दहाये हुए देस का दर्द-53
आज एक बार फिर धरती घूमकर वहीं पहुंच गयी होगी जहां वह 18 अगस्त 2008 को पहुंची थी। हम कहते हैं कि कुसहा में कोशी आज ही टूटी थी, जहां आज कुछ भी नहीं है। हालांकि कुसहा से आगे भी क्या है ? घाव- ही-घाव । कुसहा से आगे भी धरती बदली हुई हैऔर जहां-जहां से कोशी निकली थी, हर जगह उसके निशान हैं। कहीं मारने के , तो कहीं मारकर छोड़ देने के । जो रेत कोशी ने लायी थी उस पर बलुआही घास उग आये हैं। जो दर्द कोशी ने परोसे थे , उन पर मक्खियां भिनभिना रही हैं । हां, समय के मलहम ने घाव के ऊपर काली चमड़ी जरूर लगा दी है। थोड़ा- सा खुरचो नहीं कि ताजा खून निकल आये। हम भी नहीं खुरचेंगे, क्योंकि मुझे मालूम है कि घाव में ठेसहा (बार-बार चोटिल होने) होने की प्रवृत्ति होती है। और अगर राजनीति में नहीं जाना हो तो उसे सहलाने का कोई मतलब नहीं।सहलाने से नींद आती है, घाव ठीक नहीं होते। अस्पताली मलहम तकदीर वालों को ही नसीब होती है, कोशी को समय के मलहम के सिबय किसी वैद्य की आस नहीं। जहां जाओ, जिस गांव में जाओ, कोशी मौजूद है। कहीं याद में, कहीं फरियाद में। रात में भी और दिन में भी। बच्चे के जन्म में और वृद्धों की मौत में भी । बच्चा जन्मा, लेकिन उत्सव नहीं क्योंकि कोशी के मारे को दो जून की रोटी नहीं मिल रही तो उत्सव कहां से मनायें।
आज एक बार फिर धरती घूमकर वहीं पहुंच गयी होगी जहां वह 18 अगस्त 2008 को पहुंची थी। हम कहते हैं कि कुसहा में कोशी आज ही टूटी थी, जहां आज कुछ भी नहीं है। हालांकि कुसहा से आगे भी क्या है ? घाव- ही-घाव । कुसहा से आगे भी धरती बदली हुई हैऔर जहां-जहां से कोशी निकली थी, हर जगह उसके निशान हैं। कहीं मारने के , तो कहीं मारकर छोड़ देने के । जो रेत कोशी ने लायी थी उस पर बलुआही घास उग आये हैं। जो दर्द कोशी ने परोसे थे , उन पर मक्खियां भिनभिना रही हैं । हां, समय के मलहम ने घाव के ऊपर काली चमड़ी जरूर लगा दी है। थोड़ा- सा खुरचो नहीं कि ताजा खून निकल आये। हम भी नहीं खुरचेंगे, क्योंकि मुझे मालूम है कि घाव में ठेसहा (बार-बार चोटिल होने) होने की प्रवृत्ति होती है। और अगर राजनीति में नहीं जाना हो तो उसे सहलाने का कोई मतलब नहीं।सहलाने से नींद आती है, घाव ठीक नहीं होते। अस्पताली मलहम तकदीर वालों को ही नसीब होती है, कोशी को समय के मलहम के सिबय किसी वैद्य की आस नहीं। जहां जाओ, जिस गांव में जाओ, कोशी मौजूद है। कहीं याद में, कहीं फरियाद में। रात में भी और दिन में भी। बच्चे के जन्म में और वृद्धों की मौत में भी । बच्चा जन्मा, लेकिन उत्सव नहीं क्योंकि कोशी के मारे को दो जून की रोटी नहीं मिल रही तो उत्सव कहां से मनायें।
6 टिप्पणियां:
अपने कथ्य और तस्वीरों के माध्यम से आपने प्रभावित लोगों की पीड़ा को प्रभावी ढ़ंग से रखने में सफल हुए हैं। सचमुच पिछले साल, जिसका असर आजतक है, की हालत के बारे में सोचकर ही सिहर जाता हूँ।
हो सके तो १८ अगस्त २००९ को १८ अगस्त २००८ कर लें।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
Marmik !!!!
Jinke haathon halat sudharne ka samarthy hai,we apna kaam karen na karen,yah unke jimme hai,lekin us dard ko shabdon me baandh sabke saamne lane ka aapne jo puneet kartaby nibaha hai,uske liye main aapke sammukh natmastak hun...
Sadhuwaad aapka...
ओह कोशी की बाढ़ और उसके तांडव और तबाही के मंजर के फोटो मैंने देखे है वास्तव में वहां बड़ी दर्दनाक स्थिति थी . भगवान करें इसे दिन फिर कभी न आये .
ओह कोशी की बाढ़ और उसके तांडव और तबाही के मंजर के फोटो मैंने देखे है वास्तव में वहां बड़ी दर्दनाक स्थिति थी . भगवान करें इसे दिन फिर कभी न आये .
सुमन जी , गलती की ओर ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद। दिगंबर नासवा जी, सांकृत्यानंद जी, अरविंद श्रीवास्तव, हरि अग्रवाल, राम मनोहर, अजय झा, मिलन जी, मुकेश कुमार, संजय तिवारी, सत्येंद्र प्रताप सिंह, रंजना जी, मिश्र जी समेत उन तमाम ब्लॉगरों का मैं विशेष तौर पर आभारव्यक्त करता हूं जिसने कोशी के दर्द को समझने में मेरी मदद की । सामाजिक सरोकार में विश्वास रखने वाले ही ऐसी मुहिमों के हमराह होते हैंऔर कोशी-विमर्श और कोशी जागरूकता अभियान के मेरे प्रयास सरोकारी लोगों के कारण ही आगे बढ़े हैं। मुझे विश्वास है कि एक दिन नई "सुबह' जरूर होगी।
मन की पीडा को चित्रों और लेख के माध्यम से प्रस्तुत किया है ............. आप अपना प्रयास जारी रक्खे हुवे हैं ..... पिछले एक साल समें पढ़ रहा हुनाप्को ..... पर सरकार कभी जागेगी .......... लगता नहीं ..
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