मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

सब खेल है लकीरों का !


दहाये हुए देस का दर्द - 86
पूजा, कबूला और चढ़ावा ! फसल में दाना नहीं आया, तो ग्राम देवता को कबूला। रोग नहीं छूट रहा, तो सिंघेश्वर भगवान को कबूला। बेटा नहीं जनम रहा, तो बाबा वैद्यनाथ को कांवर भरकर जल चढ़ाने का कबूला। बारिश के लिए टोटका, तो बाढ़ नहीं आने के लिए भी टोना-टोटका। चढ़ावा की तो पूछिये ही नहीं, हर भय, हर दहशत, हर शोषण, हर अभिशाप, हर मजबूरी, हर विडंबना के समाधान के लिए तरह-तरह के देवी-देवताओं, पीर, साधु, बाबाओं को चढ़ावा। यह पांच-दस दशक पहले की नहीं, मोबाइल और टेलीविजन क्रांति के दौर की कहानी है। हालांकि यह प्रवृत्ति देश के लगभग सभी हिस्सों में है, लेकिन कोशी का मेहनतकश मासूम समाज आज भी पूरी तरह कबूला-चढ़ावा-टोटका के सहारे ही जीवन की परेशानियों को ढो रहा  हैं। आज भी वे वंचना की विडंबनाओं को हाथ की लकीर में खोजने के लिए विवश हैं। रामेश्वर भगत के गांव में अब तक बिजली नहीं पहुंची है, वे कहते हैं,"हमारे गांव विशनपुर की तकदीर ही खराब है। नसीब वाले हैं दहापट्टी (पड़ोस के गांव) के लोग। उनके गांव में तार लग गये हैं और तार में बिजली भी दौड़ रही है। रात में जब दहापट्टीवाले उजर-उजर बॉल बारते हैं, तो पूरे गांव में दूध जैसा इजोत छितर जाता है।'' हालांकि भगत को मालूम है कि दहापट्टी वालों ने 1000 रुपये हर घर से चंदा जमा कर दो लाख रुपये राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना के ठेकेदार को दिया। उसके बाद ही दहापट्टी में पोल गिरी और तार लगे। फिर भी भगत अपने गांव के अंधेरा को नसीब का खेल मानते हैं।
जिन्होंने दो-तीन दशक पहले के कोशी अंचल को देखा है, वे आज की कोशी को देख चमत्कृत हो जायेंगे। गांवों से गुजरते हुए ऐसा लगता है जैसे इलाके में कोई बड़ी धार्मिक-आध्यात्मिक क्रांति हो गयी हो। बीते वर्षों में इलाके में जमकर मंदिर-मस्जिद बने हैं। यहां तक की गांवों में सड़कें नहीं हैं, बिजली नहीं है, लेकिन मंदिर-मस्जिद जरूर हैं। लोगों के घर आज भी भले ही बांस-फूस के ही हैं, लेकिन मंदिर-मस्जिद की छत पक्की है। दीवार रंगीन और खिड़कियां जालीदार। शाम होते ही गांव धार्मिक अनुष्ठानों के शोर में गांव डूब जाते हैं। बड़े-बड़े लाउड स्पीकर से रामयण पाठ, अष्टयाम,अजान, संकीर्त्तण के स्वर उभरते रहते हैं। इतना ही नहीं, पहले से मौजूद देवी-देवता मानो कम पड़ गये हों, इसलिए कुछ नये देवताओं/पंथ के भी आविष्कार हुए हैं। यह "आध्यात्मिक क्रांति'' हमें अचरज में डालती है।  ऐसा लगता है जैसे यहां का समाज फिर से भक्ति युग में प्रवेश कर गया हो। मन में सवाल उठता है कि कहीं लोग वैरागी तो नहीं हो रहे? लेकिन भ्रम तब  टूट जाता है जब गांव के किसी बुजुर्ग से मिलते हैं। सौ में 90 बुजुर्ग संतान की उपेक्षा से पीड़ित है। बेटे-बहु, पोतों के होते हुए भी 80 साल की वृद्ध महिला अपना चूल्हा खुद सुलगाने के लिए विवश है। हाथ झरका कर बुढिया खाना पकाये या भूखे मरे
। संतानों को कोई फर्क नहीं नयी आध्यात्मिक क्रांति के को तार वृद्धों से नहीं जुटते। लेकिन एक इंच मेड  के लिए लाशें गिर जाती हैं। जो कमजोर और मुंहदुब्बर है, वह अकेला है। हर अवसर पर कमजोर और मुंहदुब्बर का हक सबसे पहले मारा जाता है। न्याय की परंपरागत अवधारणा लगभग दम तोड़ चुकी है। लोग अन्याय के काफिले में शामिल होने का कोई अवसर छोड़ना नहीं चाहते। हां, शाम को मंदिर में घड़ीघंट बजाना कोई नहीं भूलता। शराब और दारू जरूरी पेय हो गया है। कुछ लोग दारू पीकर भजन मंडली में शामिल होते हैं। पूछने पर कहते हैं," अलबत्त आदमी हैं आप जी, पहले भंग पीकर हरि बोल कहते थे न, अब दारू पीकर जय-जय शिवशंकर गा रहे हैं। कौन पाप हो गया !' 
