बेरोजगारी,गरीबी,असमानता जैसे अभिशापों से घिरे देश में "नौकरी' से ज्यादा जन-मोहक शब्द कुछ नहीं हो सकता। और अगर बात झारखंड की हो, तो फिर "नौकरी' एक शब्द भर कहां रह जाता है। यहां यह शब्द राजनीतिक रामबाण बन जाता है। अगर झारखंड पठारों का राज्य है, तो बेरोजगारी , गरीबी और आर्थिक असमानता इन पठारों की डरावनी खाइयां हैं। इन खाइयों की हकीकत बहुत कड़वी है, इसलिए कोई भी सरकार कभी भी इनमें उतरने की कोशिश नहीं करती। अगर वे इन खाइयों के पास खड़े होकर देखते, तो उन्हें साठ साल के तमाम तथाकथित पराक्रम की असलियत भी मालूम हो जाती। यकीनन सभी स्वतांत्रयोत्तर पराक्रम बौने साबित हो जाते। झारखंड के राजनीतिक दल इस सच को बखूबी जानते हैं। इसलिए वे कभी भी इन खाइयों में उतरने की कोशिश नहीं करते। हां , इन खाइयों के दोहन में वे माहिर हैं।
झारखंड के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने विश्वास मत प्राप्त करने के बाद एक लाख लोगों को नौकरी देने का शिगूफा छोड़ दिया है। राज्य विधानसभा में गुरुवार को विश्र्वास प्रस्ताव पर चर्चा के बाद सरकार की ओर से जवाब दे रहे शिबू सोरेन ने कहा कि उनकी सरकार आने वाले समय में एक लाख बेरोजगारों को नौकरी देगी। इसके अलावा उन्होंने ग्रामीण जनता की त्रासदियों की भी खूब चर्चा की। अकाल, भुखमरी, कुपोषण से लेकर पलायन तक पर शिबू अपने निपट देसी अंदाज में बोले, जिसे सुनकर सहानुभूति होती है और साथ-साथ हंसी भी छूट जाती है। शिबू इतने भोले तो नहीं कि इस जन्नत की हकीकत उन्हें नहीं मालूम।
इसमें कोई दो राय नहीं कि शिबू सोरेन ने झारखंड की गरीब जनता की जिन त्रासदियों की बात की, वे सोलह आने सच है। लेकिन क्या शिबू सोरेन के पास इससे निपटने की कोई ठोस योजना है ? अगर शिबू सोरेन के राजनीतिक रोड-मैप और पिछले रिकॉडों पर गौर करें, तो इस सवाल का जवाब बहुत आसानी से मिल जाता है। शिबू सोरेन अब तक तीन बार राज्य की मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल चुके हैं। इससे पहले वे लगभग चार साल तक झारखंड स्वायत्त परिषद के अध्यक्ष के पद को भी सुशोभित कर चुके हैं । लेकिन आज तक उन्होंने राज्य की गरीबी, आर्थिक असमानता, पलायन, विस्थापन, अकाल और बीमारियों की समस्याओं से लड़ने के लिए एक भी कदम नहीं बढ़ाया। वे राज्य की सत्तर प्रतिशत वंचित आबादी को न्याय दिलाने की बात तो करते हैं, लेकिन जब उनसे पूछा जाता है कि इसके लिए उन्होंने क्या नीति बनाई है , तो वे कोई जवाब नहीं दे पाते। सच तो यह है कि शिबू सोरेन की दिलचस्पी गरीबी, असमानता, अन्याय आदि की चर्चा करने तक सीमित है। इन अभिशापों से निजात पाने की उनकी मंशा नहीं है। तमाम अनुभव यही बताते हैं। अगर सहज भाषा में कहें तो शिबू की राजनीति अब धीरे-धीरे लालू प्रसाद की नब्बे दशक की राजनीतिक शैली की ओर बढ़ रही है। गौरतलब है कि पहली बार सत्ता में आने पर लालू यादव ने भी बिहार के एक लाख लोगों को सरकारी नौकरी देने का शिगूफा छोड़ा था, जिसे कभी पूरा नहीं किया गया। लाख की बात तो छोड़िये लालू प्रसाद के शासन में बिहार में नियमित नियुक्तियां भी प्रायः बंद हो गयी थीं।
