शनिवार, 29 अगस्त 2009

मरनो भला विदेश में

दहाये हुए देस का दर्द-54
इन दिनों बिहार के कोशी प्रमंडल में कबीर की वाणी- "मरनो भला विदेश में जहां न अपना कोय'' साकार हो रही है। कोशी प्रमंडल के गांवों में पलायन की आंधी आयी हुई है। जिसे देखो वही कंधे पर गठरी बांधकर रेलवे स्टेशन की ओर भागे जा रहा है। कोई गुजरात जा रहा है, तो कोई पंजाब। कोई लुधियाना तो कोई सूरत। कोई अजमेर तो कोई कश्मीर भी। और न जाने कहां-कहां... गांव- के- गांव खाली हो गये हैं। सिर्फ बच्चे, बुढ़े और औरतें ही बच गये हैं। सुपौल के राघोपुर स्टेशन पर एक मजदूर से पूछता हूं, "क्यों भाई, अभी तो धान रोपाई का सीजन है, क्यों भागे जा रहे हो ?'' जवाब मिलता है, " नै रोपाया धान, अब तो पूर्वा नक्षत्र जाने वाला है। अब का होगी रोपाई-धोपाई ? कब तक सरं (आकाश) की ओर ताकते रहते? तो सोचे कि परदेश ही चला जाऊं, वैसे भी गांव में अब लालटेन लेकर भी खोजियेगा तो एको जन (आदमी) नहीं मिलेगा।'
जी हां, गांव खाली हो गये हैं। आदमी को जीने के लिए अन्न चाहिए। अन्न की खोज में इंसान गांव क्या दुनिया तक को छोड़ देता है। झारखंड के गांवों में अक्सर देखते रहा हूं। पलामू में तो हजारों किसानों ने सरकार से दुनिया छोड़ने की लिखित अनुमति मांगी है। उनका कहना कि वे मरने से पहले कलंकित होना नहीं चाहते। भुखमरी के बाद हमारी बहुत फजीहत होती है। सरकार और राजनीतिक पार्टियां हमारी लाशों पर भी राजनीति करने से बाज नहीं आती। कोई हमारी मौत को भुखमरी साबित करने के लिए पिल पड़ता है तो कोई इसे बीमारी से हुई मौत साबित करने के लिए एड़ी-चोटी एक कर देता है। इससे तो बहुत बेहतर है- इच्छा मौत। हम भूख के हाथों मरना नहीं चाहते, हमें इच्छा मौत का अधिकार दे दो।
यह हमारी व्यवस्था का एक पहलू है। इसमें भूख है, गरीबी है, पलायन है, बाढ़ और सुखाड़ है और असंतोष भी है । दूसरी ओर व्यवस्था का दूसरा पहलू भी है। इसमें सरकार है, मंत्री-विधायक-एमपी हैं, अधिकारी और सत्ताई दलाल हैं और सब-के-सब चकाचक हैं। व्यवस्था के इस पहलू में करोड़ों रुपये का बजट वाला स्वनामधन्य नरेगा भाी है। बकौल प्रधानमंत्री, "नरेगा ने मजदूर-पलायन को रोकने में बहुत मदद की है।' सच में, इस नरेगा में बहुत पैसा खर्च हो रहा है। तभी तो हर बीडीओ के चार-पांच शहरों में फ्लैट हो गये हैं। गांव में मुखिया लोगों की जमीन का रकवा बढ़ रहा है। अब वे भी चरपहिया से कम पर पैर नहीं धरते। जन सेवक बाबू लोगों के बच्चे हैवी डोनेशन पर डॉक्टरी की पढ़ाई करने बड़े शहर जा रहे हैं। और जिला परिषद एवं ब्लॉक समिति वाले विधायक बनने के लिए कसमसा रहे हैं। नरेगा का कमाल जो है भैया।
कोशी प्रमंडल के सुपौल जिले के ही नरेगा-बजट को देखें। 50 करोड़ रुपये सालाना । अभी तक 19 करोड़ वे खर्च भी कर चुके हैं। आप पूछेंगे कैसे - वे जवाब देंगे, रिकॉर्ड बुक देख लीजिए। अब तक कई लाख मजदूरों को काम दिया जा चुका है। तीन लाख मजदूरों को जॉब कार्ड वितरीत किया जा चुका है। आप पूछेंगे- हुजूर वहां गांव में तो कोई है ही नहीं, फिर आपने आप रजिस्टर में हजारों मजदूरों की अंगुलियों के निशान कहां से ले आये? आप तो जादूगर ठहरे हुजूर! जो पिछले दो साल से गांव में नहीं है, आपने उसकी उंगली के निशान भी ले लिये! जादूगरी के इस हुनर पर दिलो-जां लुटाने का मन करता है! वो जवाब देंगे- गांव जाकर देखिये, हर दिन हजारों मजदूरों को रोजगार दिया जा रहा है। आप कहेंगे- हुजूर वहां कोई नहीं है! बुढ़े-बच्चे से काम लेते हैं क्या ?
इसके बाद वे आपको, ड्रिंक ऑफर करेंगे, तले हुए चखना के साथ। चौअन्नी बिखेरते हुए अठन्नी दिखायेंगे ! अगर मान गये तो बल्ले-बल्ले, नहीं तो ? वे आपको पागल-ढागल करार देकर हाजत में बन करवा देंगे। आप हाजत में रोयेंगे और वे आपका मजाक उड़ायेंगे। सा.. बहुत आया था मजदूरों का फरिश्ता बनने।

