बुधवार, 25 नवंबर 2009

मन का 'मधु कोड़ा'

वैसे तो मधु कोड़ा झारखंड के एक पूर्व मुख्यमंत्री का नाम है जिस पर चार हजार करोड़ रुपये से ज्यादा की सार्वजनिक संपत्ति गड़पने के आरोप हैं, लेकिन अगर गहराई में देखें तो सच इतना ही नहीं है। सच यह है कि "मधु कोड़ा' भ्रष्टाचार के इस महाकाल की वह प्रवृत्ति है जिस पर हमारा समाज मंत्रमुग्ध है। "मधु कोड़ा' हमारे समय का वह मादक-सम्मोहन है जिसमें समकालीन समाज तिरोहित हो जाता है। "मधु कोड़ा' समकालीन युग का वह नशा है जिसके सेवन के लिए हम बेचैन हैं। "मधु कोड़ा' आज के युग का सर्वमान्य व्यसन है, ध्येय और लक्ष्य भी है। यह हमारे समय का परम प्रिय पुरुषार्थ बन चुका है। हम इस "मधु-मोहन' के सहारे दोनों लोक जीत लेना चाहते हैं। हम इसके बल पर ही हर प्रतिस्पर्धा में प्रथम आना चाहते हैं। हर परीक्षा उत्तीर्ण कर लेना चाहते हैं।
हर अभिलाषा को तुष्ट, हर मद को तृप्त, हर स्वप्न को साकार कर लेना चाहते हैं। जब देश में कई मेनन, कई लालू, कई करुणानिधि, कई महाजन, कई जैन, हर्षद, तेलगी वगैरह-वगैरह हुए तब जाकर एक मधु कोड़ा निकला। क्योंकि हर अगला कोड़ा पहले के "कोड़ाओं' का ही प्रक्षेपण है।
यह सच कटु हो सकता है, लेकिन झूठ नहीं है। और कड़वा होने से यथार्थ मिथ्या नहीं हो जाता। भले ही हम उसे प्रत्यक्षतः स्वीकार करें या न करें, परन्तु कड़वा होने से चीजें खत्म नहीं हो जातीं। एक आदमी ऑटो रिक्शा चलाता है और ट्रॉफिक पुलिस को दस-बीस का नोट थमाते हुए तीन सीटों वाले रिक्शे में एक दर्जन लोगों को ठूंसते चला जाता है। एक आदमी अखबार-चैनल निकालता है और हर दिन सरकार के सामने अपनी गैरवाजिब मांगों की सूची बढ़ाते रहता है और इसे अपना अधिकार भी समझता है। एक आदमी "एक्सप्रेस सेवा' का किराया लेने के बावजूद हर पांच मिनट पर बस में सवारी को घसीटते जाता है और पांच घंटे की यात्रा को 24 घंटे की नर्क यात्रा में तब्दील कर देता है। कभी-कभी गंतव्य पर पहुंचे बगैर गाड़ी लौटा लेता है। एक सरकारी डॉक्टर अपने निजी क्लिनिक में चौबीसों घंटे उपस्थित रहता है, लेकिन अस्पतलालों में उनका दर्शन भाग्यवानों को ही नसीब होता है। मास्टर साहेब जिला शिक्षा पदाधिकारी को हर माह कमीशन थमाकर अपने कर्त्तव्य से इतिश्री कर लेता है। बगैर एक दिन स्कूल गये वेतन उठा लेता है। प्रोफेसर साहेब लोग वेतन को लेकर आंदोलन करते हैं, लेकिन उन्हें याद नहीं होता कि पिछला क्लास उन्होंने कब एटेंड किया था। प्रखंड-जिले और सचिवालय के बाबू बगैर दान-दक्षीणा लिए बात भी करना नहीं चाहते। थानेदार बगैर चढ़ावा के डग नहीं उठाते, भले ही इस बीच आपके घर को कोई जला दे और खलिहान से अन्न उठा ले जाये। एसी में बैठने वाले आइएएस अधिकारी तब तक खुद को आइएएस नहीं मानते जब तक वे करोड़पति न बन जाये और कई शहरों में उनके फ्लैट्‌स न बन जाये। पत्रकारिता के कैरियर में मैंने करोड़पति नहीं बन पाने का पाश्चाताप-विलाप करते कई आइएएस-आइपीएस को नजदीक से देखा-सुना है। ऐसे अधिकारी अपने करोड़पति मित्र का उदाहरण देकर, बहुत व्यथित हो जाते हैं। धर्म, दर्शन, अध्यात्म के मसीहा को जब तक हवाई जहाज और पंच सितारा होटल के टिकट नहीं मिल जाते, वे प्रवचन के लिए तैयार नहीं होते। पवित्र तीर्थ स्थानों में पंडे को पैसे दे दीजिए, तो आपको घंटों लाइन में लगकर अपनी बारी का इंतजार नहीं करना पड़ेगा।
