सत्ता गंवाने के बाद निराश होना स्वाभाविक है। बड़े-बड़े नेता भी सत्ता गंवाने के सदमा को आसानी से नहीं पचा पाते हैं। सत्ता की राजनीति करने वाले नेताओं को तो कुर्सी के बगैर सियासत बेस्वाद लगती है। लेकिन जो नेता सामाजिक क्रांति के लिए राजनीति करते हैं या फिर इसका दावा करते हैं, वे भी अगर सत्तालोलुपों की तरह कुर्सी के लिए अनाप-शनाप बकने लगे तो इसे क्या कहा जाये? उनका फ्रस्ट्रेशन या बौखलाहट?
नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री और नेपाली माओवादी पार्टी के अध्यक्ष पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड इन दिनों ऐसा ही कुछ कर रहे हैं। शायद वह इन दिनों भारी अवसाद में हैं या फिर वह बुरी तरह बौखला गये हैं। इसलिए वे अब अनाप-शनाप बकने लगे हैं। हाल के दिनों में उन्होंने भारत को लेकर जो विषवमन किया है, उनसे से तो यही संकेत मिलता है। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब प्रचंड ने अपने इंग्लैंड दौरे पर जाने से महज कुछ समय पहले बयान दिया कि भारत नेपाल के जरिये चीन पर आक्रमण करना चाहता है। इंग्लैंड में उन्होंने कहा कि हिमालय की तराई की (भारत समेत) जनता लाल क्रांति के लिए बेचैन है। इंग्लैंड से लौटने के तुरंत बाद उन्होंने सीमाई शहर बीरगंज में बयान दिया कि नेपाल के प्रधानमंत्री माधव कुमार नेपाल की भारत यात्रा नेपाली इतिहास की सबसे बड़ी अपमानजनक घटना है। जब पत्रकारों ने उनसे इसका कारण पूछा तो उन्होंने जो जवाब दिया उसे सुनकर शायद स्कूली बच्चे को भी शर्म आ जाये। प्रचंड ने कहा कि माधव कुमार नेपाल को नई दिल्ली में कोई तरजीह नहीं दी जा रही है। भारतीय मीडिया भी उन्हें कोई भाव नहीं दे रहा। मीडिया में न तो माधव नेपाल की तस्वीर छप रही न ही खबर। लेकिन जब वे खुद नेपाली प्रधानमंत्री के रूप भारत पहुंचे थे तो भारतीय मीडिया उनके पीछे-पीछे दूम हिलाते फिर रहे थे।
अब प्रचंड से कौन पूछे कि माधव नेपाल बाकायदा पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के साथ और नेपाल के राष्ट्राध्यक्ष के रूप में भारत पहुंचे हैं।इसलिए उनके स्वागत के बास्ते भारत को अलग से कोई व्यवस्था नहीं करनी है, बल्कि भारत में इसके लिए आधिकारिक तौर पर स्थापित और सतत् चलायमान प्रावधान है,जिसे प्रोटोकॉल कहते हैं। जहां तक मीडिया के पीछे भागने का सवाल है, तो प्रचंड को मालूम होना चाहिए कि मीडिया व्यक्ति के पीछे नहीं भागता, बल्कि व्यक्ति के न्यूजवर्दीनेस के हिसाब से उसे कवरेज देता है। कई बार ऐसा मौका आता है जब मीडिया न्यूजवर्दीनेस के कारण कई बड़ी हस्तियों की मौजूदगी के बावजूद अदना आदमी के आसपास मधुमक्खी की तरह जमा हो जाते हैं। प्रचंड को पिछली बार इस वजह से ही भारतीय मीडिया ने ज्यादा तरजीह दीथी। पता नहीं वे इस बात को क्यों नहीं समझ पाये। क्या प्रचंड इतने नादान हैं कि वह इस तथ्य को नहीं समझ नहीं पाये और व्यापक मीडिया कवरेज के कारण खुद को नेपाल नहीं, अमेरिका-रूस के राष्ट्राध्यक्ष समझने लगे ?
