मंगलवार, 27 मार्च 2012

मन न रंगाये जोगी, रंग लेयो कपड़ा



असल बात तो सरकार ही जाने, लेकिन दरबार आने-जाने वाले विश्वस्त दरबारियों का अनुमान है कि बिहार की सौवीं सालगिरह पर यही कोई 15-16 करोड़ रुपये खर्च किये गये हैं। मास भर पहले भी इसी तरह के एक पंच सितरिया भोज-भात पर 4-5 करोड़ रुपये खर्चे गये थे। उसे बिहार ग्लोबल मीट का नाम दिया गया था। सरकारी "माई-बापों'' का कहना है कि यह सब बिहार की खोयी हुई अस्मिता को फिर से प्राप्त करने के लिए किया जा रहा है- टू रीगेन द लॉस्ट प्राइडऑफ बिहार ।
वे "माई-बाप' हैं, देश-दुनिया घूमते-विचरते हैं। बड़े लोगों के साथ खाते-पीते, उठते-बैठते हैं, झूठ थोड़े ही बोलेंगे।  बिहारी अस्मिता प्राप्त करके ही दम लेंगे। भूमि-पूत्रों को छोड़कर देश के तमाम स्वनामधन्य लेखक, संगीतज्ञ, मर्मज्ञों को सम्मानित करेंगे। वे तारीफ करेंगे। प्लेन की दोनों पीठ का मासूल लेंगे और लौट जायेंगे। अपनी अस्मिता दौड़ी चली आयेगी। जो थोड़ी बहुत अस्मिता बची रहेगी, उसे लाने के लिए दिल्ली जायेंगे, बंगलुरु, मॉरीशस, त्रिनिदाद जायेंगे। रोजी-रोटी के लिए जन्म-भूमि छोड़ने वालों से मिलेंगे और कहेंगे अगर आप काम करना बंद कर दें, तो इस शहर/देश का भट्टा बैठ जायेगा। बस, अस्मिता दौड़ी चली आयेगी।
मैं मजाक नहीं कर रहा। अजी, सौवें बरस में कोई मजाक क्या करेगा। मैं रंग में भंग भी नहीं करूंगा। जन्म दिन का मौका है, इसलिए उत्सवी होना हम सब का धर्म है। वैसे मैं नहीं मानता कि हमारा बिहार महज सौ साल का ही है। हम तो मगध से हिसाब लगाने के आदि हैं और अंधेरे में भी नालंदा, विक्रमशीला, पाटलिपुत्र, वैशाली, अशोक, चाणक्य, भिखारी ठाकुर, कुंवर सिंह आदि को देख लेते हैं। लेकिन दिक्कत यह है कि मेरे जैसे लोग पटना से गांव को नहीं देख पाते। गांव से पटना देखने की कोशिश करते रहते हैं। क्योंकि ऊपर से नीचे देखने पर चीजें मनभावन ही लगती हैं। गांव नीचे है, पटना ऊपर।
हमारे जैसे लोगों की सबसे खराब आदत यह है कि हम भोजघरा में भी भनसा घर की युक्ति लगाते हैं। हम गीतहार के सम्मान को लेकर हमेशा चौकन्ने रहते हैं। दुल्हा तो दूसरे गांव से आ जायेगा, लेकिन गीतहारि तो गांव की ही होगी। उसके मान-सम्मान की उपेक्षा हमारी माटी में नहीं है। लेकिन सरकारी उत्सव की फितरत ही कुछ और है। राज्य गीत को एक नहीं पांच बार पढ़ गया। दस-बारह बार सुन गया। मन प्रसन्न हुआ,लेकिन कुछ कमी-सी महसूस हुई। ऐसा लगा जैसे परिवार का कोई महत्वपूर्ण सदस्य अनुपस्थित है। ये क्या ? कोशी-मिथिला निपता। न गौरव गान में, न ही प्रार्थना में, कहीं भी शामिल नहीं किया गया। बड़ा आश्चर्य हुआ कि लोग बिना कोशी और बिन मिथिला के भी बिहार की सांस्कृतिक तस्वीर बनाने की कोशिश कर लेते हैं। न रेणु, न राजकल, न नागार्जुन, न विद्यापति,  न दीना, न भदरी, न कारू खिरहर, न मंडन, न अयाची, न सलहेस। न कोशी, न बागमती। न नवाण्य, न सिरूआ।
अब इन्हें कौन बताये कि कोशी-मिथिलांचल बिहार का गहना है। बिहार की छाती अगर मगध है, तो भोजपुर, कोशी, मिथिलांचल, अंग उसके पैर-हाथ, दिल-दिमाग हैं। कोशी की बाढ़ में जो जिजीविषा सदियों से जिंदा है, उसको आप विदर्भ तो नहीं कहेंगे न ? क्योंकि जीवटता और जिंदादिली का ही दूसरा नाम तो बिहार है। जो गरीबी में भी इंसानियत को बचा ले जाये, जो सदियों के सौतेले व्यवहार के बाद भी फूटानी न झाड़े, उसी तासीर को तो लोग बिहार कहते हैं। वरना बिहार और कांगो-सोमालिया में अंतर ही क्या है? सर्वे देखें, अगर बिहार को एक देश मान लिया जाये, तो यह दुनिया का तीसरा सबसे निर्धन 'देश' होगा।
अचरज है! कोशी-मिथिला को सभी ने हाशिये पर रखा। अब यहां की लगभग दो करोड़ आबादी को बेहद चालाकी से कारागार में डाला जा रहा है। एक ऐसे कारागार में जहां, रोशनदान भी न हो। दावा यह कि अस्मिता जरूर आयेगी। हकारने से अस्मिता आती, तो कब के आ गयी होती । ऐसे ही अवसर पर किसी ने कभी कहा होगा, "मन न रंगाये जोगी रंग लेयो कपड़ा।''
 

