शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

सुनो तो क्या कहती हैं ये पागल नदियां

दहाये हुए देस का दर्द- ६७
नेपाल स्थित हिमालय से निकलकर बिहार में बहने वाली नदियां बौरा गयी हैं, पगला गयी हैं। ये चीख रही हैं, लेकिन उन्हें तो कोई सुन रहा है, कोई समझने की कोशिश कर रहा है। परिणाम यह है कि ये नदियां पागल हाथी की तरहअपने रास्ते छोड़कर रिहायशी इलाके में दाखिल होकर तांडव मचा रही हैं। हाल में ही अररिया, किशनगंज होकर बहने वाली महानंदा की सहायक नदी बकरा ने अररिया जिले के कुर्साकाटा प्रखंड में राह बदल लिया और पलक झपकते दर्जनों गांव को अपनी चपेट में ले लिया। यही हाल कनकई का भी है । दरअसल पूर्वोत्तर बिहार में कोसी और मेची के सामांतर कम-से-कम 20 छोटी और मध्यम लंबाई की नदियां बहती हैं । ये नदियां कभी बदनाम नहीं थीं , लेकिन नेपाल में जैसे-जैसे जंगल को खत्म किया जा रहा है, वैसे-वैसे ये नदियां खतरनाक होती जा रही हैं।गौरतलब है कि पिछले एक दशक से नेपाल में बड़े पैमाने पर जंगलों की वैध-अवैध कटाई हो रही है। माओवादी इंसर्जेंसी के दौर में इसकी शुरुआत हुई थी, जो अब पाराकाष्ठा पर पहुंच गयी है। जंगलों की सतत कटाई के कारण अब बड़ी तेजी से हिमालय की चट्टान कट-कटकर इन नदियों में समाहित हो रही है। इसके कारण तमाम नदियों में गाद की मात्रा में भारी वृद्धि हुई है। ये गाद नदियों के बेड को ऊंचा कर रही है, जिसके कारण नदियों का प्रवाह बुरी तरह प्रभावित हो रहा है और ये नदियाँ यत्र-तत्र अपने रास्ते से भटक रही हैं । (साल भर पहले मैंने पब्लिक एजेंडा पत्रिकामें इस पर विस्तृत रिपोर्ट लिखी थी, जिसे इस स्टोरी के नीचे लगा रहा हूं। ताकि सनद रहे।)
यही कारण है कि बकरा नदी ने कोशी का इतिहास दोहरा दिया है। कोशी की तरह बकरा ने भी अपनी मुख्य धारा को छोड़ पुराने मार्ग को अपना लिया है। अररिया के कुर्साकाटा और सिकटी प्रखंड की सीमा पर पीरगंज गांव केपास इस नदी ने कुर्साकाटा-सिकटी पथ को तोड़ बीते बुधवार को अपना रास्ता बदल लिया। परिणामस्वरूप दोनों प्रखंडों के लगभग एक दर्जन गांव का अस्तित्व संकट में है। पीरगंज गांव अब इतिहास बनने की ओर अग्रसर है।कटाव के कारण सिकटी प्रखंड का जिला मुख्यालय से सड़क संपर्क भंग हो गया है। बकरा के रास्ता बदल लेने के कारण हजारों एकड़ में लगी जूट धान की फसलें बरबाद हो चुकी हैं। नदी के रास्ता बदलने से सिकटी प्रखंड केडैनिया, खुटहरा, तीरा खारदह, पड़रिया, पिपरा, नेमुआ, पोठिया, रामनगर, बेलबाड़ी, कुर्साकाटा प्रखंड के पीरगंज, मेघा, भूमपोखर तथा पलासी प्रखंड के धर्मगंज, भट्टाबाड़ी, जरिया खाड़ी, छपनिया, काचमोह, कोढ़ेली सहित तीनदर्जन गांवों में बाढ़ का पानी लगातार फैल रहा है। नये रास्ते की तलाश में बकरा का पानी किनारों को छोड़ कर अगल -बगल के खेतों से बहने लगा है।

