बुधवार, 28 अप्रैल 2010

फिर कांग्रेस के जाल में शिबू

झारखंड के राजनीतिक संकट पर त्वरित टिप्पणी
मुख्यमंत्री की कुर्सी को अपनी पुश्तैनी संपत्ति समझने की गलतफहमी के शिकार शिबू सोरेन एक बार फिर कांग्रेस के जाल में फंस गये हैं। उनकी स्थिति " शिकारी आयेगा, जाल बिछायेगा, दाना डालेगा, लोभ से उसमें फंसना नहीं...' का जाप करने वाले तोते के समान हो गयी है। जिस तरह कहावती तोता "शिकारी आयेगा... ' का जप करते-करते शिकारी के जाल में फंस गया था, ठीक उसी तरह शिबू सोरेन भी "कांग्रेस धोखेबाज है, कांग्रेसी धोखेबाजी की राजनीति करते हैं... ' का मंत्र जपते-जपते उनके बिछाये हुए जाल में फंसकर अपने प्राण से प्रिय मुख्यमंत्री की कुर्सी से बेदखल होने की स्थिति में पहुंच गये हैं। हैरत की बात यह कि वह पहले भी इस जाल में दो बार फंस चुके हैं, लेकि सबक लेना उनकी फितरत में नहीं है । उनकी स्थिति कुमहार के बैल की तरह है जो हर उस आदमी के पीछे हो लेता है , जिसके हाथ में मिट्टी लगी हो।
गठबंधन धर्म के उल्लंघन के आरोप में भाजपा ने उनकी सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया है और शिबू सोरेन की चार महीने की अल्पवय सरकार अल्पमत में आ गयी है। फिलहाल, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में समर्थन वापसी की इस घटना का ताबड़तोड़ पोस्टमार्टम हो रहा है और झारखंड की आगे की राजनीतिक स्थिति को लेकर तरह-तरह के कयास लगाये जा रहे हैं। लेकिन सच यह है कि यह खेल अंदर खेला जा चुका है। कुछ भी अचानक नहीं हुआ है। न ही शिबू सोरेन ने तैश में आकर संसद में कांग्रेस के पक्ष में मत दिया और न ही भाजपा ने इसके प्रतिशोध में समर्थन वापसी का ऐलान किया। बल्कि शिबू सोरेन और कांग्रेस के बीच दो सप्ताह पहले ही सब-कुछ तय हो गया था। यह नौबत तब बनी जब भाजपा ने साफ-साफ कह दिया कि वह शिबू के बेटे हेमंत सोरेन को किसी भी कीमत पर नेता नहीं मानेंगे। जबकि शिबू को यह विश्वास हो चला था कि अब उनके विधायक चुने जाने की संभावना समाप्त हो चुकी है क्योंकि लाख कोशिश के बावजूद वे अपने पसंद की विधानसभा सीट को खाली नहीं करा पाये। चूंकि वे पिछले चार महीने से गैरविधायक मुख्यमंत्री हैं, इसलिए संवैधानिक बाध्यता के कारण अगले दो महीने में उनका सत्ता से हटना लगभग तय था। इसलिए मुख्यमंत्री की कुर्सी को बचाने और सत्ता को अपने आंगन में बनाये रखने के लिए उन्होंने दूसरा रास्ता तलाशना शुरू कर दिया। उधर कांग्रेस तो पहले से घात लगाकर बैठी ही थी, जैसे ही उसे लगा कि शिबू सोरेन निरूपाय हो चले हैं, उसने तुरंत अपना जाल फेंक दिया। सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, कांग्रेस ने शिबू को एक नायाब सत्ता-पैकेज का ऑफर दिया है। इसके तहत शिबू को केंद्र में मंत्री बनाने के आश्वासन के साथ उनसे कहा गया है कि वे झामुमो, कांग्रेस, बाबूलाल मरांडी के झारखंड विकास मोर्चा के साथ गठबंधन कर नयी सरकार बनाने के लिए रास्ता तैयार करे। जाहिर है शिबू को इस पैकेज में उम्मीद की नयी किरण दिखायी दी। वे यह मानकर चल रहे हैं कि इस समीकरण के सहारे वह खुद तो केंद्र में मंत्री बनेंगे ही साथ-साथ मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भी अपने बेटे या किसी कठपुतली विधायक को बैठाने में कामयाब हो जायेंगे।
लेकिन चीजें जितना आसान शिबू को दिख रही हैं, उतना आसान हैं नहीं। पहली दिक्कत तो यह है कि सत्ता के इस बेशर्म खेल में बाबू लाल मरांडी आसानी से शामिल होंगे नहीं। शिबू सोरेन और कांग्रेस ऐसे बेशर्म खेल तो कई बार खेल चुके हैं, लेकिन बाबूलाल मरांडी की पहचान इनसे बिल्कुल भिन्न है। एक तो बाबूलाल मरांडी हमेशा से मर्यादा की राजनीति में विश्वास करते रहे हैं, दूसरी उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि कांग्रेस और झामुमो के इस सत्ता नोच प्रतियोगिता में शामिल होते ही, उनकी छवि रसातल में चली जायेगी। चूंकि बाबूलाल दूर की सोचते हैं, इसलिए इस बात की संभावना बहुत कम है कि वे इस पैकेज को स्वीकार करें। ऐसी स्थिति में दूसरी सूरत यह बनती है कि कांग्रेस और झामुमो मध्यावधि चुनाव से बचने का हवाला देकर बाबूलाल का बाहर से समर्थन प्राप्त कर ले। अगर ऐसा हुआ, तो भी यह तय है कि तोड़-जोड़ से बनने वाली अगली सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगी। और अंततः राष्ट्रपति शासन के हालात उत्पन्न हो जायेंगे, जो कांग्रेस की असल मंशा है। कांग्रेस चाहती है कि जनता में यह मैसेज जाये कि कांग्रेस ही इस प्रदेश में एक स्थायी सरकार दे सकती है।
कुल मिलाकर स्थिति यह है कि झारखंड एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता के दुश्चक्र में फंस गया है और फिलहाल इससे मुक्ति का कोई संकेत कहीं नहीं दिख रहा। समझ में नहीं आता कि इसे बहुदलीय लोकतंत्र की विडंबना कहें या फिर सत्ताई राजनीति का फलसफा।

