बुधवार, 12 नवंबर 2008

साम-चके, साम-चके आवियह हे.. .

आज कोशी -मिथिला अंचल का सदियों पुराना लोक पर्व सामा-चकेवा है। आज की रात सामा-चकेवा को भसा दिया जायेगा। चांद की दुधिया रोशनी में बहनें गायेंगी- साम-चके, साम-चके आवियह हे... ढेला फोड़ि-फोड़ि जैयह हे... (ओ सामा-चकेवा की जोड़ी, आज रात तुम जरूर आना, आैर इन ढेलों को तोड़कर ही जाना...) दरअसल कोशी अंचल का यह लोक पर्व निश्छल प्रेमकथा की याद में मनाया जाता है। यह भाई आैर बहन के रिश्ते को भी एक सूत्र में पिरोता है। सामा-चकेवा का पर्व एक प्राचीन लोक कथा पर आश्रित है, जिसमें सामा-चकेवा की प्रेमकथा का जिक्र है। बहन के लिए भाई की कुर्बानी का इस कथा में मार्मिक उल्लेख है। िस्त्रयां पंद्रह दिन पहले से ही मिट्टी का सामा और चकेवा बनाती हैं। हर सुबह और शाम सामा-चकेवा की याद में गाना गाती है । दोनों के प्यार में खलनायक की भूमिका निभाने वाले चुगला की भत्र्सना करती हैं। कार्तिक पूर्णिमा की रात सामा-चकेवा का िस्त्रयां श्रद्धापूर्वक विदाई देती हैं आैर उसकी मंगलकामना करती हैं। चुगला की होली जलाती हैं आैर उसके पतन की अराधना करती हैं। तत्पश्चात ताजा धान से तैयार की गये चिउड़ा-दही का भोज किया जाता है।
बहन ! जलाओ चुगलों के पुतले.. . हर ओर चुगले बैठे हैं... पूरा समाज चुगलों की गिरफ्त में है...

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