रविवार, 17 अप्रैल 2011

समय का सर्कस

टी-शर्ट के आगे
विज्ञापन के पीछे
इंडिया लिख देने से,
सीट पर कुत्ता
डिग्गी में तिरंगा
और इंडिया गेट पर बनभोजी हल्ला से
देश कहां बनता है,
बल्ला "भगवान'' का ही सही
अन्न नहीं उपजाता है
चूंकि हमारे समय में
हंसना-गाना, खेलना-कूदना भी प्रोडक्ट है
इसलिए जहां होना था देश
वहां क्रिकेट है।

बाढ़ आयेगी, भसियाकर चली जायेगी
जीर्ण-शीर्ण जानों को समेटकर सुखाढ़ भी जायेगा
बाकी का काम
बीमारी और महंगाई कर देगी
जंगल में बंदूक
खेतों में खुदकुशी की फसल लहलहाती रहेगी
बच्चे भूख से बिलबिलाएंगे
मां, स्कोर पूछेंगी
क्रिकेट चलता रहेगा...
शाश्वत सच की तरह
पछवा हवा
नकली दवा की तरह,
क्रिकेट चलेगा
तो, बलात्कार की खबरें बंद रहेंगी
और
प्रलय की ओर बढ़ती धरती
फिर से जी उठेगी
एक जोरदार छक्का लगेगा
और
एक संझा चूल्हा, दोनों टाइम जलने लगेगा,

यह उनका दौर है
उन्हीं का मैनेजमेंट
उनकी ही व्याख्या
उनकी ही लूट
और उनकी ही लड़ाई है
वे मुदई
और मुदालय भी हैं
अपना ही आरोप
अपनी ही सुनवाई
उन्हीं का मुकदमा
उन्हीं की गवाही होगी
जिनकी नजरों में
आदमी सिर्फ आबादी है
सवा सौ करोड़ लोग
एक समय वोट, बाकी समय बोट है
और जनता !
हां जनता। आखिरी झूठ है।

यहां, हर कोई गूंगा है
जो बयान दे सकता है
वही वक्ता है
वो भूख के जुर्म में
खेत पर मुकदमा चला सकता है
लूट को
राजनीतिक जरूरत बता सकता है
सेंध-सने हाथ से
नक्कासी
खून-रंगे जीभ से
मल्हार गा सकता है
"मलखा भौंचक्क है ''
नहीं, यह सर्कस नहीं है

1 टिप्पणी:

संजय भास्‍कर ने कहा…

यथार्थमय सुन्दर पोस्ट