शनिवार, 3 मार्च 2012

अब तक बहती फगुनाहि


हर भैंसवार जानता है कि तीन तरिया जब पश्चिम में डूब रही होती है, तो "पसर'' का वक्त होता है। पसर यानी सूर्योदय से पहले के धुंधलके में भैंस को चराने के लिए मैदान ले जाने की परंपरा। कोशी अंचल में यह परंपरा सदियों पुरानी है। ठंड हो या बरसात, पसर खोलना ही पड़ेगा। पसर नहीं खोलना , अपशकुन ही नहीं अप्रतिष्ठा का संकेत है। सुबह-सुबह भैंस बथान पर बंधे रह जाने का बहुत उदास अर्थ है। ऐसा तब होता है, जब घर से किसी की अर्थी उठी हो। बावजूद इसके फागुन मास में ऐसा हो जाता। बेचारा भैंसवार भी क्या करे? फागुनाहि हवा होती ही है रसिया। आमों के मंजरियों से निकला मधु रस सांसों में कुछ इस कदर समा जाता है कि आठ बजे दिन तक नींद ही नहीं खुलती। पसर के बेर ससर जाता है, बुढ़िया पूरे घर को सिर पर उठा लेती है । "बज्रखसौना (बज्रपात करने वाला) रे, महींस (भैंस) बथान पर खूंटा तोड़ रही है और तू फोंफ काट रहा है ! ई लो... '' समूची बाल्टी पानी छौड़ा के सिर पर छपाक !!
हालांकि फगुनाहि हवा अब भी चलती है, लेकिन अब ऐसे दृश्य नहीं दिखते। जिसे जितना मन करे, अलसा ले। जब तक मन करे सोते रहे, कोई बुढ़िया सिर पर पानी नहीं उड़ेलेगी। कोई भावी कहने नहीं आयेगी कि "जितना मन करे अलसा लो, होली में हुलिया बदल दूंगी।'' एक जमाना था जब गांव की हर नवकनिया, देवर के रिश्ते में आने वाले नवयुवकों को ऐसी धमकी होली के मास भर पहले से देती रहती थी।
दरअसल, समय ने करवट ले लिया है। हर कुछ एक अजीब किस्म के आलस्य की गिरफ्त में है। देह ही नहीं, रिश्तों के बीच भी आलस्य आ गया है। लोग मजाक करने में अलसा जाते हैं। हाल-चाल पूछने में अलसा जाते हैं। अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने में अलसा जाते हैं। जीवन का मतलब इंस्टैंट हो गया है। जिस बात में निजी हित न हो, वह घोर आलस्य की बात है। इसलिए भर "फागुन बुढ़वा देवर लागे' जैसे संबोधन लगभग लुप्त हो चले हैं।
बावजूद इसके कोशी की होली का मजा ही कुछ और है। दिन भर जोगी रा सरररर, जोगी रा सरररररर। रंग, कीचड़, गोबर फेंकने की बाजी चलती रहती है। किसी को नहीं बख्शा जाता। अनजान राहगीर भी बंधु बन जाते हैं। शाम से ही भंग का दौर शुरू हो जाता है। ढोल-पिपही-हारमोनियम की आवाज अब भी उसी शिद्यत के साथ उभरती है। होली के वे गीत, जो आज तक डाक्यूमेंटेड नहीं हो सके हैं, सुनाई देते हैं। वही संदेश, वही कशिश। प्रेम, सौंदर्य और उन्मुक्तता की प्रतीक। ये गीत कोशी की जिजीविषा, कोशी की ग्राम्य संस्कृति का बखान करते हैं। इन्हें सुनने के बाद मन हुलस जाता है। ये गीत लगातार रंगहीन होती जा रही इस दुनिया को एक दिन के लिए रंगीन बना जाते हैं। यह भी कुछ कम नहीं है। जोगी रा सररररर।

7 टिप्‍पणियां:

Arvind Mishra ने कहा…

स र र र र र र ......

pankajbooks.blogspot.in ने कहा…

i am proud of your DEHATIPAN

रंजीत/ Ranjit ने कहा…

your greatness. Thanks Pankaj jee

mamanjee ने कहा…

badd nik ranjit ji. apne ke rachna ke desipana, apnaiti aa lagbhag luptpray bhel shabd ke bharpur prayog ekra anmol bana dait achhi.

sararara................

रंजीत/ Ranjit ने कहा…

Aabhar bandhubar Mamanjee.

आशीष "अंशुमाली" ने कहा…

अच्‍छा लगा पढ़कर।

आशीष "अंशुमाली" ने कहा…

अच्‍छा लगा..