करे कोई और भरे कोई


नेपाल स्थित हिमालय के जंगलों में वृक्षों की अंधाधुंध कटायी के कारण आने वाले समय में उत्तर बिहार और उत्तर प्रदेश की नदियां और भीषण शक्ल अख्तियार करेंगी। इसके कारण पर्यावरण असंतुलन के साथ-साथ भूकंप और भू-स्खलन के खतरे भी उत्पन्न होंगे। रंजीत की रिपोर्ट


रतवा, कनकई, बूढ़ी कनकई, मउराहां, बकरा, परमान, नूना, लोहंदरा, खुर्राधार, चेंगा, कौल, मेची, गेहूंमा, त्रिशुला, भूतही बलान, बछराजा, करेह, बंगरी, खिरोई, दुधौरा, बुढ़नद आदि-आदि । यह सूची बहुत लंबी है। आम आदमी की बात तो छोड़ें अगर देश के नदी विशेषज्ञों से भी पूछा जाये कि वे इन नामों से परिचित हैं, तो शायद उनमें से अधिकांश कोई जवाब न दे पाये। दरअसल, ये उत्तर बिहार में बहने वाली छोटी-छोटी नदियों के नाम हैं। नेपाल स्थित हिमालय की विभिन्न पर्वत-श़ृंखलाओं से निकलने वाली ये नदियां मुख्य तौर पर महानंदा, कोसी, कमला और गंडक की सहायक नदियां हैं। पांच वर्ष पहले तक इन नदियों से बाढ़ नहीं आती थी। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से ये नदियां भी अपने-अपने तटबंधों को तोड़ रही हैं और उत्तर बिहार में कहर बरपा रही हैं। सबसे चिंताजनक बात तो यह कि बिहार के किशनगंज, कटिहार, पूर्णिया और अररिया जिले से होकर बहने वाली कनकई, रतवा, बकरा, परमान, नूना और मउराहां जैसी भोली-भाली नदियों ने इस बार रौद्र रूप धारण कर लिया है। इसके परिणामरूवरूप सामान्यतया बाढ़ की विभीषिका से मुक्त रहने वाले इलाके भी इस बार भीषण बाढ़ की चपेट में हैं। स्थानीय लोगों को समझ में नहीं आ रहा कि आखिर माजरा क्या है। नदियों के बदले रूप को लेकर वे अचंभित हैं और पूछते फिर रहे हैं कि कल तक दोस्त रहने वाली नदियां अचानक दुश्मन क्यों बन बैठी हैं?
भले ही राज्य और केंद्र की सरकारें इस सवाल पर मौन हो, लेकिन इसका जबाव ढ़ूंढना उतना मुश्किल नहीं है। दरअसल, ये हिमालय के बिगड़ते पर्यावरण का नतीजा है। सबसे हैरत की बात तो यह कि यह कोई प्राकृतिक घटना नहीं, बल्कि मानव निर्मित आपदा है। विस्तृत खोजबीन और अध्ययन से पता चलता है कि पिछले कुछ वर्षों में नेपाल स्थित हिमालय के जंगलों में हो रही वृक्षों की अंधाधुंध कटायी इसकी सबसे बड़ी वजहहै। वृक्षों की कटायी के कारण हिमालय में भू-अपरदन बढ़ रहा है जिसके परिणामस्वरूप उत्तर बिहार की नदियों में गादों की मात्रा में आशातीत वृद्धि हो रही है। इससे नदियों की गहराई तेजी से घट रही है और पानी वहन करने की उनकी क्षमताएं दिनोंदिन कम होती जा रही हैं। कुछ वर्ष पहले तक जो नदियां महीनों की बारिश से भी नहीं उफनती थीं आज हिमालय में होने वाली महज दो दिन की तेज बारिश से ही तटबंधों को तोड़ दे रही हैं। गौरतलब है कि इस बार बिहार में तटबंध टूटने का नया इतिहास रच गया है। इस बार कोसी और गंडक को छोड़कर बिहार की लगभग हर नदियों के तटबंध एक से ज्यादा जगहों पर टूट गये हैं।
