दहाये हुए देस का दर्द-80
वैसे यह सही है कि अब लाठी-भाले-फरसे का जमाना नहीं रहा, लेकिन "कपड़फोड़ा' जमात खत्म नहीं हुई है। उनके हथियार और चेहरे जरूर बदल गये हैं, लेकिन सोच यथावत हैं। आज भी गरीबों-वंचितों के ही कपाल फोड़े जाते हैं और वे कपड़फोड़वा के नाम से प्रसिद्ध भी हो रहे हैं। पंचायत हो या पार्लियामेंट, हर जगह अग्रिम पंक्ति की कुर्सियों पर कपड़फोड़वे विराजमान हैं।
खैर मुद्दे पर लौटते हैं। दरअसल, हुआ यह कि "कोई क्या कर लेगा' के मद में मस्त एक एनजीओ और एक डॉक्टर ने पिछले दिनों अररिया जिले के कुर्साकाटा प्रखंड स्थित कपड़फोड़ा पंचायत में धावा बोला। यह इलाका आजादी के छह दशकों के बाद भी विकास की रोशनी की प्रतीक्षा ही कर रहा है। यही कारण है कि इस इलाके की जनसंख्या वृद्धि दर चार से ऊपर है। यहां परिवार नियोजन के नाम पर खूब "खेल' होता है। उस दिन एनजीओ के कारिंदों ने गांव की महिलाओं को मुफ्त बंध्याकरण के लिए बुलाया। चूंकि उन्हें ज्यादा-सा-ज्यादा महिलाओं को जमा करने का आदेश था, इसलिए महज कुछ ही घंटों में गांव के सरकारी स्कूल में सौ महिलाओं को भेड़-बकरी की तरह हांक लाया गया। जितनी मुंडी उतनी ही राशि का फार्मूला काम कर रहा था। महिलाएं उनके लिए एक निर्जीव संख्या से ज्यादा कुछ नहीं थीं। स्कूल के बरामदे में टूटी-फूटी मेजों पर शाम को पांच बजे ऑपरेशन शुरू हुआ और आठ बजते-बजते 61 महिलाओं के गर्भाशय खोलकर बंद कर दिये गये। डॉक्टर शहर लौट गये और सुबह होते-होते दो दर्जन महिलाओं की हालत खराब हो गयी। आश्चर्य की बात यह कि ऑपरेशन-स्थल पर पत्रकार, शिक्षक, गांव के मुखिया समेत बहुत-से लोग मौजूद थे, लेकिन उन्हें इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं लगा। जब मुझे सूचना मिली, तो मैं अचंभित हुआ। मैंने जान-पहचान के डॉक्टरों को फोन लगाया और इस "चमत्कार' के बारे में सवाल किया, तो पता चला कि उक्त डॉक्टर ने "विश्व-रिकॉर्ड' बना डाला है। मेरे संपादक मंगलेश डबराल जी ने जब मुझे इस घटना पर रिपोर्ट करने का निर्देश दिया, तो मैंने इसके एक-एक तार की पड़ताल शुरू की। पता चला कि इस "विश्व रिकॉर्ड' को कायम करने वाले डॉक्टर और एनजीओ के कर्ताधर्ता घटना के डेढ़ महीने बाद तक पुलिस की पकड़ से बाहर हैं। इतना ही नहीं, यह भी मालूम चला कि ऑपरेशन के बाद जो दवा दी गयी वे एक्सपायर्ड थी और एनजीओ ने सरकार द्वारा निर्धारित प्रोत्साहन राशि भी मार ली।
बहरहाल, ऑपरेशन कांड की कई भुक्तभोगी महिलाएं आज भी फारबिसगंज-अररिया-पूर्णिया में स्वास्थ्य के लिए संघर्ष कर रही हैं। लेकिन अखबार के सभी संस्करण बिहार ग्लोबल मीट की तस्वीरों से रंगे रहे। इस दरम्यान अखबारों के लोकल पन्ने भी ग्लोबल बातों से अटे पड़े रहे। यहां तक कि गांव-कस्बे के फोलियो के साथ प्रकाशित होने वाले पन्नों पर भी यह खबर जगह नहीं बना सकी। थोड़ी-सी खबर तब बनी जब स्वास्थ्य मंत्री ने इस प्रकरण पर अपनी जुबान खोली।
