मंगलवार, 10 जनवरी 2012

दो बीघा खेत

 सच है
 कि दो बीघा खेत
 नाम नहीं देता
 पहचान नहीं देता
 मैंसन-सा कोई मकान नहीं देता
 लेकिन, दो बीघा खेत
 प्रोडक्ट नहीं बाजार का
 पहचानी हुई पुरानी आवाज है
 आधा हम सुनते हैं
 आधा वह सुनता है
 एक आदिम हमदर्द है
 पहले हम रोते हैं
 बाद में खेत रोता है
 टूटे हुए टाट के भरोसे को देखो
 दो बीघा खेत
 हमारे होने का एहसास है
 चूते खाट पर तनकर लेटने का साहस है

 जब थे दो बीघे खेत
 पंगत में एक पात अपना भी था
 पांव के नीचे गांव था, प्लेटफार्म नहीं

 जब होता है दो बीघा खेत
 कोढ़िया बैल भी प्यारे लगते हैं
 हवा-बसात, पहचानी लगती है
 सूरज में हमारी भी साझेदारी होती है
 रात में कोई निवेश नहीं होता
 सूर्योदय हमारे द्वार भी आता है

 दो बीघा खेत
 हमें खड़ा करता है
 कड़ा करता है
 कि आंच बढ़ती रहे
 हम चटकेंगे नहीं
 साक्षी है इतिहास
 गांधी और मार्क्स
 दो बीघा खेत के बूते
 हम बचा लेंगे देश
 और देश की घास
 जैसे मेमनों ने बचा रखी है शराफत
 लाजवंती ने लाज
 पंछियों ने आकाश