गुरुवार, 27 अगस्त 2009

अपनी-अपनी क्रांति

अभी-अभी स्कूल को टाटा,बाय-बाय कर कॉलेजे में दाखिल हुए टीन एजर्स की महफिल थी वह। इसलिए वहां सब कुछ जवा-जवां था। वे अपने-अपने टेंशन को जिंस की उस खूंटी पर टांग आये थे जिसे पहनने के बाद वे खुद को 'बाजीगर' के शाहरुख खान समझने लगते थे। जवाने की सारी माथापच्चियों को उन्होंने पीएचडी के पचड़े में फंसे बुढ़ाते हुये छात्रों के नाम छोड़ा रखा था। बेईमानी, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, कट्टरवाद जैसे रोगों से उन्हें चिढ़ थी। वे शब्दों के माने अपने हिसाब से लगाते थे और वफा कहने पर किसी लड़की का नाम लेकर रोमांटिक गाना गुनगुनाने लगते थे। बेवफाई जैसे शब्दों के उल्लेख के साथ ही वे भड़क उठते थे और किसी लड़की का नाम लेकर देसी-विदेशी गाली बकने लगते थे। वे विश्वविद्यालय में नये थे। इसलिए पीएचडी के पचड़े में पड़े बुढ़ाते छात्रों के लिए माफी के काबिल थे। पीएचडी के पचड़े में पड़े बुढ़ाते छात्र उन्हें अपनी बारिस घोषित कर चुके थे और अक्सर अपने निर्जान बैठकों में कहते थे- सालों, तुम्हें नहीं मालूम कि कभी हमारे पसीने भी गुलाल हुआ करते थे। जब तक हम जवान रहे, जांघों के ही गुलाम रहे। हमारे समय में भी यौन क्रांति हुई थी जिसने सारी क्रांतियों को निगल ली। लेकिन टीन एजर्स उनसे सहमत नहीं थे, कहते थे-''अपना फ्रस्टेशन हम पर मत निकालिये, हमे तो बस विस कीजिए।''
और इस तरह एक दिन अचानक 20 हजार युवक-युवतियों से हमेशा भरा रहने वाला वह विश्वविद्यालय मर गया। बंजर और बेजान हो गया। दर्जनों क्रांतियों का गवाह रहने वाला उसका मनोरम परिसर, मासुक-मासुकाओं के पार्क में तब्दील हो गया। जबकि परिसर से बाहर देश घायल होकर कराह रहा था ...