राज्य गीत


मेरे भारत के कंठहार

तुझको शत-शत वंदन बिहार

तू वाल्मीकि की रामायण

तू वैशाली का लोकतंत्र

तू बोधिसत्व की करूणा है

तू महावीर का शांतिमंत्र

तू नालंदा का ज्ञानदीप

तू हीं अक्षत चंदन बिहार

तू है अशोक की धर्मध्वजा

तू गुरूगोविंद की वाणी है

तू आर्यभट्ट तू शेरशाह

तू कुंवर सिंह बलिदानी है

तू बापू की है कर्मभूमि

धरती का नंदन वन बिहार

तेरी गौरव गाथा अपूर्व

तू विश्व शांति का अग्रदूत

लौटेगा खोया स्वाभिमान

अब जाग चुके तेरे सपूत

अब तू माथे का विजय तिलक

तू आँखों का अंजन बिहार

तुझको शत-शत वंदन बिहार

मेरे भारत के कंठहार

प्रार्थना


मेरी रफ्तार पे सूरज की किरण नाज करे

ऐसी परवाज दे मालिक कि गगन नाज करे

वो नजर दे कि करूँ कद्र हरेक मजहब की

वो मुहब्बत दे मुझे अमनो अमन नाज करे

मेरी खुशबू से महक जाये ये दुनिया मालिक

मुझको वो फूल बना सारा चमन नाज करे

इल्म कुछ ऐसा दे मैं काम सबों के आऊँ

हौसला ऐसा हीं दे गंग जमन नाज करे

आधे रस्ते पे न रूक जाये मुसाफिर के कदम

शौक मंजिल का हो इतना कि थकन नाज करे

दीप से दीप जलायें कि चमक उठे बिहार

ऐसी खूबी दे ऐ मालिक कि वतन नाज करे

जय बिहार जय बिहार जय जय जय जय बिहार

शनिवार, 3 मार्च 2012

अब तक बहती फगुनाहि


हर भैंसवार जानता है कि तीन तरिया जब पश्चिम में डूब रही होती है, तो "पसर'' का वक्त होता है। पसर यानी सूर्योदय से पहले के धुंधलके में भैंस को चराने के लिए मैदान ले जाने की परंपरा। कोशी अंचल में यह परंपरा सदियों पुरानी है। ठंड हो या बरसात, पसर खोलना ही पड़ेगा। पसर नहीं खोलना , अपशकुन ही नहीं अप्रतिष्ठा का संकेत है। सुबह-सुबह भैंस बथान पर बंधे रह जाने का बहुत उदास अर्थ है। ऐसा तब होता है, जब घर से किसी की अर्थी उठी हो। बावजूद इसके फागुन मास में ऐसा हो जाता। बेचारा भैंसवार भी क्या करे? फागुनाहि हवा होती ही है रसिया। आमों के मंजरियों से निकला मधु रस सांसों में कुछ इस कदर समा जाता है कि आठ बजे दिन तक नींद ही नहीं खुलती। पसर के बेर ससर जाता है, बुढ़िया पूरे घर को सिर पर उठा लेती है । "बज्रखसौना (बज्रपात करने वाला) रे, महींस (भैंस) बथान पर खूंटा तोड़ रही है और तू फोंफ काट रहा है ! ई लो... '' समूची बाल्टी पानी छौड़ा के सिर पर छपाक !!
हालांकि फगुनाहि हवा अब भी चलती है, लेकिन अब ऐसे दृश्य नहीं दिखते। जिसे जितना मन करे, अलसा ले। जब तक मन करे सोते रहे, कोई बुढ़िया सिर पर पानी नहीं उड़ेलेगी। कोई भावी कहने नहीं आयेगी कि "जितना मन करे अलसा लो, होली में हुलिया बदल दूंगी।'' एक जमाना था जब गांव की हर नवकनिया, देवर के रिश्ते में आने वाले नवयुवकों को ऐसी धमकी होली के मास भर पहले से देती रहती थी।
दरअसल, समय ने करवट ले लिया है। हर कुछ एक अजीब किस्म के आलस्य की गिरफ्त में है। देह ही नहीं, रिश्तों के बीच भी आलस्य आ गया है। लोग मजाक करने में अलसा जाते हैं। हाल-चाल पूछने में अलसा जाते हैं। अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने में अलसा जाते हैं। जीवन का मतलब इंस्टैंट हो गया है। जिस बात में निजी हित न हो, वह घोर आलस्य की बात है। इसलिए भर "फागुन बुढ़वा देवर लागे' जैसे संबोधन लगभग लुप्त हो चले हैं।
बावजूद इसके कोशी की होली का मजा ही कुछ और है। दिन भर जोगी रा सरररर, जोगी रा सरररररर। रंग, कीचड़, गोबर फेंकने की बाजी चलती रहती है। किसी को नहीं बख्शा जाता। अनजान राहगीर भी बंधु बन जाते हैं। शाम से ही भंग का दौर शुरू हो जाता है। ढोल-पिपही-हारमोनियम की आवाज अब भी उसी शिद्यत के साथ उभरती है। होली के वे गीत, जो आज तक डाक्यूमेंटेड नहीं हो सके हैं, सुनाई देते हैं। वही संदेश, वही कशिश। प्रेम, सौंदर्य और उन्मुक्तता की प्रतीक। ये गीत कोशी की जिजीविषा, कोशी की ग्राम्य संस्कृति का बखान करते हैं। इन्हें सुनने के बाद मन हुलस जाता है। ये गीत लगातार रंगहीन होती जा रही इस दुनिया को एक दिन के लिए रंगीन बना जाते हैं। यह भी कुछ कम नहीं है। जोगी रा सररररर।