अभी-अभी स्कूल को टाटा,बाय-बाय कर कॉलेजे में दाखिल हुए टीन एजर्स की महफिल थी वह। इसलिए वहां सब कुछ जवा-जवां था। वे अपने-अपने टेंशन को जिंस की उस खूंटी पर टांग आये थे जिसे पहनने के बाद वे खुद को 'बाजीगर' के शाहरुख खान समझने लगते थे। जवाने की सारी माथापच्चियों को उन्होंने पीएचडी के पचड़े में फंसे बुढ़ाते हुये छात्रों के नाम छोड़ा रखा था। बेईमानी, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, कट्टरवाद जैसे रोगों से उन्हें चिढ़ थी। वे शब्दों के माने अपने हिसाब से लगाते थे और वफा कहने पर किसी लड़की का नाम लेकर रोमांटिक गाना गुनगुनाने लगते थे। बेवफाई जैसे शब्दों के उल्लेख के साथ ही वे भड़क उठते थे और किसी लड़की का नाम लेकर देसी-विदेशी गाली बकने लगते थे। वे विश्वविद्यालय में नये थे। इसलिए पीएचडी के पचड़े में पड़े बुढ़ाते छात्रों के लिए माफी के काबिल थे। पीएचडी के पचड़े में पड़े बुढ़ाते छात्र उन्हें अपनी बारिस घोषित कर चुके थे और अक्सर अपने निर्जान बैठकों में कहते थे- सालों, तुम्हें नहीं मालूम कि कभी हमारे पसीने भी गुलाल हुआ करते थे। जब तक हम जवान रहे, जांघों के ही गुलाम रहे। हमारे समय में भी यौन क्रांति हुई थी जिसने सारी क्रांतियों को निगल ली। लेकिन टीन एजर्स उनसे सहमत नहीं थे, कहते थे-''अपना फ्रस्टेशन हम पर मत निकालिये, हमे तो बस विस कीजिए।''
और इस तरह एक दिन अचानक 20 हजार युवक-युवतियों से हमेशा भरा रहने वाला वह विश्वविद्यालय मर गया। बंजर और बेजान हो गया। दर्जनों क्रांतियों का गवाह रहने वाला उसका मनोरम परिसर, मासुक-मासुकाओं के पार्क में तब्दील हो गया। जबकि परिसर से बाहर देश घायल होकर कराह रहा था ...
और इस तरह एक दिन अचानक 20 हजार युवक-युवतियों से हमेशा भरा रहने वाला वह विश्वविद्यालय मर गया। बंजर और बेजान हो गया। दर्जनों क्रांतियों का गवाह रहने वाला उसका मनोरम परिसर, मासुक-मासुकाओं के पार्क में तब्दील हो गया। जबकि परिसर से बाहर देश घायल होकर कराह रहा था ...
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