वैसे बढ़ते तापमान के कारण हिमालय के हिमनद (ग्लैशियर) और उसके पर्यावरण व पारिस्थितिकी पर मंडरा रहे खतरे को लेकर पहले भी चिंता प्रकट की है। चीन के राष्ट्रीय मौसम विभाग के प्रमुख और अंतरराष्ट्रीय ख्याति के मौसम वैज्ञानिक झेन गुओगुमांग ने दो साल पहले एक अनुसंधान के हवाले से कहा था कि बढ़ते तापमान के कारण हिमालय के ग्लैशियर तेजी से पिघल रहे हैं। इसके कारण हिमालय से निकलकर भारत में बहने वाली नदियों में पहले बाढ़ आयेगी और बाद में ये नदियां सूख जायेंगी। लेकिन हिमालय के जंगलों की कटायी और उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले पर्यावरण और पारिस्थितिकी के संकट की ओर अभी तक ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है, जबकि रिकार्ड बताते हैं कि नेपाल स्थित हिमालय के जंगल हर दिन सिकुड़ रहे हैं। नेपाल सरकार के वन विभाग से मिली सूचना के मुताबिक, वहां जंगल का क्षेत्रफल 270 हेक्टेअर प्रतिदिन की दर से घट रहा है। पिछले 17 वर्षों में वहां जंगल के क्षेत्रफल में 11 लाख 81 हजार हेक्टेअर की कमी हुई है। पिछले चार-पांच वर्षों में जंगल के सफाये की दर में भारी वृद्धि हुई है और यह 2.5 फीसद प्रति वर्ष की रफ्तार से कम हो रहे हैं। वर्ष 2005 से 2007 की अवधि में वहां कुल 7 लाख हेक्टेअर जंगल को खत्म कर दिया गया। इस मसले पर नेपाल के वन विभाग के महानिदेशक कृष्ण चंद्र पौड़ाल ने कुछ समय पहले इस संवाददाता से कहा था, "हिमालय के जंगलों को अवैध तरीके से कब्जा किया जा रहा है और जंगलों में बस्तियां बसायी जा रही हैं। जंगलों पर माफियाओं का कब्जा बढ़ता जा रहा है। वृक्षों की अंधाधुंध कटायी हो रही है और इसे देश-विदेश के बाजारों में बेचा जा रहा है।'
गौरतलब है कि माओवादियों के विद्रोह के दौरान नेपाल के जंगलों से वन विभाग के कार्यालय हटा लिये गये थे। उन दिनों कुल 74 जिला वन कार्यालयों में से 40 को माओवादियों ने ध्वस्त कर दिया था और जंगल के अधिकांश हिस्से सरकार के नियंत्रण से बाहर चले गयेथे। इसके बाद तो नेपाली जंगलों पर सशस्त्र गिरोहों का कब्जा हो गया, जो आज भी जारी है। रौताहाट, कैलाली,बांके, नवलपरासी, कंचनपुर, चुरू, सिरहा, बारा, सप्तरी, मोरंग और सुनसरी जैसे जिले के जंगलों के अधिकांश हिस्से आज भी सरकारी नियंत्रण से बाहर है। पूर्वी नेपाल के एक जिले के वन अधिकारी ने तो यहां तक कहा कि सुनसरी, सप्तरी, मोरंग, कंचनपुर और नवलपरासी, चुरू और दादेलधुरा के 75 प्रतिशत जंगल साफ हो गये हैं। उक्त वन अधिकारी कहते हैं, "नेपाल की लकड़ियां तिब्बत, भूटान, बिहार, उत्तर प्रदेश से लेकर चीन के शहरों तक पहुंच रही हैं। तिब्बत में बनने वाले लगभग हर घर में नेपाल की लकड़ी लग रही है।'