इस प्रवृत्ति को आप क्या कहेंगे ? क्या यह "मधु कोड़ा' प्रवृत्ति नहीं है ? कुछ लोग इससे इंकार कर सकते हैं। वे कह सकते हैं कि मधु कोड़ा के महाभ्रष्टाचार से इनकी तुलना नहीं हो सकती ? कोड़ा के अपराध के सामने इनके अपराध बहुत छोटे हैं। कहां कोड़ा और कहां बेचारा ऑटो रिक्शा चालक ! यह हद हो गया !
मैं भी तुलना नहीं कर रहा ? मैं तो बस प्रवृत्ति की बात कर रहा हूं और प्रवृत्ति छोटी-बड़ी नहीं हो सकती। वह या तो होगी या नहीं होगी। अगर आप ऑटो चलाकर पांच सौ रुपये का घपला कर सकते हैं, तो कल अगर आपके जिम्मे सरकार की स्टेयरिंग होगी तो आप पांच हजार करोड़ का घोटाला कर लेंगे। गांव का फकड़ा (कहावत) है- पहले लत्ती चोर (साग-सब्जी चुराने वाला), फिर सेंगा चोर (सेंग लगाकर चोरी करने वाला) और फिर कट्टा चोर (बंदूक के बल पर डाका डालने वाला) । कोड़ा की ही बात कर लें। वह आदमी पंद्रह वर्ष पहले एक खान- मजदूर था। पहली बार विधायक बना था और रांची में एक दिन मेरे साथ लोहे के टूटे खंभे पर बैठकर दो घंटे बात किया था । आज अगर उस दिन के मधु कोड़ा को याद करता हूं, तो लगता है किसी फिल्म के दृश्य को याद कर रहा हूं। गांव से रांची पहुंचा, उस विधायक ने रांची में इस युग का पहला पाठ सीखा। कि जीवन में आगे बढ़ना है, तो पैसे बनाओ। पैसे बनाकर ही वह मंत्री बना, फिर मुख्यमंत्री और बाद में बिलिनेयर। पैसे के बल पर उसने वोटरों को खरीदा। पैसे के बल पर उसने राष्ट्रीय पार्टियों को खरीदा। विदेश में खान, बंदरगाह, रिसॉर्ट और न जाने क्या-क्या खरीदा। लेकिन किसने उसे टोका ? जिन पार्टियों ने उसे मुख्यमंत्री बनाया था, उनके आला नेता सब कुछ देख रहे थे। लेकिन चुप थे क्योंकि वे भी लूट में शामिल थे। देश की सर्वोच्च प्रतिभा कहे जाने वाले आइएएस और आपीएस , उनके साथ कदमताल कर रहे थे। क्यों ? क्योंकि वे भ्रष्टाचार को दिनचर्या का हिस्सा मान चुके हैं । क्योंकि उन्हें इन चीजों से कोफ्त नहीं होती।
लेकिन नशा चाहे जितना भी मादक हो, वह टॉनिक नहीं हो सकता। भ्रष्टाचार का अल्जेबरा समाज की ज्यामिती और त्रिकोणमिति से स्वतंत्र नहीं है। हो ही नहीं सकता। हर भ्रष्टाचार किसी-न-किसी का हक छीनता है। समाज का अल्जेबरा सीधा है- आप उतने ही धन के हकदार हैं जितने आप इस समाज को अपने श्रम से लौटाते हैं। अगर आप उससे ज्यादा ले रहे हैं, तो इसका सीधा अर्थ है कि आप किसी-न-किसी का हक मार रहे हैं। यकीन मानिये, भ्रष्टाचार का वजूद इसलिए है क्योंकि देश की 60 करोड़ ग्रामीण आबादी को पता नहीं कि उनके हक मारे जा रहे हैं। यह आबादी भ्रष्टाचार के इस खेल में अभी भी शामिल नहीं हुई है। ये इस खेल के समझदार दर्शक-प्रेक्षक भी नहीं बन सके हैं। जिस दिन यह आबादी इस खेल में शामिल हो जायेगी, उस दिन समाज को ध्वस्त होने से कोई नहीं रोक सकेगा। इतिहास साक्षी है। धर्म ग्रंथ साक्षी हैं। जब अधर्म धर्म पर हावी हो जाता है, तो विनाश होता है। जब अन्याय और न्याय की दूरी खत्म हो जाती है, तो धरती रक्तों से भीग जाती है। हम महाभारत की कहानी जानते हैं, लेकिन इसके संदेश को भूल बैठे हैं।
पुनश्चः विचारों की स्थापना के लिए इस लेख में मैंने सामान्यीकरण का सहारा लिया है, हालांकि मैं जानता हूं कि हमारे समाज में आज भी कुछ लोग हैं जो ईमानदारी के साथ हैं। वे इस सामान्यीकरण के हिस्सा नहीं हैं और पूज्यनीय हैं ।

1 टिप्पणी:

मनोज कुमार ने कहा…

"मधु कोड़ा' भ्रष्टाचार के इस महाकाल की वह प्रवृत्ति है जिस पर हमारा समाज मंत्रमुग्ध है।
आक्रामक सच को कहने का आपका अंदाजे बयां कुछ और है। असलियत को उजागर करने के लिए जो आपने यह रचना की है वह आपके बेख़ौफ चेतना का प्रमाण देती है।