दरअसल प्रचंड अपने ही बुने जाल में बुरी तरह फंसते जा रहे हैं। दो नावों की सवारी अब उन्हें महंगी पड़ रही है। एक ओर तो वह प्रजातांत्रिक प्रक्रिया में भागेदारी भी करना चाहते हैं दूसरी ओर अपने सशस्त्र माओवादी कैडरों के वजूद को भी बरकरार रखना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने पिछले दिनों मुख्य सेनापति को हटाकर कठपुतली सेनापति बनाने की कोशिश की, जिसमें उन्हें मुंह की खानी पड़ी। वे चाहकर भी वैकल्पिक सरकार के गठन को रोक नहीं सके। जबकि जिन आकाओं ने उन्हें आगे बढ़ाया है उनके दबाव उन पर बढ़ते जा रहे हैं।
दरअसल, अब यह बात लगभग साबित हो चली है कि प्रजातांत्रिक व्यवस्था में शामिल होना नेपाली माओवादियों की एक चाल थी और उनका अंतिम लक्ष्य कुछ और था। वे बैलेट के जरिये मुख्य धारा में शामिल होकर नेपाल की सारी शक्तियों को अपने हाथ में लेना चाहते थे, जिनमें वे बुरी तरह असफल हो गये। जाहिर है यह काम सेना को अपने नियंत्रण में लेकर ही संभव था, जिसे नेपाली कांग्रेस, एमाले और एमपीआरएफ ने विफल कर दिया। प्रचंड को शंका है कि ऐसा भारत के इशारे पर हुआ । वह यह मानकर चलते हैं कि भारत के हस्तक्षेप के कारण उनका सर्वसत्तावादी एजेंडा अपने मुकाम तक नहीं पहुंच पा रहा है। इसलिए वे रह-रहकर भारत के खिलाफ अनाप-शनाप बकने लगते हैं। लेकिन इस क्रम में वह भारत-नेपाल के सदियों पुराने साझे सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक और भौगोलिक संबंध को भूल जाते हैं। जिसका सीधा अर्थ होता है नेपाल के लगभग 50 प्रतिशत लोगों की इच्छाओं को नजरअंदाज करना। कहने की जरूरत नहीं कि ये लोग भारत के साथ खून का रिश्ता रखते हैं। यह भी एक स्थापित तथ्य है कि नेपाली अर्थव्यवस्था सीधे तौर पर भारत पर आश्रित है। इनके अलावा नेपाल और भारत की जो भौगोलिक बनावट है उसमें भारत नेपाल को छोड़कर नहीं चल सकता। प्रकृति ने दोनों देश को एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जोड़ रखा है। अगर दोनों अलग-अलग चलना भी चाहे, तो नहीं चल सकते। हिमालय भारत के पर्यावरण और पारिस्थितिकी , मानसून और जल-चक्र को सीधे तौर पर नियंत्रित करता है। हिमालय से निकलने वाली नदियां भारत में तबाही लाती हैं। इसका समाधान और इलाज नेपाल में है। दुनिया की कोई संस्था या न्यायालय यह नहीं कह सकता कि भारत और नेपाल एक-दूसरे के बगैर जीना सीख ले।
परन्तु नेपाली माओवादी पार्टी और प्रचंड को यह बात नागवार गुजरती है। वे रिश्ते के इन बुनाबटों व तासीरों और अंतर्निभरता में जाना नहीं चाहते, जिसे इंसान ने नहीं, बल्कि प्रकृति ने रचा है। वे तो परदेश से निर्देशित अपने स्व-अर्थी एजेंडा को बढ़ाने पर आमादा हैं। भले ही इसके कारण दोनों देशों की करोड़ों जनता के दिल छलनी हो जाये या फिर नेपाल कंगाल और बिहार बाढ़ में डूब जाये।
नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री और नेपाली माओवादी पार्टी के अध्यक्ष पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड इन दिनों ऐसा ही कुछ कर रहे हैं। शायद वह इन दिनों भारी अवसाद में हैं या फिर वह बुरी तरह बौखला गये हैं। इसलिए वे अब अनाप-शनाप बकने लगे हैं। हाल के दिनों में उन्होंने भारत को लेकर जो विषवमन किया है, उनसे से तो यही संकेत मिलता है। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब प्रचंड ने अपने इंग्लैंड दौरे पर जाने से महज कुछ समय पहले बयान दिया कि भारत नेपाल के जरिये चीन पर आक्रमण करना चाहता है। इंग्लैंड में उन्होंने कहा कि हिमालय की तराई की (भारत समेत) जनता लाल क्रांति के लिए बेचैन है। इंग्लैंड से लौटने के तुरंत बाद उन्होंने सीमाई शहर बीरगंज में बयान दिया कि नेपाल के प्रधानमंत्री माधव कुमार नेपाल की भारत यात्रा नेपाली इतिहास की सबसे बड़ी अपमानजनक घटना है। जब पत्रकारों ने उनसे इसका कारण पूछा तो उन्होंने जो जवाब दिया उसे सुनकर शायद स्कूली बच्चे को भी शर्म आ जाये। प्रचंड ने कहा कि माधव कुमार नेपाल को नई दिल्ली में कोई तरजीह नहीं दी जा रही है। भारतीय मीडिया भी उन्हें कोई भाव नहीं दे रहा। मीडिया में न तो माधव नेपाल की तस्वीर छप रही न ही खबर। लेकिन जब वे खुद नेपाली प्रधानमंत्री के रूप भारत पहुंचे थे तो भारतीय मीडिया उनके पीछे-पीछे दूम हिलाते फिर रहे थे।