शनिवार, 22 अगस्त 2009

प्रचंड का फ्रस्ट्रेशन

सत्ता गंवाने के बाद निराश होना स्वाभाविक है। बड़े-बड़े नेता भी सत्ता गंवाने के सदमा को आसानी से नहीं पचा पाते हैं। सत्ता की राजनीति करने वाले नेताओं को तो कुर्सी के बगैर सियासत बेस्वाद लगती है। लेकिन जो नेता सामाजिक क्रांति के लिए राजनीति करते हैं या फिर इसका दावा करते हैं, वे भी अगर सत्तालोलुपों की तरह कुर्सी के लिए अनाप-शनाप बकने लगे तो इसे क्या कहा जाये? उनका फ्रस्ट्रेशन या बौखलाहट?
नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री और नेपाली माओवादी पार्टी के अध्यक्ष पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड इन दिनों ऐसा ही कुछ कर रहे हैं। शायद वह इन दिनों भारी अवसाद में हैं या फिर वह बुरी तरह बौखला गये हैं। इसलिए वे अब अनाप-शनाप बकने लगे हैं। हाल के दिनों में उन्होंने भारत को लेकर जो विषवमन किया है, उनसे से तो यही संकेत मिलता है। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब प्रचंड ने अपने इंग्लैंड दौरे पर जाने से महज कुछ समय पहले बयान दिया कि भारत नेपाल के जरिये चीन पर आक्रमण करना चाहता है। इंग्लैंड में उन्होंने कहा कि हिमालय की तराई की (भारत समेत) जनता लाल क्रांति के लिए बेचैन है। इंग्लैंड से लौटने के तुरंत बाद उन्होंने सीमाई शहर बीरगंज में बयान दिया कि नेपाल के प्रधानमंत्री माधव कुमार नेपाल की भारत यात्रा नेपाली इतिहास की सबसे बड़ी अपमानजनक घटना है। जब पत्रकारों ने उनसे इसका कारण पूछा तो उन्होंने जो जवाब दिया उसे सुनकर शायद स्कूली बच्चे को भी शर्म आ जाये। प्रचंड ने कहा कि माधव कुमार नेपाल को नई दिल्ली में कोई तरजीह नहीं दी जा रही है। भारतीय मीडिया भी उन्हें कोई भाव नहीं दे रहा। मीडिया में न तो माधव नेपाल की तस्वीर छप रही न ही खबर। लेकिन जब वे खुद नेपाली प्रधानमंत्री के रूप भारत पहुंचे थे तो भारतीय मीडिया उनके पीछे-पीछे दूम हिलाते फिर रहे थे।
अब प्रचंड से कौन पूछे कि माधव नेपाल बाकायदा पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के साथ और नेपाल के राष्ट्राध्यक्ष के रूप में भारत पहुंचे हैं।इसलिए उनके स्वागत के बास्ते भारत को अलग से कोई व्यवस्था नहीं करनी है, बल्कि भारत में इसके लिए आधिकारिक तौर पर स्थापित और सतत्‌ चलायमान प्रावधान है,जिसे प्रोटोकॉल कहते हैं। जहां तक मीडिया के पीछे भागने का सवाल है, तो प्रचंड को मालूम होना चाहिए कि मीडिया व्यक्ति के पीछे नहीं भागता, बल्कि व्यक्ति के न्यूजवर्दीनेस के हिसाब से उसे कवरेज देता है। कई बार ऐसा मौका आता है जब मीडिया न्यूजवर्दीनेस के कारण कई बड़ी हस्तियों की मौजूदगी के बावजूद अदना आदमी के आसपास मधुमक्खी की तरह जमा हो जाते हैं। प्रचंड को पिछली बार इस वजह से ही भारतीय मीडिया ने ज्यादा तरजीह दीथी। पता नहीं वे इस बात को क्यों नहीं समझ पाये। क्या प्रचंड इतने नादान हैं कि वह इस तथ्य को नहीं समझ नहीं पाये और व्यापक मीडिया कवरेज के कारण खुद को नेपाल नहीं, अमेरिका-रूस के राष्ट्राध्यक्ष समझने लगे ?
दरअसल प्रचंड अपने ही बुने जाल में बुरी तरह फंसते जा रहे हैं। दो नावों की सवारी अब उन्हें महंगी पड़ रही है। एक ओर तो वह प्रजातांत्रिक प्रक्रिया में भागेदारी भी करना चाहते हैं दूसरी ओर अपने सशस्त्र माओवादी कैडरों के वजूद को भी बरकरार रखना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने पिछले दिनों मुख्य सेनापति को हटाकर कठपुतली सेनापति बनाने की कोशिश की, जिसमें उन्हें मुंह की खानी पड़ी। वे चाहकर भी वैकल्पिक सरकार के गठन को रोक नहीं सके। जबकि जिन आकाओं ने उन्हें आगे बढ़ाया है उनके दबाव उन पर बढ़ते जा रहे हैं।
दरअसल, अब यह बात लगभग साबित हो चली है कि प्रजातांत्रिक व्यवस्था में शामिल होना नेपाली माओवादियों की एक चाल थी और उनका अंतिम लक्ष्य कुछ और था। वे बैलेट के जरिये मुख्य धारा में शामिल होकर नेपाल की सारी शक्तियों को अपने हाथ में लेना चाहते थे, जिनमें वे बुरी तरह असफल हो गये। जाहिर है यह काम सेना को अपने नियंत्रण में लेकर ही संभव था, जिसे नेपाली कांग्रेस, एमाले और एमपीआरएफ ने विफल कर दिया। प्रचंड को शंका है कि ऐसा भारत के इशारे पर हुआ । वह यह मानकर चलते हैं कि भारत के हस्तक्षेप के कारण उनका सर्वसत्तावादी एजेंडा अपने मुकाम तक नहीं पहुंच पा रहा है। इसलिए वे रह-रहकर भारत के खिलाफ अनाप-शनाप बकने लगते हैं। लेकिन इस क्रम में वह भारत-नेपाल के सदियों पुराने साझे सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक और भौगोलिक संबंध को भूल जाते हैं। जिसका सीधा अर्थ होता है नेपाल के लगभग 50 प्रतिशत लोगों की इच्छाओं को नजरअंदाज करना। कहने की जरूरत नहीं कि ये लोग भारत के साथ खून का रिश्ता रखते हैं। यह भी एक स्थापित तथ्य है कि नेपाली अर्थव्यवस्था सीधे तौर पर भारत पर आश्रित है। इनके अलावा नेपाल और भारत की जो भौगोलिक बनावट है उसमें भारत नेपाल को छोड़कर नहीं चल सकता। प्रकृति ने दोनों देश को एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जोड़ रखा है। अगर दोनों अलग-अलग चलना भी चाहे, तो नहीं चल सकते। हिमालय भारत के पर्यावरण और पारिस्थितिकी , मानसून और जल-चक्र को सीधे तौर पर नियंत्रित करता है। हिमालय से निकलने वाली नदियां भारत में तबाही लाती हैं। इसका समाधान और इलाज नेपाल में है। दुनिया की कोई संस्था या न्यायालय यह नहीं कह सकता कि भारत और नेपाल एक-दूसरे के बगैर जीना सीख ले।
परन्तु नेपाली माओवादी पार्टी और प्रचंड को यह बात नागवार गुजरती है। वे रिश्ते के इन बुनाबटों व तासीरों और अंतर्निभरता में जाना नहीं चाहते, जिसे इंसान ने नहीं, बल्कि प्रकृति ने रचा है। वे तो परदेश से निर्देशित अपने स्व-अर्थी एजेंडा को बढ़ाने पर आमादा हैं। भले ही इसके कारण दोनों देशों की करोड़ों जनता के दिल छलनी हो जाये या फिर नेपाल कंगाल और बिहार बाढ़ में डूब जाये।
 