नेपाल में जंगलों की स्थिति किस कदर दयनीय हो गयी है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों वहां वन विभाग के एक विशेषज्ञ दल ने सरकार को सुझाव दिया कि जंगल संरक्षण लिए प्रस्तावित संविधान में प्रावधान किए जाये। दल ने कहा कि सांवैधानिक प्रावधानों द्वारा यह सुनिश्चित हो कि देश के 40 प्रतिशत हिस्से में हमेशा जंगल मौजूद रहे। पिछली मई में रौताहाट के जंगलों में वृक्षों की अंधाधुंध कटायी की जांच नेपाल के तत्कालीन वन मंत्री मात्रिका प्रसाद यादव ने खुद की थी, लेकिन भारी राजनीतिक दबाव के कारण वह कोई कार्रवाई नहीं कर सके। स्थिति यह है कि जंगल माफियाओं को कमोबेश सभी राजनीतिक पार्टियों का समर्थन हासिल है। इस मुद्दे पर फेडरेशन ऑफ कम्युनिटी फारेस्ट यूजरर्स ग्रुप, नेपाल (एफओसीएफजी) के कार्यकारी निदेशक घनश्यमाम पांडेय कहते हैं, "राजनीतिक पार्टियां जंगली जमीन अपने-अपने समर्थकों को खुलेआम बांट रही है। पिछली माओवादी सरकार ने हजारों एकड़ जंगल की जमीन अपने समर्थकों के बीच बांट दी। इससे पहले सन्‌ 2000 में भी तत्कालीन सरकार ने हजारों एकड़ जंगली जमीन अपने समर्थकों को बांटी थी। अब तो यह एक परंपरा-सी हो गयी है कि वोट लेना है, तो जंगल की जमीन का इस्तेमाल करो।'
उल्लेखनीय है कि नेपाल के जंगल, उत्तर बिहार और उत्तर प्रदेश से होकर बहने वाली दर्जनों छोटी-बड़ी नदियों का जल-संग्रहण क्षेत्र हैं। जल-संग्रहण के इन इलाकों से जैसे-जैसे वृक्ष खत्म हो रहे हैं वैसे-वैसे भू-अपरदन की रफ्तार तेज हो रही है। वैसे भी मध्य हिमालय की चट्टान काफी कमजोर और भूरभुरी मिट्टियों वाली है और इसका दक्षिण की ओर तीखा ढलान है। इसका परिणाम यह होता है कि हिमालय की पर्वत श़ृंखलाओं से अपरदित होने वाले खरबों टन बालू, कंकड़, चट्टान, मिट्टी और कीचड़ सीधे-सीधे उत्तर बिहार और उत्तर प्रदेश की नदियों में गिर रहे हैं और नदी की गहराई को कम करते जा रहे हैं।