पता नहीं शिबू सोरेन को राज्य के संसाधन, स्रोत, जरूरत, प्रशासनिक क्षमता-दक्षता, ब्यूरोक्रेटिक-इंडस्ट्रियलिस्ट कॉकस आदि का कितना ज्ञान है (क्योंकि उनकी प्रशासनिक समझ संदेहास्पद है), लेकिन जिनको इसकी सच्चाई मालूम है, वे शिबू सोरेन की घोषणाओं की चर्चा करने पर चौअन्नी मुस्कान बिखेर देते हैं। इसका मतलब साफ है। राज्य की प्रशासनिक दक्षता लगभग खत्म हो चुकी है, क्योंकि यहां काबिल अधिकारियों के टोटे हैं। पूरे आइएएस कैडर में दक्ष और निपुण अधिकारियों की संख्या पांच-छह ही रह गयी है। कार्य-संस्कृति दरीद्र हो चुकी है। भ्रष्टाचार, लापरवाही, दलाली आदि सरकारी तंत्र के अंग-अंग में व्याप्त है। असलियत तो यह है कि मौजूदा प्रशासनिक तंत्र से शिबू सोरेन की सरकार नियमित दैनिक कार्यों का निष्पादन भी नहीं करा सकते। खनन् नीतियों को बदलने, सत्ताई कॉकस, आर्थिक असमानता और गरीबी को दूर करना तो दिवास्वप्न है। एक लाख लोगों को नौकरी देने के लिए शिबू को शायद एक हजार कार्यालयों का कई हजार बार औचक निरीक्षण और निगरानी करना होगा और कई अधिकारियों-कर्मचारियों को निलंबित करना होगा । और यह भी तब संभव हो सकेगा जब वे बचे-खुचे ईमानदार अधिकारियों की सही-सही पहचान कर ले। जाहिर है शिबू सोरेन की न तो इतनी इच्छा शक्ति है और न ही उनके पास इतनी राजनीतिक शक्ति है। वे भाजपा और आजसू की अवसरवादी राजनीति के कारण बेमेल गठबंधन से सत्ता तक पहुंचे हैं। मुख्यमंत्री की कुर्सी उनका इष्ट है, जो उन्हें मिल चुकी है। फिर भी मुगालते में जीना, जनता की नियति है शिबू "सत्ता-सत्ता ' जप रहे हैं और जनता को "नौकरी-नौकरी' सुनाई दे रही है। बस।
झारखंड के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने विश्वास मत प्राप्त करने के बाद एक लाख लोगों को नौकरी देने का शिगूफा छोड़ दिया है। राज्य विधानसभा में गुरुवार को विश्र्वास प्रस्ताव पर चर्चा के बाद सरकार की ओर से जवाब दे रहे शिबू सोरेन ने कहा कि उनकी सरकार आने वाले समय में एक लाख बेरोजगारों को नौकरी देगी। इसके अलावा उन्होंने ग्रामीण जनता की त्रासदियों की भी खूब चर्चा की। अकाल, भुखमरी, कुपोषण से लेकर पलायन तक पर शिबू अपने निपट देसी अंदाज में बोले, जिसे सुनकर सहानुभूति होती है और साथ-साथ हंसी भी छूट जाती है। शिबू इतने भोले तो नहीं कि इस जन्नत की हकीकत उन्हें नहीं मालूम।