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

बाग में टहला किये बाजार की तरह

रोज सबेरे टहला किये बागों में हम, लेकिन हमें याद नहीं कि बागों में मुरझाये फूलों ने क्या पूछा था हमसे। टूटी डाली और झुके हुये तनों से लिपटी पत्तियों ने आवाज दी थी मुझे, लेकिन हम टहलते रहे जैसे हम बाग में नहीं, बाजार में हो। ताजा हवा की तलाश में न जाने कहां-कहां भटका किये हम। ऊंचे पहाड़ों और हिल स्टेशनों से हो आये हम। लेकिन नहीं समझ सके पहाड़ की तन्हाई को । उसके सीने में यत्र-तत्र बिखरे प्लास्टिक के कचरे को। उन झरने के क्रंदन को, जिसके पानी मैले हो गये हैं। दरअसल, हम कभी किसी बाग के हुये ही नहीं, किसी पहाड़ से मिले ही नहीं । जिस पहाड़ पर हमने छुट्टी बितायी, वह पहाड़ नहीं पयर्टन-केन्द्र था। हम तो हमेशा अपने 'अहं ' में ही रहे, जिसमें बाग और पहाड़ के लिए कोई जगह ही नहीं। कितनी बड़ी हो गयी है हमारी महत्वाकांक्षा, हमारी लिप्सा, हमारा स्वार्थ, हमारी भोगेच्छा ? शायद सारे बागों से बड़े ! शायद सभी पहाड़ों से बड़े !!