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

कविता की जरूरत

जब

देश और दातुन का फर्क मालूम न चले

जीवन का मतलब दीमक हो जाये

और किसी पेड़ के नीचे

सायास पता लगे कि

बंदूक

, गोली, बारूद से ज्यादा डरपोक कुछ नहीं

तो

कविता मजबूरी हो जाती है

जब

हम नहीं कह पाये रस्सी को सांप

गांव की उस निर्दोष बेवा को बांझ

सुबह को सांझ और किनारे को मांझ

तो

कविता मजबूरी हो जाती है

जब

हर खबर पहले से सुनी हुई लगे

प्रेम और टेस्टासटेरॉन समानार्थी हो जाये

तो कविता मजबूरी हो जाती है

तो कविता ही एक जगह बचती है

कुछ कहने के लिए

कुछ सुनने के लिए

कुछ समझने के लिए

रोने

-गाने और चिल्लाने के लिए

मर जाने या मार देने के लिए

+

कविता मेरा भ्रम नहीं

कविता मेरा श्रम नहीं

लिखने के लिए भी नहीं

और छपने के लिए भी नहीं

++

कविता

काजल की कोठरी में बेदाग की तलाश है

निरर्थक शोर के बीच अर्थ का प्रयास है

खामोशी तोड़ने का आखिरी औजार है

मां की मनाही

और प्रेमिका की हां है

कविता

आखिरी सांस तक मानव बने रहने की जिद है

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

बिल में रहने की मजबूरी


बिहार के अररिया ज़िले के एक गॉंव के आदिवासी पिछले 13 अप्रैल को आए तूफ़ान के बाद क़ब्रनुमा घरों में जिंदगी गुज़ार रहे हैं.ये आदिवासी तूफ़ान से इतने डरे हुए हैं कि वे अपनी ध्वस्त झोंपड़ियों के बाहर छह फुट लंबे, चार फुट चौड़े और चार फुट गहरे क़ब्रनुमा घरों को सुरक्षित मान रहे हैं.कुसियार ग्राम पंचायत के संथाली टोला के संथाल जनजातियों ने अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ इन क़बनुमा घरों का आविष्कार किया है.स्थानीय लोग इन घरों को 'बिल' कहते हैं.