हालांकि हाल के वर्षों में किसी भी सरकारी या गैर-सरकारी संस्था ने इन नदियों में गादों की बढ़ती दर पर कोई विस्तृत शोध नहीं किया है, लेकिन कई भूगर्भशास्त्रियों और अभियंताओं का मानना है कि इसमें अभूतपूर्व वृद्धि हो रही है। नेपाल के पूर्व जल संसाधन मंत्री और "नेपाल वाटर कंजरवेशन फाउंडेशन' के अध्यक्ष और नामी अभियंता दीपक ग्यावली कहते हैं, "सिर्फ कोसी नदी में प्रति वर्ष लगभग एक हजार लाख घनमीटर गाद जमा हो रही है और हर वर्ष इसकी मात्रा में बढ़ रही है। इसके कारण नदी का तल आसपास के धरातल से औसतन पांच फीट ऊंचा हो गया है।' गौरतलब है कि सन्‌ 1982 में एमएस कृष्णन ने कोसी की गाद पर एक अध्ययन किया था और पाया था कि इसमें प्रति वर्ष 100 लाख घनमीटर गाद जमा हो रही है। इसका अर्थ यह हुआ कि पिछले 26-27 वर्षों में इसमें दस गुना की वृद्धि हुई है। हाल में ही हिमालय से निकलने वाली नदियों की गाद पर आइआइटी कानपुर के भू-विज्ञान विभाग ने एक अनुसंधान किया है। इसके मुताबिक बढ़ती गादों के कारण गंगा नदी दुनिया की सबसे ज्यादा गाद ढोने वाली नदी बनती जा रही है। इसमें प्रति वर्ष 7 हजार 490 लाख टन गाद जमा हो रही है। इसके कारण गंगा की गहराई कम हो रही है और चौड़ाई बढ़ रही है। जाहिर बात है कि गंगा में ये गाद उसकी सहायक नदियों द्वारा ही पहुंच रही हैं। उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ वर्षों में बिहार के मोकाम से लेकर भागलपुर के बीच गंगा के व्यवहार में एक बदलाव देखा जा रहा है। इस पट्टी में गंगा की चौड़ाई लगातार बढ़ रही है और उसके नये-नये प्रवाह-मार्ग विकसित हो रहे हैं। पिछले साल ही इसके कारण खगड़िया और नौगछिया और भागलपुर के पास सैकड़ों गांव नदी में विलीन हो गये थे।
ऐसा नहीं है कि गाद की बढ़ती मात्रा के कारण सिर्फ बाढ़ का ही खतरा है, बल्कि इससे आने वाले समय में भयानक भ-ूगर्भीय और तापमान वृद्धि के खतरे भी उत्पन्न हो सकते हैं। कई भू-गर्भ वैज्ञानिकों का मानना है कि अत्याधिक गाद आने के कारण गंगा के मैदानी इलाके में भू-स्खलन के खतरे उत्पन्न होंगे। स्थलाकृतियों में असंतुलन आयेगा जिससे भूकंप की संभावना बढ़ेगी। सबसे बड़ी बात यह कि हिमालय के सतत्‌ अपरदन के कारण नेपाल, भूटान, उत्तर भारत, तिब्बत और बांग्लादेश के मानसून पैटर्न भी बदल सकते हैं। इस मसले पर रांची विश्वविद्यालय के भूगर्भ शास्त्री नीतीश प्रियदर्शी कहते हैं,"हिमालय के भूगोल और पारिस्थितिकी के बदलाव का असर बहुत व्यापक होगा। इसके कारण बाढ़ से लेकर भू-कंप तक आ सकते हैं और पूरे इलाके भौगोलिक तौर पर अस्थिर हो सकता है।'
यह जानकर आश्चर्य होता है कि जब पूरी दुनिया पर्यावरण असंतुलन और तापमान वृद्धि के खतरे से निपटने के लिए जंगल संरक्षण और वृक्षारोपण अभियान पर जोर दे रही है, तो नेपाल में जंगलों की कटायी चरम पर है। इससे भी हैरत की बात यह कि अभी तक भारत समेत विश्व समुदाय का ध्यान इस ओर नहीं गया है।