अब प्रचंड से कौन पूछे कि माधव नेपाल बाकायदा पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के साथ और नेपाल के राष्ट्राध्यक्ष के रूप में भारत पहुंचे हैं।इसलिए उनके स्वागत के बास्ते भारत को अलग से कोई व्यवस्था नहीं करनी है, बल्कि भारत में इसके लिए आधिकारिक तौर पर स्थापित और सतत् चलायमान प्रावधान है,जिसे प्रोटोकॉल कहते हैं। जहां तक मीडिया के पीछे भागने का सवाल है, तो प्रचंड को मालूम होना चाहिए कि मीडिया व्यक्ति के पीछे नहीं भागता, बल्कि व्यक्ति के न्यूजवर्दीनेस के हिसाब से उसे कवरेज देता है। कई बार ऐसा मौका आता है जब मीडिया न्यूजवर्दीनेस के कारण कई बड़ी हस्तियों की मौजूदगी के बावजूद अदना आदमी के आसपास मधुमक्खी की तरह जमा हो जाते हैं। प्रचंड को पिछली बार इस वजह से ही भारतीय मीडिया ने ज्यादा तरजीह दीथी। पता नहीं वे इस बात को क्यों नहीं समझ पाये। क्या प्रचंड इतने नादान हैं कि वह इस तथ्य को नहीं समझ नहीं पाये और व्यापक मीडिया कवरेज के कारण खुद को नेपाल नहीं, अमेरिका-रूस के राष्ट्राध्यक्ष समझने लगे ?
दरअसल प्रचंड अपने ही बुने जाल में बुरी तरह फंसते जा रहे हैं। दो नावों की सवारी अब उन्हें महंगी पड़ रही है। एक ओर तो वह प्रजातांत्रिक प्रक्रिया में भागेदारी भी करना चाहते हैं दूसरी ओर अपने सशस्त्र माओवादी कैडरों के वजूद को भी बरकरार रखना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने पिछले दिनों मुख्य सेनापति को हटाकर कठपुतली सेनापति बनाने की कोशिश की, जिसमें उन्हें मुंह की खानी पड़ी। वे चाहकर भी वैकल्पिक सरकार के गठन को रोक नहीं सके। जबकि जिन आकाओं ने उन्हें आगे बढ़ाया है उनके दबाव उन पर बढ़ते जा रहे हैं।
दरअसल, अब यह बात लगभग साबित हो चली है कि प्रजातांत्रिक व्यवस्था में शामिल होना नेपाली माओवादियों की एक चाल थी और उनका अंतिम लक्ष्य कुछ और था। वे बैलेट के जरिये मुख्य धारा में शामिल होकर नेपाल की सारी शक्तियों को अपने हाथ में लेना चाहते थे, जिनमें वे बुरी तरह असफल हो गये। जाहिर है यह काम सेना को अपने नियंत्रण में लेकर ही संभव था, जिसे नेपाली कांग्रेस, एमाले और एमपीआरएफ ने विफल कर दिया। प्रचंड को शंका है कि ऐसा भारत के इशारे पर हुआ । वह यह मानकर चलते हैं कि भारत के हस्तक्षेप के कारण उनका सर्वसत्तावादी एजेंडा अपने मुकाम तक नहीं पहुंच पा रहा है। इसलिए वे रह-रहकर भारत के खिलाफ अनाप-शनाप बकने लगते हैं। लेकिन इस क्रम में वह भारत-नेपाल के सदियों पुराने साझे सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक और भौगोलिक संबंध को भूल जाते हैं। जिसका सीधा अर्थ होता है नेपाल के लगभग 50 प्रतिशत लोगों की इच्छाओं को नजरअंदाज करना। कहने की जरूरत नहीं कि ये लोग भारत के साथ खून का रिश्ता रखते हैं। यह भी एक स्थापित तथ्य है कि नेपाली अर्थव्यवस्था सीधे तौर पर भारत पर आश्रित है। इनके अलावा नेपाल और भारत की जो भौगोलिक बनावट है उसमें भारत नेपाल को छोड़कर नहीं चल सकता। प्रकृति ने दोनों देश को एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जोड़ रखा है। अगर दोनों अलग-अलग चलना भी चाहे, तो नहीं चल सकते। हिमालय भारत के पर्यावरण और पारिस्थितिकी , मानसून और जल-चक्र को सीधे तौर पर नियंत्रित करता है। हिमालय से निकलने वाली नदियां भारत में तबाही लाती हैं। इसका समाधान और इलाज नेपाल में है। दुनिया की कोई संस्था या न्यायालय यह नहीं कह सकता कि भारत और नेपाल एक-दूसरे के बगैर जीना सीख ले।
परन्तु नेपाली माओवादी पार्टी और प्रचंड को यह बात नागवार गुजरती है। वे रिश्ते के इन बुनाबटों व तासीरों और अंतर्निभरता में जाना नहीं चाहते, जिसे इंसान ने नहीं, बल्कि प्रकृति ने रचा है। वे तो परदेश से निर्देशित अपने स्व-अर्थी एजेंडा को बढ़ाने पर आमादा हैं। भले ही इसके कारण दोनों देशों की करोड़ों जनता के दिल छलनी हो जाये या फिर नेपाल कंगाल और बिहार बाढ़ में डूब जाये।
7 टिप्पणियां:
Sahi kaha aapne,
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।
Sahee kahaa aapne.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
ये हकीकत है ........... इस बात को दोनों deshon की janta को samajhna padhega ..........
A well planned writing. It represents the India's main stream's thought.
