रोज सबेरे टहला किये बागों में हम, लेकिन हमें याद नहीं कि बागों में मुरझाये फूलों ने क्या पूछा था हमसे। टूटी डाली और झुके हुये तनों से लिपटी पत्तियों ने आवाज दी थी मुझे, लेकिन हम टहलते रहे जैसे हम बाग में नहीं, बाजार में हो। ताजा हवा की तलाश में न जाने कहां-कहां भटका किये हम। ऊंचे पहाड़ों और हिल स्टेशनों से हो आये हम। लेकिन नहीं समझ सके पहाड़ की तन्हाई को । उसके सीने में यत्र-तत्र बिखरे प्लास्टिक के कचरे को। उन झरने के क्रंदन को, जिसके पानी मैले हो गये हैं। दरअसल, हम कभी किसी बाग के हुये ही नहीं, किसी पहाड़ से मिले ही नहीं । जिस पहाड़ पर हमने छुट्टी बितायी, वह पहाड़ नहीं पयर्टन-केन्द्र था। हम तो हमेशा अपने 'अहं ' में ही रहे, जिसमें बाग और पहाड़ के लिए कोई जगह ही नहीं। कितनी बड़ी हो गयी है हमारी महत्वाकांक्षा, हमारी लिप्सा, हमारा स्वार्थ, हमारी भोगेच्छा ? शायद सारे बागों से बड़े ! शायद सभी पहाड़ों से बड़े !!
शुक्रवार, 21 अगस्त 2009
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4 टिप्पणियां:
आत्म विश्लेषण का सुन्दर भाव जो दूसरे को भी सोचने के लिए विवश करे।
एक अच्छी पोस्ट पढने को मिली
काश कि हम सब इस बात को समझे।
क्या बात कही आपने.....सही एकदम सही......मनुष्यों ने इस धरती पर जितने अत्याचार किये,जब धरती इसका प्रतिशोध लेगी तो पता नहीं मनुष्य कहाँ जायेगा....
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