गुरुवार, 20 अगस्त 2009

Lesson From Kusaha Breach

( KOSHI BARRAGE: ON THE PATH OF TINAU HATISUNDE BARRAGE)
By Dinesh Kumar Mishra
There was no end to the miseries of people in the Kosi Basin as the river used to change its course. It is a vibrant river and used to inflict immense losses in the districts of Purnea and Saharsa. All that is history now… Now, the river is jacketed on either side and has been controlled. This has benefited the people living in the countryside of the embankments and the biggest benefit is that the people there are not scared of the river that it would bother them anymore. The areas that have been protected by the embankments have got a new lease of life and after travelling to those places one gets an impression that the life has started afresh there.”
This was Kedar Pandey on behalf of the government in the Bihar Vidhan Sabha on October 6, 1959.
Every word was proved wrong 50 years down the time line on August 18, 2008, when the Kosi breached its eastern afflux bundh at Kusaha in Nepal. The floodwaters engulfed 35 blocks and 993 villages spread over five districts. Nearly 3.3 million people and 3.68 lakh hectares were trapped in floods; 2.34 lakh houses were destroyed and 527 persons died in the disaster.
This was the eighth incident of its kind in the past 45 years. There is no reason for people to be complacent about the cover provided by the Kosi embankment, as the threat of a breach continues to loom large. In a similar incident on the Kosi’s eastern embankment in 1984, the river wiped out 11 villages in Navhatta block of Saharsa district and engulfed 196 villages in seven blocks of Saharsa and Supaul districts of north Bihar. The floodwaters spread over 67,000 hectares and 4.58 lakh people were rendered homeless. They sheltered on the remaining portion of the embankment for more than six months.
The Kusaha breach was plugged in the month of May this year at an estimated cost of Rs 143.42 crore, approved by the Centre, which sanctioned Rs 1,010 crore for emergency relief after the breach was declared a national calamity on August 28, 2008. The state government reportedly mobilised an equal amount for relief and many NGOs did their own bit. Despite all these inputs, the state needs another Rs 14,800 crore to bring back the victims and the state economy on the rails. It is time to do the sums on the benefits of the Kosi Project.
Unresolved debate
Embankments prevent a river from overflowing its banks during floods but they also prevent the entry of floodwater including the flow from the tributaries. Thus, while the countryside is deprived of the fertilizing silt contained in floodwater, waterlogging starts along the embankments. The situation is aggravated by seepage under the embankments. Theoretically, sluice gates located at these junctions should solve the problem but in practice such gates quickly become useless. As the riverbed rises above the surrounding land, the gates only let water out. So the only option is embankments for the tributary as well. This results in water being locked up between two embankments. Moreover, no embankment has yet been built or can be built that will not breach. When a breach occurs, there is a deluge, as happened at Kusaha last year.
Some engineers say when embankments are built along any river, its velocity increases and the water can erode the banks and dredge the bottom of the river, thereby increasing its capacity reducing the chances of a flood. Unfortunately, there is no evidence to substantiate these claims, at least not in India. The debate on embankments is yet to be resolved among the engineers and the politicians have the last laugh when they decide on technical matters.
Pro-embankment lobby succeeds after Independence
The British refrained from constructing embankments after their project to contain the Damodar failed in the middle of the 19th century. The situation changed drastically after Independence. In 1956, Kanwar Sain, chairman of the Central Water and Power Commission, addressing a meeting of the Institution of Engineers in Patna had said: “Essentially, it has to be a choice between the demand of the people for immediate flood protection and evolving a plan of flood control that can be guaranteed flawless. If the plans for control of Kosi are to be held in abeyance until an absolutely trouble-free solution can be found we may be certain no work will be done for a long time to come.” The Centre obviously did not wait for an ‘absolutely trouble-free solution’.
Return to status quo
With the plugging of the breach at Kusaha, status quo has been restored. The people have been assured that the embankment would not breach in future but nothing can be far from truth. The river will now flow within the embankments and the sediments it contains will continue to raise its bed level. This in turn will force the authorities to raise the embankments and the river will be rising above the lowest points of its catchment area. Any breach will devastate the area, as it did in 2008. One is reminded of a statement of Captain F C Hirst in 1908, on the Hwang Ho (China) embankments. He had said, “...Each succeeding generation has been compelled to raise the height of the embankments, to make them keep pace with an ever- increasing flood level…. unusually heavy flood breaks down or overtops the embankments, and the pent-up waters deal death to the posterity of those who, originally in good faith, prepared the way for disaster”.
Groping in dark
This is not the place to discuss shortcomings in maintaining and repairing embankments, but to discuss the shortcomings of embankments themselves. The government is busy whipping the old horse of the proposed Barahkshetra Dam on the Kosi in Nepal. It has been doing this for the past 72 years, and occasionally talks about interlinking rivers. Its special task force sends feelers about a pair of embankments within the embankments to reduce the waterway and increase the velocity of flow that would help re-section the river and reduce the floods. In case of the Bagmati, it has a proposal to send floodwaters to the subsoil, and so on. It has nearly 10,000 engineers but never asks them to say that the dam in Nepal is not possible in the near future, and come out with a solution to the Kosi where we do not have to depend on others. Will they ever do it?
(The author is the convenor of Barh Mukti Abhiyan, Bihar)