इसमें कोई दो राय नहीं कि शिबू सोरेन ने झारखंड की गरीब जनता की जिन त्रासदियों की बात की, वे सोलह आने सच है। लेकिन क्या शिबू सोरेन के पास इससे निपटने की कोई ठोस योजना है ? अगर शिबू सोरेन के राजनीतिक रोड-मैप और पिछले रिकॉडों पर गौर करें, तो इस सवाल का जवाब बहुत आसानी से मिल जाता है। शिबू सोरेन अब तक तीन बार राज्य की मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल चुके हैं। इससे पहले वे लगभग चार साल तक झारखंड स्वायत्त परिषद के अध्यक्ष के पद को भी सुशोभित कर चुके हैं । लेकिन आज तक उन्होंने राज्य की गरीबी, आर्थिक असमानता, पलायन, विस्थापन, अकाल और बीमारियों की समस्याओं से लड़ने के लिए एक भी कदम नहीं बढ़ाया। वे राज्य की सत्तर प्रतिशत वंचित आबादी को न्याय दिलाने की बात तो करते हैं, लेकिन जब उनसे पूछा जाता है कि इसके लिए उन्होंने क्या नीति बनाई है , तो वे कोई जवाब नहीं दे पाते। सच तो यह है कि शिबू सोरेन की दिलचस्पी गरीबी, असमानता, अन्याय आदि की चर्चा करने तक सीमित है। इन अभिशापों से निजात पाने की उनकी मंशा नहीं है। तमाम अनुभव यही बताते हैं। अगर सहज भाषा में कहें तो शिबू की राजनीति अब धीरे-धीरे लालू प्रसाद की नब्बे दशक की राजनीतिक शैली की ओर बढ़ रही है। गौरतलब है कि पहली बार सत्ता में आने पर लालू यादव ने भी बिहार के एक लाख लोगों को सरकारी नौकरी देने का शिगूफा छोड़ा था, जिसे कभी पूरा नहीं किया गया। लाख की बात तो छोड़िये लालू प्रसाद के शासन में बिहार में नियमित नियुक्तियां भी प्रायः बंद हो गयी थीं।
पता नहीं शिबू सोरेन को राज्य के संसाधन, स्रोत, जरूरत, प्रशासनिक क्षमता-दक्षता, ब्यूरोक्रेटिक-इंडस्ट्रियलिस्ट कॉकस आदि का कितना ज्ञान है (क्योंकि उनकी प्रशासनिक समझ संदेहास्पद है), लेकिन जिनको इसकी सच्चाई मालूम है, वे शिबू सोरेन की घोषणाओं की चर्चा करने पर चौअन्नी मुस्कान बिखेर देते हैं। इसका मतलब साफ है। राज्य की प्रशासनिक दक्षता लगभग खत्म हो चुकी है, क्योंकि यहां काबिल अधिकारियों के टोटे हैं। पूरे आइएएस कैडर में दक्ष और निपुण अधिकारियों की संख्या पांच-छह ही रह गयी है। कार्य-संस्कृति दरीद्र हो चुकी है। भ्रष्टाचार, लापरवाही, दलाली आदि सरकारी तंत्र के अंग-अंग में व्याप्त है। असलियत तो यह है कि मौजूदा प्रशासनिक तंत्र से शिबू सोरेन की सरकार नियमित दैनिक कार्यों का निष्पादन भी नहीं करा सकते। खनन् नीतियों को बदलने, सत्ताई कॉकस, आर्थिक असमानता और गरीबी को दूर करना तो दिवास्वप्न है। एक लाख लोगों को नौकरी देने के लिए शिबू को शायद एक हजार कार्यालयों का कई हजार बार औचक निरीक्षण और निगरानी करना होगा और कई अधिकारियों-कर्मचारियों को निलंबित करना होगा । और यह भी तब संभव हो सकेगा जब वे बचे-खुचे ईमानदार अधिकारियों की