देश के अन्य पिछड़े इलाकों की तरह कोशी की भी यह सदियों पुरानी विडंबना है। यहां नेताओं के इशारे के बगैर पत्ता भी नहीं हिलता। इस इलाके में नेता प्रतिनिधि ही नहीं, जनमत निर्माता (ओपिनियन मेकर) भी होते हैं। एक जमाने में कोशी तटबंध के कारण लाखों लोगों को विस्थापित होना पड़ा था। लेकिन नेताओं ने उन्हें समझा दिया कि यह सरकार का आदेश है और सरकारी निर्णय का मतलब ईश्वर का निर्णय। विरोध का विचार भी पाप है, अनैतिक और अवैध है। ब्रिटिश और मुगलिया हुकूमत केदौर में यह धारणा स्थापित की गयी थी, जिसे स्थानीय नेताओं ने आजादी के बाद भी जिंदा रखा। जगन्नाथ मिश्र से लेकर बीएन मंडल तक सभी इस धारणा के प्रबल पैरोकार थे। अगर यह सच नहीं होता तो कोशी में नर्मदा से बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया होता। आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि जिस कोशी महासेतु की चर्चा सर्वत्र हो रही है, उसका निर्माण भी सैकड़ों लोगों के विस्थापन की कीमत पर हुआ है। लेकिन पुल के विस्थापितों की आवाज भी उसी तरह दबा दी गयी जैसे साठ के दशक में तटबंध के विस्थापितों की आवाज बंद करा दी गयी थी।
किसी जमाने में अररिया के इस गांव में जमीन के लिए भीषण कपड़-फोड़ी हुई थी और लोगों ने इसका नाम कपड़फोड़ा रख दिया था। आज फिर वहां कपड़-फोड़ी हुई है। इन वर्षों में कोशी में न जाने कितने पानी बह गये, लेकिन गरीबों और वंचितों के कपाल आज भी घायल हैं। कहते हैं कि कपाल पर तकदीर लिखी होती है!
"आदमी चाहे कितना भी ताकवर क्यों न हो, लेकिन कपार (कपाल) पर लाठी नहीं झेल सकता। कपार पर मारोगे तो एक संगदो काज होगा। दुश्मन तो धाराशायी होगा ही, गांव-जवार में तुम कपड़फोड़वा (कपाल फोड़ने वाला) के नाम से प्रसिद्व हो जाओगे।''पिछले दिनों बिहार के अररिया जिले की कपड़फोड़ा पंचायत में हुई घटना के बाद बचपन में सुने ये सामंती सूत्र-वाक्य एक बार फिर मेरे जेहन में कौंध गये। ब्रिटिश हुकूमत के समय हसेरी (हमला) करने से पहले सामंतवादी शक्तियों के पहलवानों को प्रोत्साहित करने के लिए उनके प्रशिक्षकयह उक्ति जरूर उच्चारते थे। आजादी के बाद बदलाव के हसीन सपने के बावजूद इन वाक्यों का बोलबाला कायम रहा। जमीन, जाति, सत्ता संरक्षण और लठैतों के बल पर गांव के मालिक कहलाने वाले लोग अपने नौकर-चाकर को बात-बात पर इसी वाक्य के सहारे साधते रहे। अगर उन्हें किसी एक को डराना होता तो कहते, "मारो साले के बीच माथ एक लाठी।' अगर एक से ज्यादा को धमकाना होता, तो कहते," अगर सोझ नहीं होगे, तो कपड़-फोड़ी करा देंगे तुम्हारे टोल में। '
वैसे यह सही है कि अब लाठी-भाले-फरसे का जमाना नहीं रहा, लेकिन "कपड़फोड़ा' जमात खत्म नहीं हुई है। उनके हथियार और चेहरे जरूर बदल गये हैं, लेकिन सोच यथावत हैं। आज भी गरीबों-वंचितों के ही कपाल फोड़े जाते हैं और वे कपड़फोड़वा के नाम से प्रसिद्ध भी हो रहे हैं। पंचायत हो या पार्लियामेंट, हर जगह अग्रिम पंक्ति की कुर्सियों पर कपड़फोड़वे विराजमान हैं।
खैर मुद्दे पर लौटते हैं। दरअसल, हुआ यह कि "कोई क्या कर लेगा' के मद में मस्त एक एनजीओ और एक डॉक्टर ने पिछले दिनों अररिया जिले के कुर्साकाटा प्रखंड स्थित कपड़फोड़ा पंचायत में धावा बोला। यह इलाका आजादी के छह दशकों के बाद भी विकास की रोशनी की प्रतीक्षा ही कर रहा है। यही कारण है कि इस इलाके की जनसंख्या वृद्धि दर चार से ऊपर है। यहां परिवार नियोजन के नाम पर खूब "खेल' होता है। उस दिन एनजीओ के कारिंदों ने गांव की महिलाओं को मुफ्त बंध्याकरण के लिए बुलाया। चूंकि उन्हें ज्यादा-सा-ज्यादा महिलाओं को जमा करने का आदेश था, इसलिए महज कुछ ही घंटों में गांव के सरकारी स्कूल में सौ महिलाओं को