बड़ा  मनमोहक लगता है, जब राष्ट्रीय स्तर के नेता कहते हैं कि पिछले दो-तीन दशकों में देश बहुत बदल गया है। रोटी-रोजगार से शिक्षा के क्षेत्र में देश ने काफी तरक्की की है। सूचना क्रांति गांवों तक पहुंच गयी है। बिहार के नेता एक कदम आगे जाकर कहते हैं, बिहार अब जाग गया है और विकास की पटरी पर सरपट दौड़ रहा है। इन दावों की पोल खोलने वाली रिपोर्ट की कमी नहीं है। जहां राष्ट्रीय नेताओं के पास इस बात के जवाब नहीं है कि बीते दशकों में दस लाख से ज्यादा किसानों ने किस "तरक्की के गम' में आत्महत्या की, वहीं बिहार के सियासतदानों के पास बढ़ते पलायन का जवाब नहीं है। आज भी दूसरे राज्यों की ओर जाने वाली गाड़ी मजदूरों के खेप लगा रही है। पंजाब-दिल्ली-हरियाणा-गुजरात-महाराष्ट्र की ओर जाने वाली गाड़ियों की सीटें कभी खाली नहीं रहतीं।
कोशी के लोग आज भी रोजी-रोटी के लिए पलायन कर रहे हैं। खिचड़ी खाकर बेटा बीमार पड़ता है, तो मोबाइल पर पंजाब-दिल्ली-लुधियाना से फोन आता है,"काली माय के जोड़ा छागर कबूल दो। आसिन (आश्विन) में आयेंगे तें माय को जोड़ा छागर चढ़ायेंगे आउर टोल भर में प्रसाद बांटेंगे।' इंदिरा आवास से लेकर मटिया तेल में कमीशन खाने वाले मुखिया जी, इलेक्शन नजदीक आने पर टोले में मंदिर-मस्जिद की जमीन खोजने लगते हैं। कहते हैं, "एहि बेर जीता दीजिए, आपके टोल में भी भगवान शिव का भव्य मंदिर बनेगा।' बगल में बैठी एक महिला घूंघट से कहती है,"बाढ़ि में हमरा एको नजा पैसा नहीं मिला था, मुखिया जी ?' मुखिया जी जवाब देते हैं,"हे मुनमा के माई, सिघेंश्वर महाराज के शपथ, आब अगर कोशी बांध टूटा तें पूरे टोल में सबसे पहिले तोरे रिलीफ का पैसा मिलेगा। एक बोरा के पूछे, दो बोरा गहुम अगर तुम्हारे द्वार पर नहीं गिराये, तो हमारा नाम बदल दीजियेगा। ई कप्लेशर  यादव की जुबान है।''
"काहे नहीं जीतियेगा- जीतवे कीजिएगा। गांव में एतना काम आज तक कभियो नहीं हुआ। हरदम बरगद के तर में थे ग्राम देवता, आप के परताप से हूआं भी मंदिर बन गिया। शिवघरा में भी काशी के घड़ीघंट तो आप ही ने लगाये। आउर तो आउर, अब तो आपके परताप से हर पंद्रहिया को गाम में लाउड स्पीकर के साथ अष्टजाम भी होने लगा है।''