सही-सही पहचान कर ले। जाहिर है शिबू सोरेन की न तो इतनी इच्छा शक्ति है और न ही उनके पास इतनी राजनीतिक शक्ति है। वे भाजपा और आजसू की अवसरवादी राजनीति के कारण बेमेल गठबंधन से सत्ता तक पहुंचे हैं। मुख्यमंत्री की कुर्सी उनका इष्ट है, जो उन्हें मिल चुकी है। फिर भी मुगालते में जीना, जनता की नियति है शिबू "सत्ता-सत्ता ' जप रहे हैं और जनता को "नौकरी-नौकरी' सुनाई दे रही है। बस।
6 टिप्पणियां:
ये सब कहने की बात है बाबू। कहां है नौकरी? अब तो इंतजार करिए। भाजपा का एक चुग्गू मधु कोड़ा ने कितना लूटा, वह किसी को पता तक नहीं है। इंतजार कीजिए कि भाजपा के साथ मिलकर नए मुख्यमंत्री क्या गुल खिलाने वाले हैं। लंबे राजनीतिक संघर्ष में शायद शीबू भी जान गए होंगे कि भइये नोट कमाओ, बाकी संघर्ष से कुछ नहीं मिलने वाला।
ये बातें बस कुछ दिनो तक हैं ......... फिर सब लोग भी भूल जाएँगे .......... अगले चुनाव तक कोई नयी बात ले कर आ जाएँगे ये नेता ...........
अच्छी रचना के लिए
आभार .................
प्रिय रणजीत जी
प्रश्न यह नहीं कि शिबू सोरेन क्या कहते और करते हैं और चाहते हैं ..राजनेताओं और राजनीति कि बातें करते करते करोड़ों टन कागज बर्बाद हो चुका है.. यह बात स्वत सिद्ध है कि राजनेताओं के किये धरे इस देश में कोई बदलाव नहीं आने वाला .. सवाल यह है जनता क्या चाहती है? इस देश का युवा क्या चाहता है? क्या वह कुछ चाहने करने के लायक है भी ? कुछ सोचने के लायक है भी ? यदि हाँ तो उसे अपना एक कार्यक्रम लेकर सामने आना होगा .. एक ऐसा कार्यक्रम जिसका वैज्ञानिक आधार हो .. जो सबके लिए हो .. जिसमे सरकारी या गैर सरकारी किसी प्रकार की निर्भरता ना हो और सबसे महत्वपूर्ण बात जो किसी भी प्रकार की संस्कारबद्ध मानसिकता और दासता से मुक्त हो ..आप जैसे कलम के सिपाहियों से मेरा एक विनम्र निवेदन है इस नेतालीलागान और नेतापुरान लेखन से स्वयम को मुक्त करके सोचिये की क्या होना चाहिए? कैसे होना चाहिए? कोण कोण सी बाधाएं होंगी ..किस क्रम से किस उपाय से उनका समाधान निकलेगा .. यदि ऐसा नहीं हो पाता तो पुरानी एक कहावत पर यकीन करिये यथा प्रजा तथा राजा
आदर्णीय श्याम जी,
सादर नमस्कार।
आपकी टिपण्णी पढ़कर सोचने के लिए बाध्य हो गया। आपके विचार और सवाल सामयिक एवं क्रातिकारी हैं। जिन सवालों से जूझकर आप इन नतीजों पर पहुंचे होंगे, वे वस्तुतः इस युग का यक्ष सवाल हैं। शायद यह बात सच है कि आज के राजनेताओं से कोई सामाजिक परिवर्तन नहीं आने वाला। लेकिन मैं आपके दूसरे निष्कर्ष से सहमत नहीं हूं। हम राजनीति से मुक्ति नहीं पा सकते । परिवर्तन के लिए भी राजनीति की जरूरत होती है। हां , आज की चालू राजनीति में यह संभावना नहीं दिखती। लेकिन यह शाश्वत नहीं है। हां, यह सवाल आज के बुद्धिजीवियों के सामने जरूर होना चाहिए कि अगर देश को समकालीन गंदी राजनीति से निजात दिलानी है, तो रास्ते क्या होंगे। कौन-से लोग इसके अगुवा बनेंगे।