भेड़-बकरी की तरह हांक लाया गया। जितनी मुंडी उतनी ही राशि का फार्मूला काम कर रहा था। महिलाएं उनके लिए एक निर्जीव संख्या से ज्यादा कुछ नहीं थीं। स्कूल के बरामदे में टूटी-फूटी मेजों पर शाम को पांच बजे ऑपरेशन शुरू हुआ और आठ बजते-बजते 61 महिलाओं के गर्भाशय खोलकर बंद कर दिये गये। डॉक्टर शहर लौट गये और सुबह होते-होते दो दर्जन महिलाओं की हालत खराब हो गयी। आश्चर्य की बात यह कि ऑपरेशन-स्थल पर पत्रकार, शिक्षक, गांव के मुखिया समेत बहुत-से लोग मौजूद थे, लेकिन उन्हें इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं लगा। जब मुझे सूचना मिली, तो मैं अचंभित हुआ। मैंने जान-पहचान के डॉक्टरों को फोन लगाया और इस "चमत्कार' के बारे में सवाल किया, तो पता चला कि उक्त डॉक्टर ने "विश्व-रिकॉर्ड' बना डाला है। मेरे संपादक मंगलेश डबराल जी ने जब मुझे इस घटना पर रिपोर्ट करने का निर्देश दिया, तो मैंने इसके एक-एक तार की पड़ताल शुरू की। पता चला कि इस "विश्व रिकॉर्ड' को कायम करने वाले डॉक्टर और एनजीओ के कर्ताधर्ता घटना के डेढ़ महीने बाद तक पुलिस की पकड़ से बाहर हैं। इतना ही नहीं, यह भी मालूम चला कि ऑपरेशन के बाद जो दवा दी गयी वे एक्सपायर्ड थी और एनजीओ ने सरकार द्वारा निर्धारित प्रोत्साहन राशि भी मार ली।
बहरहाल, ऑपरेशन कांड की कई भुक्तभोगी महिलाएं आज भी फारबिसगंज-अररिया-पूर्णिया में स्वास्थ्य के लिए संघर्ष कर रही हैं। लेकिन अखबार के सभी संस्करण बिहार ग्लोबल मीट की तस्वीरों से रंगे रहे। इस दरम्यान अखबारों के लोकल पन्ने भी ग्लोबल बातों से अटे पड़े रहे। यहां तक कि गांव-कस्बे के फोलियो के साथ प्रकाशित होने वाले पन्नों पर भी यह खबर जगह नहीं बना सकी। थोड़ी-सी खबर तब बनी जब स्वास्थ्य मंत्री ने इस प्रकरण पर अपनी जुबान खोली।
देश के अन्य पिछड़े इलाकों की तरह कोशी की भी यह सदियों पुरानी विडंबना है। यहां नेताओं के इशारे के बगैर पत्ता भी नहीं हिलता। इस इलाके में नेता प्रतिनिधि ही नहीं, जनमत निर्माता (ओपिनियन मेकर) भी होते हैं। एक जमाने में कोशी तटबंध के कारण लाखों लोगों को विस्थापित होना पड़ा था। लेकिन नेताओं ने उन्हें समझा दिया कि यह सरकार का आदेश है और सरकारी निर्णय का मतलब ईश्वर का निर्णय। विरोध का विचार भी पाप है, अनैतिक और अवैध है। ब्रिटिश और मुगलिया हुकूमत केदौर में यह धारणा स्थापित की गयी थी, जिसे स्थानीय नेताओं ने आजादी के बाद भी जिंदा रखा। जगन्नाथ मिश्र से लेकर बीएन मंडल तक सभी इस धारणा के प्रबल पैरोकार थे। अगर यह सच नहीं होता तो कोशी में नर्मदा से बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया होता। आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि जिस कोशी महासेतु की चर्चा सर्वत्र हो रही है, उसका निर्माण भी सैकड़ों लोगों के विस्थापन की कीमत पर हुआ है। लेकिन पुल के विस्थापितों की आवाज भी उसी तरह दबा दी गयी जैसे साठ के दशक में तटबंध के विस्थापितों की आवाज बंद करा दी गयी थी।
किसी जमाने में अररिया के इस गांव में जमीन के लिए भीषण कपड़-फोड़ी हुई थी और लोगों ने इसका नाम कपड़फोड़ा रख दिया था। आज फिर वहां कपड़-फोड़ी हुई है। इन वर्षों में कोशी में न जाने कितने पानी बह गये, लेकिन गरीबों और वंचितों के कपाल आज भी घायल हैं। कहते हैं कि कपाल पर तकदीर लिखी होती है!