गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

गिरोहों के बीच

बासी मांड़ और बासी भात खाकर
पूरब की पहली किरण के साथ
सालों तक बैलों के संग जुतते रहने के बाद
और चढ़े सूरज के नीचे
उसने
गरमाये मुराठे को उतारा
और झुलसायी चमड़ी पर मिट्टी का लेप लगाकर
उसने
बगुले की चोंच में ढपाढप समाते केंचुए को देखा
और जाना
कि इस देश में उसकी औकात
'जौ-तील-कुस' से बेसी नहीं है
जिसे अंतत स्वाहा हो जाना है
'इहागच्छत, इहतिष्ठित' जैसे मंत्रों के साथ,
जानते-जानते उसने यह भी जाना
कि पांचवीं वर्षी के बाद प्रेत पितर बन जाता है
और पिण्ड दान के साथ ही इतिहास खत्म हो जाता है
लेकिन दुनिया चलती ही रहती है
जंगली और शहरी गिरोहों के साथ
लिखित-अलिखित कानूनो के साथ
लाइसेंसी या गैरलाइसेंसी बंदूकों के साथ
++
मुंबई की पिटाई
और गुवाहटी के चीरहरण के बाद
उसने चिल्लाकर कहा कि
देश
संसद में 273 कुर्सियों के इंतजाम का ही दूसरा नाम है
और संविधान
बुढ़िया की टांगों पर चढ़े पलस्तर से ज्यादा कुछ नहीं
और
'हम भारत के लोग'
हैं भी क्या
एक वोट के सिवा
'भारत को'
देंगे भी क्या
एक वोट के सिवा

3 टिप्‍पणियां:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

'हम भारत के लोग'
हैं भी क्या
एक वोट के सिवा
'भारत को'
देंगे भी क्या
एक वोट के सिवा..

गहरी संवेदना है इन लाइनों में .. जीवन का कठोरतम सत्य है .... सच है कितना बेबस हो जाता है कवि कभी कभी .. बेहतरीन प्रस्तुति रंजीत जी .....

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

सोंचता हूँ इस आक्रोश कि अभिव्यक्ति के लिए आपने कितना दर्द सहा होगा..!
बहुत ही दर्दनाक सच्चाई को शब्द दिया है आपने.

sandhyagupta ने कहा…

..कि इस देश में उसकी औकात
'जौ-तील-कुस' से बेसी नहीं है

Kaphi aakrosh aur pida chupi hai is abhivyakti me.