' दूरगामी खतरे ज्यादा भीषण होंगे
'

रांची विश्वविद्यालय के भूगर्भ वैज्ञानिक नीतीश प्रियदर्शी ने भू-अपरदन, सेडिमेंटेशन (गादीकरण) और पर्यावरण के विषय पर काफी अनुसंधान किया है। हिमालय में जंगलों की कटायी, सेडिमेंटेशन और भू-अपरदन की समस्या पर "द पब्लिक एजेंडा' के लिए रंजीत ने उनसे लंबी बातचीत की। प्रस्तुत है उसके मुख्य अंशः


सवालः
नेपाल स्थित हिमालय में जंगलों की कटायी, उससे होने वाले भू-अपरदन और हिमालय से निकलने वाली नदियों का आपस में क्या रिश्ता है ?

जवाब- बहुत घनिष्ठ रिश्ता है। लगभग दो करोड़ वर्ष पहले भारतीय भू-खंड और एशियाई भू-खंड के बीच भीषण टक्कर हुई थी जिससे हिमालय पर्वत का निर्माण हुआ। कालांतर में हिमालय की ऊंचाई बढ़ती गयी और इसका ढलान दक्षिण की ओर हो गया, जिससे उत्तर भारत में कई नदियां उत्पन्न हुईं। हिमालय इन नदियों का जल-संग्रहण क्षेत्र है, इसलिए यहां भू-अपरदन और सेडिमेंटेशन का खतरा हमेशा बना रहता है। जंगल के पेड़-पौधे-घास भू-अपरदन को रोकने में मदद करते हैं। यह वैज्ञानिक तौर पर स्थापित तथ्य है। जैसे-जैसे जंगल कम होते जायेंगे वैसे-वैसे नदियों में सेडिमेंट (गाद) की मात्रा बढ़ती जायेगी। इसके कारण नदियां अपने मार्ग बदलेंगी और भीषण बाढ़ लायेंगी। बाढ़ तो तात्कालिक खतरे हैं, इसके दूरगामी खतरे ज्यादा भीषण होंगे। भौगोलिक और भू-गर्भीय संकट भी उत्पन्न हो सकते हैं। इसके अलावा इस इलाके के पर्यावरण और पारिस्थितिकी में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
सवाल- यह पर्यावरण, पारिस्थितिकी और भू-गर्भीय संरचना को कैसे प्रभावित कर सकता है ?
जवाब- हिमालय उत्तर भारत, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और तिब्बत के मानसून और जल चक्र को सीधे नियंत्रित करता है। अगर जंगलों की कटायी होगी तो ये चक्र बाधित होंगे। परिणामस्वरूप इन इलाके का तापमान बढ़ेगा, हिमालय के ग्लैशियर पिघलेंगे और पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी नकारात्मक रूप से प्रभावित होंगे। सेडिमेंटशन के भार के कारण भू-गर्भीय संरचना पर असर पड़ता है। अब तो यह बात साबित हो चुकी है कि भारी सेडिमेंटेेशन के कारण भूकंप भी आ सकते हैं। भू-स्खलन की बात तो प्रमाणित हो चुकी है।
सवाल- सेडिमेंटेशन से भूकंप और भू-स्खलन ?
जवाब : भूगर्भ विज्ञान के नवीनतम अनुसंधान बताते हैं कि भारी सेडिमेंटेशन भूकंप की एक वजह हो सकती है क्योंकि यह पृथ्वी की अंदरूनी संरचना पर अतिरिक्त और असंतुलित दबाव पैदा करता है, जिसके लिए पृथ्वी तैयार नहीं होती। पृथ्वी की अंदरूनी संरचना में आने वाला कोई भी विचलन, भूकंप का कारण बन जाता है। जहां तक भू-स्खलन की बात है तो भू-अपरदन और सेडिमेंटेशन के कारण पृथ्वी पर पहले से मौजूद दरार (फॉल्ट) की चौड़ाई बढ़ती हैऔर अत्याधिक दबाब में आकर भू-खंड टूटकर अलग हो जाते हैं। सभी जानते हैं कि गंगा के मैदानी इलाके में कई दरार मौजूद हैं। हाल में ही नेपाल-किशनगंज की सीमा पर एक नदी में विशाल भू-खंड टूटकर गिर पड़ा जिसके कारण इलाके के कई गांव डूब गये।
सवाल- इससे कैसे निबटा जा सकता है ?
जवाब- जंगलों की कटायी तत्काल बंद करनी होगी और वृक्षारोपण अभियान चलाना होगा। कार्बनडाइआक्साइड गैस के उत्सर्जन में कमी लाकर हिमालय के ग्लैशियर को बचाय जा सकता है। हिमालय की पारिस्थितिकी और पर्यावरण के संरक्षण के लिए भारत और नेपाल को तत्काल संयुक्त कदम उठाना चाहिए।

(साभार - पब्लिक एजेंडा , अगस्त - २००९ )

4 टिप्‍पणियां:

मनोज कुमार ने कहा…

जंगलों की कटायी तत्काल बंद करनी होगी और वृक्षारोपण अभियान चलाना होगा। कार्बनडाइआक्साइड गैस के उत्सर्जन में कमी लाकर हिमालय के ग्लैशियर को बचाय जा सकता है।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सार गर्भीत लेख के द्वारा आपका प्रयास सराहनीय है .... पर कोई समझ नही पा रहा है प्राकृति से खिलवाड़ को .... जब दंड मिलेगा तो सब पछताएँगे .... आपकी चिंता वाजिब है ...

sandhyagupta ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
sandhyagupta ने कहा…

अपनी जड़ें खुद ही काट रहें हैं हम..