मुझे लगता है कि आज की युवा पीढ़ी कैरियररिस्ट और घोर उपभोक्तावादी हो चुकी है और उनके पास समाज के भविष्य के लिए सोचने का वक्त नहीं है। और सच यह भी है कि जब तक युवा पीढ़ी नहीं चाहेगी, तब तक कोई बदलाव नहीं लाया जा सकता। इसलिए पहला प्रयास युवा पीढ़ियों को सच से अवगत कराने का होना चाहिए। आज की युवा पीढ़ी इंटेलीजेंट है, वैज्ञानिक सोच वाली है, इसलिए लगता है कि वे लंबे समय तक मुगालते में नहीं रहेगी। तमाम भ्रम-जाल एक दिन कट जायेंगे। हकीकत उजागर होगी। यह भी स्पष्ट होगा कि जिस पथ पर दौड़ते हुए अभी उनके पांव थकते नहीं थकते, वह पथ वास्तव में कहीं नहीं जाती। यह पथ किसी अंधकार सुरंग में अनायास खत्म हो जाता है।
जहां तक लिखने की बात है, तो यह वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध हो चुका है कि कलम किसी भी तरह के बदलाव का सिपाही कभी नहीं बन सकता। हां, वह उसका सहयोगी बन सकता है। मुझे इस मामले में कोई गलतफहमी नहीं है। फिर भी हम लिखते हैं। क्यों ? क्योंकि यह हमारा व्यक्तिगत विरोध है। यह इस बात का साक्षी है कि हम इनके साथ नहीं हैं और इन गंदी हवाओं के विरोध में हैं। हम ऐसा इसलिए करते हैं कि हम ऐसा किए बगैर रह नहीं सकते। इससे फर्क भले ही कुछ न पड़े, लेकिन सनद रहता है। और सनद जरूरी है।
बहुत-बहुत धन्यवाद
रंजीत
प्रिय रंजीत जी
१. मैं कोई आदरणीय नहीं हूँ .. आपका प्रिय हो सकता हूँ आप चाहें तो.
२. इतिहास गवाह है सत्ता और राजनीति के कारण कभी कोई परिवर्तन नहीं हुआ इसके विरुद्ध समस्याओं में परिवर्धन होता रहा है .. सार्थक परिवर्तन जब भी संभव हुआ है लोकचेतना के कारण संभव हुआ है ..यह अंतर वही आदर और प्यार के बीच के अंतर जैसा है..परिवार अहंकार पोषित संस्कारबद्ध मानसिकता की राजनीतिक इकाई है ..विज्ञानं और तकनीक के इस दौर में इसकी पकड़ ढीली हो रही है .. यही अवसर है बदलाव का ..पशुबल धनबल राजबल स्थूल हैं सोच में परिवर्तन के माध्यम नहीं हैं समाज की सोच में परिवर्तन इनके खिलाफ जाता है ..साहित्य बल और आध्यात्म बल सूक्ष्म है ..दूरगामी प्रभाव वाले असर धीरे होता है लेकिन परिवर्तन लाने में सक्षम हैं आज तकनीक के कारण इनके असर को तेज किया जा सकता है .. फ़िलहाल तो मैं इतना ही कहूँगा आदर देना और लेना छोड़ दीजिए प्यार करना शुरू करिये ..आदर देना लेना बनावटी चीज़ है संबंधों में गणित पैदा करती है ..प्यार सहज है जैसा बच्चों में या दोस्तों में होता है ..प्यार जीवन की, सम्बन्धों की कविता है ..लेकिन मित्र कोई उपाय बताओ जहां हम खुल कर खुल कर बात कर सकें
एक टिप्पणी भेजें