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

कोस-कोस में कोशी उर्फ प्रलय की पहली वर्षी

दहाये हुए देस का दर्द-53
आज एक बार फिर धरती घूमकर वहीं पहुंच गयी होगी जहां वह 18 अगस्त 2008 को पहुंची थी। हम कहते हैं कि कुसहा में कोशी आज ही टूटी थी, जहां आज कुछ भी नहीं है। हालांकि कुसहा से आगे भी क्या है ? घाव- ही-घाव । कुसहा से आगे भी धरती बदली हुई हैऔर जहां-जहां से कोशी निकली थी, हर जगह उसके निशान हैं। कहीं मारने के , तो कहीं मारकर छोड़ देने के । जो रेत कोशी ने लायी थी उस पर बलुआही घास उग आये हैं। जो दर्द कोशी ने परोसे थे , उन पर मक्खियां भिनभिना रही हैं । हां, समय के मलहम ने घाव के ऊपर काली चमड़ी जरूर लगा दी है। थोड़ा- सा खुरचो नहीं कि ताजा खून निकल आये। हम भी नहीं खुरचेंगे, क्योंकि मुझे मालूम है कि घाव में ठेसहा (बार-बार चोटिल होने) होने की प्रवृत्ति होती है। और अगर राजनीति में नहीं जाना हो तो उसे सहलाने का कोई मतलब नहीं।सहलाने से नींद आती है, घाव ठीक नहीं होते। अस्पताली मलहम तकदीर वालों को ही नसीब होती है, कोशी को समय के मलहम के सिबय किसी वैद्य की आस नहीं। जहां जाओ, जिस गांव में जाओ, कोशी मौजूद है। कहीं याद में, कहीं फरियाद में। रात में भी और दिन में भी। बच्चे के जन्म में और वृद्धों की मौत में भी । बच्चा जन्मा, लेकिन उत्सव नहीं क्योंकि कोशी के मारे को दो जून की रोटी नहीं मिल रही तो उत्सव कहां से मनायें।











(साल भर बाद भी : पानी हटा पर तस्वीर नहीं बदली )



रविवार, 16 अगस्त 2009

दिनन के फेर

(बारह महीने बाद : इन उजडे दयारों को बसने में वर्षों लगेंगे )
दहाये हुये देश का दर्द-52
इसे दिनन के फेर ही कहिये हुजूर कि गांव का वह दब्बू-गंवार छोड़ा (युवक) मलखा मलखान सिंह जैसे बोलने लगा है। सरकारी जीप से उतरे बाबुओं और अधिकारियों से मलखा ने बीच सड़क पर तगड़ा बहस कर लिया। अधिकारियों को समझ में नहीं आया कि वह इस अर्घनंग छोड़ा का क्या करे। अगर कोई और मौका होता तो वे दो जोरदार डंडे में ही पूरे मामले को रफा-दफा करवा देते। सीना तानकर कर बड़े अदब से खड़े जमादार एक इशारे पर ही मलखा को छट्ठी का दूध याद करा देता। उसकी मां, बहन के नाम लेकर मिर्ची चबाता और कहता- तोरा माय..., तोरी बहिन .... दोगला के औलाद, साले तुम्हारी इतनी हिम्मत कि ब्लॉक के हाकिम से कहा-कही करेगा। लेकिन मौका ऐसा नहीं था। एक तो कोशी का उजाड़ और ऊपर से दहाये-भसियाये लोगों के गुस्से। तिस पर से पीछे-पीछे विधायक जी की गाड़ी। इसलिए बाबुओं को गम खाना पड़ा । और जब मलखा ने कहा कि आप लोग इधर आते हैं किसलिए ? शहर में रंडीबाजी से फुर्सत मिल जाती है तो दिल बहलाने गांव चले आते हैं ! हम मरे या जीयें आपको इससे का मतलब ? जाइये देश-विदेश से जो भी रिलीफ आये उसे अपने घर में रख लीजिए। थोड़ा मुखिया को, थोड़ा जनसेवक को चटाइये और बांकी अपने धोधर में ठूंस लीजिये। मैंने नोट किया कि मलखा बोल नहीं रहा था, बल्कि हथियार उठा रहा था। उसकी मुट्ठी चल रही थी और पांव जमीन से टकरा रहे थे। इससे पहले कि मलखा और लोगों को भढ़का देता सरकारी गाड़ी आगे निकल गयी। जमा हुये स्त्री-पुरुषों ने कुछ नहीं समझा। मैंने कहा, चिंता मत कीजिए- थोड़ी देर बाद आपके विधायक जी आयेंगे। उससे पहले आप लोगों को राहत-रिलीफ बांटा जायेगा। बात सबके समझ में आ गयी। वे प्रसन्न हो गये। लेकिन गोद में बच्ची को लेकर खड़े हरखू शाह का चेहरा पहले की तरह उदास रहा। वह मेरे बगल में था। मैंने उससे कहा- जाइये लिस्ट में अपना नाम चढ़वाइये। लेकिन वह कुछ नहीं बोला। जाते-जाते उसने कहा- हमको नै मिलेगा साहेब, हमरा आउर गांव के मुखिया के बीच में रार है। जें मुखिया के खासमखास होगा ओकरे (उसी को) मिलेगा। यह मामला था सुपौल जिले के त्रिवेणीगंज के नजदीक लक्षमीनिया गांव का। यह इलाका कभी समाजवादी आंदोलन का गढ़ हुआ करता था। इन दिनों मरने से पहले ही मरशिया पढ़ने लगा है। कोशी ने इलाका को मरघट्ट में तब्दील कर दिया है। लेकिन गांव के मुखिया, वार्ड मेंबर, पंचायत सेवकों के गाल दिनोंदिन चिकने होते जा रहे हैं।

