं, ऊ सरवा जलेश्वरा के बेटा को देखिये न ? ड्रेस से तो लगता है कि जैसे सुभाष बोस हो। लेकिन हम से पूछिये ओकर सच। सरवा पॉकेटमारी में पकड़ा गिया था, कटिहार टीशन पर। छह मास जेल काटकर आया है। कहता है लालटेन पार्टी का प्रचार कर रहे हैं।
हेंहेंहें....
सही बात। अच्छे, हाट-बजार हो गिया?
क्या होगा हाट बजार ? जेब में तो भूजी भांग नहीं है, चौराहा पर पान कहां से खायेंगे। बस नोन-तेल लिए हैं।
राम-राम !
राम-राम !
1 टिप्पणी:
सही लिखा है आपने,........
देश की चिंता किसी को नहीं, नेता हों या koi our
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