रविवार, 8 नवंबर 2009

किस देश में है यह दियारा

दहाये हुए देस का दर्द- 58
कोशी नदी का पानी सूखते ही फरकिया के किसानों की नींद उड़ने लगी है। वजह, जान पर खतरा। फसलों की लूट। मवेशी की लूट। पिछले डेढ़ दशक से दियारा में यह परिपाटी-सी बन गयी है कि पानी सूखने के साथ ही यहां अपराधियों का राज हो जाता है।कोशी की गिरफ्त se मुक्त होते ही अपराधी इलाके को अपने आगोश में ले लेते हैं । आपराधिक गिरोह ही इलाके के कानून, इलाके का संविधान और इलाके के भगवान बन जाते हैं। ये या तो किसानों की जमीन पर कब्जा कर स्वयं फसल उगाते हैं या फिर किसानों से बीघे के हिसाब से लेवी वसूलते हैं। जैसे सवै भूमि अपराधियों कीहो गयी हो... वे खुद को इलाके की सरकार मानते हैं और किसानों से लेवी लेने को गलत नहीं मानते। हालांकि राज्य सरकार को सब कुछ मालूम है, लेकिन वह हमेशा बाल -अनभिज्ञता प्रकट करती है। पूछियेगा तो पुलिस कहेगी, ' ऐसा नहीं है।' लेकिन सच यह है कि अपराधियों से लड़ने के लिए पुलिस कभी दियारा नहीं जाती। हां, इधर अब नक्सली जरूर पहुंचने लगे हैं।
अक्टूबर माह में दियारा का पानी सूख जाता है। इसके बाद शुरू होता है नदी के पेट से निकली जमीनों और जमीन-उत्पादों पर दखल की लड़ाई। सहरसा जिले के राजनपुर पंचायत के हजरबीघी, धर्मपुर, सिरसीया, कोहबरवा, रकठी, सिमरटोका पंचायत के टिकुलवा, नहरवार पंचायत के बघौर, कडुमर पंचायत के आगर, दह, कनरिया, चिड़ैया ओपी के रैंठी, चिड़ैयां, चिकनी, खैना, बीहना, गोलमा आदि गांवों के हजारों एकड़ जमीन में उगे कास को लेकर हर साल लाशें गिरती हैं। भूमि पर कब्जा कर अपराधी या तो स्वयं केलाय एवं खेसारी छींट देता है या फिर इसके एवज में किसानों से लेवी की वसूली करता है। लोग अपनी ही जमीन में बटाईदार बन जाते हैं। कोई थाना, कोई कानून या कोई न्यायालय इनकी रक्षा के लिए नहीं आते। किसी तरह नवंबर बीतता है, इसके बाद मकई (दियारा की मुख्य फसल) कटाई के लिए बंदूक गरजने लगती है। राजनपुर के किसान कपिलेश्वर सिंह अपनी पीड़ा सुनाते कहते हैं, ' अपराधियों के डर से जमीन को बटाई पर लगा दिए हैं । कौड़ी का दाम भी मिलेगा तो जमीन बेचकर गांव से भाग जाऊंगा।' सिंह कहते हैं, 'इससे तो अच्छा होता कि नदी का पानी कभी सूखता ही नहीं। इससे तो अच्छा बाढ़ ही है। कम से कम बाढ़ के समय जमीन पर कब्जे के लिए खून तो नहीं बहते हैं।' एक दूसरे किसान फूलबाबू भगत कहते हैं, ' पहले से ही, अपराधी किसानों को लूट ही रहे थे, अब तो नक्सलियों का भय भी सताने लगा है। अब तो डर के कारण कोई भी किसान किसी जमीन पर खेती करना नहीं चाहता। पसीना बहाकर फसल किसान लगायेंगे और काट कर ले जायेंगे अपराधी। ऐसी किसानी से तो भिखमंगी ठीक। पांच माह पहले मेरी धान की फसल को अपराधियों ने लूट लिया। हमने थाने में मामला भी दर्ज कराया, लेकिन पुलिस कुछ नहीं कर सकी।'
जी हां, यह है सहरसा और खगड़िया जिले का दियारा इलाका। खगड़िया के अमौसी बहियार के नरसंहार के बाद सरकार ने इस इलाके में प्रशासन की पहुंच बढ़ाने की घोषणा की है। लेकिन इन किसानों के बयानों से आपको लगता है कि दियारा में कोई प्रशासन है। जी नहीं। यहां कभी कोई प्रशासन न कल था न आज है। पहले समाज की बंदिशें थी, मूल्य और मर्यादाएं थीं, जो अनजाने में ही प्रशासन का काम कर देती थीं। गांव में पंचायत कर लोग किसी भी तरह के मामले का निष्पादन गांधीवादी तरीके से कर लेते थे। लेकिन सामाजिक विघटन के इस दौर में अब समाज की नैतिक शक्ति खत्म हो चुकी है। इंसान पैसे, वर्चस्व और संसाधन के लिए कुछ भी कर सकता है। दियारा में सरकार नहीं है, लेकिन उपभोक्तावाद है। यह उपभोक्तावाद कितनी महीन चीज है जी ? कहावत बदल दीजिए- जहां न पहुंचे रवि , वहां पहुंचे उपभोक्तावाद। अपराध , अतिवाद और बन्दूक ...
 
