उल्के जलने लगे हैं
तकिया भींगने लगा है
अक्सर देर से आती है नींद
उधर अंधेरे में गुम हो गये
बुझते हुए उल्के के अग्निचिह्न
अब दिन में नहीं आता कोई शायर
इसलिए नींद में आता है एक युवक
यही कोई 19-20 साल का
उसने देखा है जंगल
कोई दस साल से
शहर में रमा है
संसद को गमा है
" उजला आदमी, काला आदमी, हरा आदमी, लाल आदमी
सुबह का आदमी, शाम का आदमी
दिन का आदमी, रात का आदमी
आदमी-आदमी, किते आदमी ''
का पहाड़ा पढ़ा है
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कोई दरवाजे पर फेंक देगा एक अखबार
सचिवालय के बाबू
हवा खाने निकलेंगे
औरतों की लंबी कतारें
टपकते नलों पर टूट पड़ेंगी
और सुबह हो जायेगी
जिससे निकलेगा एक दिन
जो रात से भी काला होगा
हर चेहरे पर लग जायेंगे नकाब
पूरा शहर बहुरूपिया होगा
बच्चे का टिफीन, मैडम खा जायेंगी
मैडम भी शाम तक साबूत नहीं बचेंगी
नहीं पता
अगली रात नींद कब आयेगी !
2 टिप्पणियां:
जब से जंगल शहरों में बदलने लगे हैं ... इंसान इंसान नही मुखहोटे बन के रह गये हैं ... मशीन हो गये हैं ... शशक्त रचा है रंजीत जी ...
जब से जंगल शहरों में बदलने लगे हैं ... इंसान इंसान नही मुखहोटे बन के रह गये हैं ... मशीन हो गये हैं ... शशक्त रचा है रंजीत जी ...
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