... और मलखा का क्या पता ? शायद वह भूख के आगे समर्पण कर देगा। या फिर नवकी घरवाली के साथ शहर से आये सर्कस देखने चला जायेगा और शाम को दारू पीकर सो जायेगा ? मलखा या तो मरेगा या फिर मुखिया के साथ जायेगा। अगर इन दोनों से बच गया तो ? मैंने उसका नाम पता नोट कर लिया है। दो वर्ष बाद उससे फिर मिलूंगा और लिख सका तो लिखूंगा भी ।
 
 

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

मैं हारा तीन वर्ष की बच्ची से

वह महज तीन वर्ष कुछ महीने की है। वह बहुत बोलती हैऔर तुतलाती भी नहीं। वह या तो सवाल करती है या फिर टेलीविजन पर चलने वाले गाने गाती है। सवाल-जवाब में वह अक्सर हमें मात दे देती है और मैं उससे हर दिन हार जाता हूं। अमूमन बाप अपने बच्चे से हारकर प्रसन्न होता है, लेकिन मैं अपनी तीन वर्ष कुछ महीने की बेटी से हारकर प्रसन्न नहीं होता, हालांकि दुखी भी नहीं होता। हां, चिंतन में जरूर डूब जाता हूं।
कल रात कोई किताब पढ़ रहा था। वह आ धमकी।
उसने पूछा- "पापा ! आप क्या कर रहे हैं ?'
मैंने कहा- "बेटा, किताब पढ़ रहा हूं ?'
उसने पूछा- "पापा, किताब पढ़ने से क्या होता है ?'
मैंने कहा- "बेटा, किताब पढ़ने से बहुत जानकारी मिलती है और और आदमी की बुद्धि बढ़ती है।'
उसने कहा- "पापा, बुद्धि बढ़ाने से क्या मिलता है ?'
मैंने कहा-"बुद्धि हमें इस दुनिया में रहना सिखाती है ?'
उसने कहा- "किस दुनिया में ?'
मैंने कहा- " ... जिसमें हम, तुम और तुम्हारी ममी रहते हैं ।'
उसने कहा- "पापा यह दुनिया बहुत गंदी है।'
अब सवाल मैंने किया - " क्यों बेटा ?'
उसने जवाब दिया- "... इस दुनिया में लोलबाली, बेंकुला, हकुलदत्त रहता है। ममी कहती हैं कि मैं अगर पैंट में सुशू करूंगी और टेबल पर चढ़कर कुदूंगी तो वह मुझे पकड़ लेगा। मैं जब भी आलमारी से आपका और ममी का कुछ लेती हूं, लोलबाली मुझसे छिन लेती है। इसलिए यह दुनिया गंदी है...'
इसके बाद मैं पराश्त हो गया और गहरे चिंतन में डूब गया....

मंगलवार, 4 अगस्त 2009

Now western embankment facing threat

(Without Guardian: A damaged spur of Kosi near Bheja, Madhubani )
First time in many years western embankment of Kosi is facing serious threat. As per the local resident of Bheja and Madhepur, more than 6 spurs near Madhepur (Madhubani district) from 33 to 45 km are in danger due to water pressure. local resident inform me that some spurs within 35.80 to 53.20 are also in trouble as water level increasing in the river. It is important to note that west embankment of kosi is in complete neglegence since 3 decade. It is runing virtually without Maintainance and monitoring . At some places,(from Nirmalee to Bheja) existance of embankment is just for name and tending to be plane surface with country side. Presently Existing embankment is unable to face even simple load of water and normal current. It is good luck of people that major flows of kosi are in eastern part since many years . But at any point of time, it might be in west. Then what will be happen ? Only God Know !