 

3 टिप्‍पणियां:

श्यामल सुमन ने कहा…

काफी भ्रमण और अध्ययन के बाद ही ऐसा विश्लेषणात्मक आलेख तैयार किया जा सकता है रंजीत जी, जो आपने बखूबी किया। सरकार और प्रशासन की अकर्मणयता से लोगों के विश्वास की जमीन हिल गयी है और आम लोग नक्सलियों की कठपुतली बनकर जीने को विवश हैं। बहुत ही दुखद पक्ष है यह सहरसा जिले का, जिस पर शायद किसी का ध्यान नहीं।

एक ओर प्रधान मंत्री, गृहमंत्री कहते हैं कि आज उग्रवाद आजादी के बाद की सबसे गम्भीर समस्या है तो दूसरी ओर उग्रवाद की ओर अग्रसर होने को मजबूर कृषकों, निर्धनों के समेकित विकास की कोई योजना भी नहीं है। शायद इससे उग्रवाद घटने बजाय बढ़ेगा।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

Satyendra PS ने कहा…

दियारा की समस्याओं और यहां चल रहे गुंडा राज पर हमारे अखबार में भी खबर गई थी।
एक समस्या यह है कि मैं इस समस्या के बारे में ज्यादा समझता नहीं हूं। उत्तर प्रदेश में भी इस तरह की जमीनें हैं, जहां नदी जमीन काटती है या केवल एक फसल होती है। शायद ऐसी ही जमीन दियारा इलाके की होती है, आपके वर्णन से लगता है। उत्तर प्रदेश में तो लोगों की जोत तय है। लोग किसी पेंड़ को निशान बना लेते हैं और वहीं से नापकर आपसी सहमति से मेढ़ बना लेते हैं और एक फसल उगा लेते हैं।
बिहार में शायद इस तरह की व्यवस्था नहीं है। गांव के दबंग लोग उन जमीनों को अपनी जमीन बताकर उसे अधिया पर देते होंगे... या जो भी हो।
एक खबर इस पर जरूर दीजिए कि उस इलाके में जमीन के लिए किस तरह का संघर्ष है? पहले किसका कब्जा था और अब नक्सलवादी किसका पक्ष ले रहे हैं या कौन से लोग उस इलाके में नक्सलवादी बन रहे हैं? अगर पहले से कब्जा किए किसानों से जमीन छीनी जा रही है तो उनके जोत का आकार क्या है? वसूली करने वाले लोगों का उस जमीन से क्या रिश्ता है, क्या वे पूरी तरह से माफिया टाइप लोग हैं और हफ्ता वसूलते हैं या जमीन उन्हीं की है और भूमि सुधार व्यवस्था लागू न होने की वजह से उनके नाम सैकड़ों एकड़ जमीन है?

दिगम्बर नासवा ने कहा…

आप अपनी लेखनी से हमेशा ही अपने क्षेत्र की समस्याओं को उठाते रहते हैं ......... आप अपना कर्तव पूरा कर रहे हैं .... उम्मीद है सरकार भी जल्दी जागेगी ....