मंगलवार, 3 जनवरी 2012

कोशी की करजैनी


दहाये हुए देस का दर्द-79
हर साल एक जनवरी को करजैनी की याद आ जाती है। करजैनी से क्या कुछ नहीं करते थे हम !  करजैनी के लिए क्या नहीं सहते थे हम ! सांप-बिच्छू की परवाह किये बगैर बांस-बेर-अमती-बबूल की सघन झाड़ियों में गिलहरी की तरह एक झटके में घुस जाते थे हम। हाथ-पांव झरबेर, जलेवी, अमती के कांटों से बुरी तरह घायल हो जाता था। कपड़े फट जाते थे, लेकिन करजैनी पाने का जुनून कुछ ऐसा था कि सारा नुछाड़ (कांटों के घाव) ठेंगे पर! सवाल करजैनी बनाने का था। करजैनी के दाने हमारे लिए किसी रत्न से कम नहीं थे। गिल्ली-डंडे, गोली-गोली  से लेकर तमाम खेलों में हम करजैनी को ही दांव पर लगाते। जिसके पास करजैनी होती, उसे किसी बात की चिंता नहीं। करजैनी दो और किसी भी टोली की सदस्यता पा लो। करजैनी है, तो तुम सेठ हो। हर द्वार तुम्हारे लिए हमेशा खुले हुये हैं। करजैनी नहीं तो फिर तो समझो कि दिन वाम हो गये। बच्चों की टोली में तुम्हारी कोई हैसियत नहीं रही। जिसके पास करजैनी है वह मातवर और जिसके पास नहीं, वह दरिद्र। एक जनवरी को  वनभोज के दिन जब हम शाम को तरह-तरह का खेल खेलते, तो जीतने वालों को करजैनी देनी पड़ती थी। जो नहीं दे पाता, उसकी खैर नहीं। उसे विद्यालय जाते-आते समय जबर्दस्त हूटिंग सहना पड़ता था।
 करजैनी कोशी इलाके की एक जंगली और लत्तीनुमा घास थी। जंगली झाड़ियों में यह अपने-आप उग आती थी। बरसात के बाद इसमें फूल लगते थे। नवंबर में फूल फल में बदल जाते और इन्हीं फलों के बीच होता था- करजैनी का मोतीनुमा बीज। इसी बीज के हम बच्चे दीवाने होते थे। ऐसे लगता था जैसे किसी सिद्ध कलाकार हाथ ने पत्थर की रंगीन मोती पर इत्मीनान से नक्काशी उकेर दिया हो।
गहन छानबीन के बावजूद मैं आज तक नहीं जान सका कि वनस्पति विज्ञान में इसे किस नाम से जाना जाता है। मैं यह भी नहीं जानता कि हिंदी में इसे क्या कहते हैं और कोशी के अलावा कहीं और यह घास उगती है या नहीं। कोशी में भी शायद अब इसका अस्तित्व नहीं है। हालांकि अब करजैनी को खोजने का बाल-जुनून नहीं रहा, लेकिन मैं इसकी खोज करता रहा हूं। जहां कोई झाड़ी (हालांकि अब जंगली झाड़ी कहीं नहीं मिलती) नजर आती है, वहां आंख अनायास करजैनी को खोजने लगती है। पूछने में शर्म आती है, लेकिन जब कभी किसी वृद्ध किसान से बात करने का अवसर मिलता है, करजैनी का अता-पता जरूर पूछ लेता हूं। लेकिन अब तक निराशा ही हाथ लगी है। मेरे सवाल से उन्हें हैरानी होती है, गोया मुझे करजैनी की क्या जरूरत ? गांव के बच्चों से भी पूछताछ की है। उनका जवाब होता है- "यह किसी खिलौने का नाम है क्या चचा जी ? गांव के हाट-बाजार में तो नहीं मिलते। शहर में जरूर मिलता होगा। एक मेरे लिए भी लेते आना न अगली बार! '
दरअसल, हाल के कुछ वर्षों से कोशी इलाके की जैव-विविधता तेजी से घटती जा रही है। कोशी द्वारा हिमालय के हजारों वर्ग किलोमीटर से लाकर लगायी गयीं वनस्पतियां अब इलाके से गायब हो चुकी हैं। यही हाल इलाके के जीवों का भी है। चिडिया, मेंढक, जंगली मछली, कीट-पतंगों की दर्जनों प्रजातियां इलाके से गुम हो चुकी हैं। 20-25 साल पहले जब हम पुराने मेड़ों को काटते-छांटते थे, तो बड़ी संख्या में मिट्टी में रहने वाले जीव मसलन, केंचुआ, केकड़ा, उचड़िन आदि देखने को मिलता था। लेकिन अब केकड़ों का दर्शन भी मुश्किल है। चिड़ियों की कई मनमोहक प्रजातियां गायब हो चुकी हैं। एक चिड़ियां होती थी- मछगिद्धी। यह उद-विलाव की तरह पानी में लंबे समय तक डुबकी लगाती थी और मछली पकड़कर फुर्र से उड़ जाती थी। हम बच्चे इसका तब तक पीछा करते जब तक यह हदे-निगाह से ओझल नहीं हो जाती। एक चिड़ियां होती थी- धोविया। इसकी अपनी विशेषता थी। वैसे तो नीली रंग की इस चिड़िया में सारे गुण पंछियों के ही थे, लेकिन इसका आवास और इसकी प्रजनन-प्रक्रिया अनूठी थी। यह मिट्टी के बड़े टीलों में बील बनाकर रहती और उसी में अंडे देती। बचपन में हमारे बीच इस बात की प्रतियोगिता होती कि कौन कितने धोविया- बील को खोज सकता है।  घोबिया बील के खोजकर्ता हमारी नजरों में किसी कोलंबस और बास्को-डि-गामा से कम नहीं होता।
मुझे नहीं मालूम कि कोशी की जैव-विविधता को लेकर किसी सरकार-संस्था  या एजेंसी ने कोई अनुसंधान किया है अथवा नहीं, लेकिन इस बात में मुझे कोई संदेह नहीं कि हाल के वर्षों में इस इलाके की समृद्ध जैव-विविधता अप्रत्याशित  रफ्तार से घटी है। ठीक उसी तरह जैसे हाल के वर्षों में इस इलाके की बांस-मिट्टी-जूट आधारित शिल्प-कला गुम होती चली जा रही है। जिन लोक-थातियों ने यहां हजारों-लाखों सालों में आकार ली, उनमें से अधिकतर महज कुछ दशकों में ही लुप्त हो गये। आलम यह है कि अगर आप आल्हा-उदल या राजा सलहेस की पूरी कहानी जानना चाहे, तो आपको न तो इसके वाचक मिलेंगे और न ही आपको कोई किताब मिलेगी, जो सटीक जानकारी दे सके। एक जनवरी को बचपन के एक मित्र से जब करजैनी की चर्चा की, तो उसने जवाब दिया,"अरे भाई, हम अगर यही बात किसी से पूछेंगे तो वह हमें बताह (पागल) घोषित कर देगा।''