वह अपूर्व था। जमाने में उससे ब़डा दर्जी एक न था । हर ओर उसका नाम, हर किसी में थी उसकी पहचान। सिलाई का ऐसा उस्ताद दोबारा फिर कभी इस धर्ती पर नहीं जन्मा। फटे को सिना उसका काम था। वह अपने काम में भगवान तो नहीं पर उनसे कम भी न था। उसके पास हर फटे का इलाज था। चाहे जैसा फटा हो, चाहे जितना फटा हो, मैला हो या कुचला; वह सबको पल भर में जोड़ देता था। लेकिन जमाना भी कम न था। वह लोकतंत्र का साठ सालगिरह मना चुका था। जमाना तेजी से बदल रहा था। वह कीचड़ में भी अब टहलने लगा था। उसे फाड़ने और कुचलने में मजा आता था। इसलिए उसे इस दर्जी से चीढ़ होने लगी। दर्जी को हताश करने के लिए उसने अपनी फटाई ब़ढानी शुरू कर दी। क्या छोटा, क्या बड़ा, क्या औरत, क्या मर्द ; जिसे देखो फाड़ने और फोड़ने में जी-जान से जुट गया। क्या ऊपर, क्या नीचे, क्या आगे और क्या पीछे ; हर दिशा दो-फाड़ हो रहा था। दर्जी सिता गया और लोगों की फटाई ब़ढती गयी। और एक दिन ऐसा हुआ कि पूरा आसमान ही फट गया। उसने इसे अपनी नैतिक जिम्मेदारी मानी और आसमान को टांकना शुरू कर दिया, जो कभी पूरा नहीं हुआ। कहते है कि प्राण त्यागने से एक क्षण पहले तक उसने हार नहीं मानी। मरने के बाद भी उसके हाथों में सुई और धागे मौजूद थे। लेकिन वह अंततः हार गया। दर्जी की हार पर जमाना बहुत खुश हुआ। इसके बाद तो सारे 'दर्जी' दोमुंहे हो गये और हर सिलाई जैसे नकली हो गयी...
शुक्रवार, 17 जुलाई 2009
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2 टिप्पणियां:
गंभीर चिंतन....
nishabd,sunder lekh
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