रविवार, 2 अगस्त 2009

...और छोड़ा बच गया

दहाये हुए देस का दर्द-51
चार बांस की बल्लियों पर लटके टिन के चदरे के नीचे महेसर पासवान की चाय दूकान है, जिसमें काम करता है मुनेसरा। बगल में एनएच-57 का काम चल रहा है। गेमन इंडिया के इंजीनियर और ठेकेदार को चाय पिलाता है, मुनेसरा। जब समय मिलता है तो हमउम्र लड़कों के साथ दो-चार दांव गुड्डी कबड्डी भी खेल आता है। चाय बनाने और पिलाने के अलावा वह देसी गाली बकने में भी माहिर है और अक्सर दारोगा, जमादार और बीडीओ को नाम लेकर गलियाता रहता है।
"... मादर चो... बेटी चो, तोरा घर में सुअर मरे... तोरा जोरू के धमना काटे... मघैया डोम के जनमल सार बीडीओवा...'
यही कोई 13-14 वर्ष का होगा मुनेसरा। उसका बाप कोसी की बाढ़ में भसिया गया। लाश भी नहीं मिली। मुनेसरा इसलिए बच गया क्योंकि वह तैरना जानता था और जब 19 अगस्त 2008 की अहले-सुबह कोसी ने फुफकार के साथ भीमपुर बाजार को ग्रस लिया, तो वह लोटा खाली करके मैदान से लौट रहा था। पल भर में ही पूरे भीमपुर में डूबा पानी फैल गया। मुनेसरा तैरकर सरकारी स्कूल की छत पर पहुंचा। दो दिन और दो रात खुली छत के एक कोने में बैठे रहा। शुरू में छत पर कई लोग थे, लेकिन धीरे-धीरे वे प्राइवेट नाव के सहारे सुरक्षित स्थानों की ओर निकल गये। मुनेसरा अपने मां-बाप की प्रतीक्षा करता रहा, जो कभी नहीं आये। तीन-चार दिनों तक बिना कुछ खाये-पीये मुनेसरा स्कूल की छत पर बैठे रहा। कोसी के कठ-खेल को देखते रहा, कभी रो कर तो कभी आंख मूंदकर। जब भूख बर्दाश्त से बाहर हो गयी, तो उसने एक उपाय खोज निकाला। बगल में कदम का पेड़ था, जिसमें खूब फल लगे थे। मुनेसरा उसी के सहारे दिन काटने लगा । प्यास जब असहनीय हो जाती, तो वह बाढ़ के पानी में ही चुलू लगा देता। लेकिन दो दिन के बाद वह बीमार हो गया। पेट और मूंह साथ-साथ चलने लगा। लेकिन मरने से कुछ वक्त पहले एक एनजीओ कार्यकर्ता की नजर उस पर पड़ गयी। बोला- इट इज एक्यूट केस ऑफ डॉयरिया, अ फ्लड वाटर ड्रंक !
उसकी हालत को बयां करते चायवाला महेसर पासवान कहता है- "सरवा के पेट पीठ से सट गिया था। येनजीओ वाला डॉगडर निरैश (समर्पण कर देना) दिया था। नाउ होफ , नाउ होफ कहता था डॉगडर। उन लोगों के पास कुछ खास दवा-दारू भी नहीं था। लेकिन दो बोतल पानी चढ़ाने के बाद मुनेसरा को प्राण आने लगा। द्वि मास तक तें खटिया पर पड़ा रहा, चलता भी था तो लंगड़ी बकरी के जैसन ... हा- हा ! आब देखिये ने सरवा कें , भर दिन में दस पुड़िया गुटखा गटक लेता है...''
मुनेसरा- "हं, हं, आप ही देखते हैं कि दस गो पुड़िया गुटखा खाते हैं ?''
महेसर - "तो क्या ? हम झूठ कहते हैं, सरवा दांत दिखाओ तो इनको, सैड़ गिया है, रे बहान कें ... और गप्प नहीं मारो, तीन कप चाय तेनालिया के दूकान पर जल्दी से पहुंचा आओ । ''
लेकिन मुनेसरा नहीं हिला। मालिक ने क्या कहा, जैसे उसे सुनाई ही नहीं दिया। वह एक टक हमें देखते रहा। जब हम उठने लगे, तो उसने कहा, "साहेब मेरे बाप के बारे में अखबार में छापिये ना... ऊ मरा नहीं होगा, लगता है भसिया कर किसी दूसरे मुलूक में पहुंच गिया है। मेरी बात कोई नहीं सुनता। दरोगा-जमादार मादर्च... '' इतना कहकर वह जैसे किसी अनंत सून्य में खो गया।
जब हम वहां से जाने लगे तो दूकानदार महेसर ने भी उसकी पैरवी की, "छोड़ा ठीके कहता है साहेब एकर बाप के लिए कुछ कीजिए न साहेब। सरवा जब-तब भोकार पार-पार कें रोने लगता है।''