As an individual I hate Maoism. But Mr. Prachanda and his party is elected by Nepali People. So every national and international power have to respect the people's opinion.
Nepali people's opinion further says that in a pure Nepali issue when there is no any involvement of Indian issue, Indian concern seems unnatural.
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What I can agree with you is, Nepal and India is co-related in many geo-political issues which should be solved in favor of both nationals.
@ milan jee
I am agree with you. I never opposed or criticised (as a Journalist and person) the election of Prachand and Moist party. I am only focussing his and his party's agenda on the issue of Indo-Nepal concern, which is enevitable for Indian people. I have no doubt that Prachand and his party want a bitter relation with India so that He can earned support from China. At this point he is ignoring the concerns of Indo-Nepal people.
As a journalist I will oppose this move,because I have regular interaction with the People who think that their future is on stake.
Thanks
ranjit
Ranjit bro,
i respect your opinion regarding Prachanda. But Indian mainstream media as well as India and Western Governments should also realize why Maoists are enjoying a massive popular support despite their cruelty and misadventures. Please also note that it's not China incited phenomenon. In fact, geopolitically or culturally, India has far stronger influence and presence in Nepal. Inspite of all these closeness and dependence,why do you think the Nepalese people are increasingly concerned over India's unnecessary interference in Nepal affairs? How do you explain the current India Ambassador Rakesh Sood's role in forming an alliance against the Maoists? Do you think, this approach will help strengthening the Indo-Nepal ties? Can the India Government play the same role within in its own territory such as West Bengal or Asam?
I agree with you in that the people of both countries enjoy cordial cultural relations. However, i wish journalist like you would persuade your government against intervening in Nepal matters. The present Indian approach is only strengthening the Maoists in Nepal, becasue it's not that people are following the Maoist agenda, but it's the Maoists who are raising the Nepali people's concern - that India should stop playing a Big Brother with Nepal.
With Sincere Regards,
@ hawa de wind
brother
Your comment and suggestion is really serious. I read them twice. After analysing your logical arguement it is clear that some thing is wrong between India and Nepal. It is a serious matter for india to analyse why some Nepali peaple have a felling that Indian Govtt is interfering in their internal matter.I think one of the major factor is proximity and other is regular interaction or over exposore. I think, non of the Indian Govtt is against the betterment of Nepal. As far as Sovereignty of Nepal is concern, Being a Journalist I know every Govtt of India respect it. No one dare to go against the respect of Nepali Peaple. If any one will do this, they will be opposed by Indian peaple itself.In border area no one (Indian) like to liesten a simple criticism of Nepal.I know this pesonally.
but brother, maoist propaganda should not be tolerated any more. They are playing like a villain of love story.We know their route of Nourishment and ill agenda. It will be opposed by Indian and Indian Govtt at any cost.
Thanking you with respect
Ranjit
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