तूफ़ान का डर

'बिल' में तमाम कठिनाइयों के बाद भी उन्हें इस बात का विश्वास है कि अगर फिर तूफ़ान आया तो उनके परिवार के सदस्यों को जान नहीं गंवानी पड़ेगी . तूफ़ान में कुसियार गॉंव प्रखंड में 10-12 लोगों की मौत हो गई थी, जबकि अररिया समेत पूर्णिया, सुपौल, किशनगंज, कटिहार आदि ज़िलों में मरने वालों की संख्या इससे कहीं बहुत अधिक थी. संथाली टोला के बैजनाथ मुर्मु और हप्पनमये किस्कू बताते हैं, ' हमारे पास इसके अलावा कोई रास्ता नहीं था. शुरू के दो तीन दिन हमने खुले आसमान के नीचे गुज़ारे. इस दौरान भीषण गर्मी ने हमें इन बिलों को बनाने को प्रेरित किया.' "हम हर दिन इस दहशत में जी रहे हैं कि फिर कोई जानलेवा तूफ़ान कभी भी आ सकता है. ऐसे में हमारे लिए ' बिल' से सुरक्षित कोई जगह नहीं हो सकती है. उन्होंने कहा', हम हर दिन इस दहशत में जी रहे हैं कि फिर कोई जानलेवा तूफ़ान कभी भी आ सकता है. ऐसे में हमारे लिए इससे सुरक्षित कोई जगह नहीं हो सकती'.अररिया ज़िला नेपाल की सीमा से सटा हुआ है. यह बिहार के सबसे पिछड़े इलाक़ों में से एक है.कुसियार गॉंव राष्ट्रीय राज्यमार्ग से तीन किलोमीटर की दूरी पर है. वहॉं पहुँचने के लिए इंसान और जानवरों के पैरों के निशान ही रास्ता बताते हैं.बिहार का शोक कही जाने वाली कोसी नदी की एक सहायक नदी के किनारे बसे इस गॉंव में बरसात के दिनों में नाव से ही पहुँचा जा सकता है. संथाली टोला में जनजातियों के क़रीब साठ परिवार आबाद हैं. इन लोगों ने अपने लिए 10-12 बिल बनाए हैं. इन बिलों में वे अपने बच्चों के साथ बकरियों को भी रखते हैं. जोजों टुड्डू और बोढ़न हांसदा के बच्चे भूख और गर्मी से बीमार हो गए हैं. उन्हें प्रशासन की ओर से अबतक न तो दवा मिली है और न ही खाने को अनाज.

मुश्किल ज़िंदगी

जोजों कहते हैं

, "हम भुखमरी के शिकार हैं आँधी ने हमारे चॉंपाकलों (हैंडपंप) को भी तहस-नहस कर दिया है. इससे अब पानी का इंतजाम भी बहुत मुश्किल से होता है.'उन्होंने कहा, "सरकार से न तो हमें अब तक कोई रहत सामग्री नहीं मिली है.गॉंव के प्रधान लक्ष्मी ऋषिदेव बताते हैं, "हमें आश्चर्य है कि सरकार की घोषणाओं के बाद भी स्थानीय प्रशासन ने हमारे गॉंव की अबतक सुध नहीं ली है. अब लोग उग्र होते जा रहे हैं.' इस संबंध में प्रशासन का अपना तर्क है. प्रखंड विकास अधिकारी नागेंद्र पासवान कहते हैं कि अभी नुक़सान का सर्वेक्षण हो रहा है.वहीं सर्कल इंस्पेक्टर अमरनाथ सिंह कहते हैं कि उन्हें अगले तीन दिन में सर्वेक्षण ख़त्म कर के राहत सामग्री वितरित की जाए.उन्होंने बताया कि वे लोग भी अपने लिए राहत सामग्री मांग रहे हैं जिनका कुछ नुक़सान भी नहीं हुआ है.गॉंव के प्रधान कहते हैं कि उन्हें अबतक राहत सामग्री का इंतज़ार है. उन्होंने बताया कि अभी तक कोई भी पदाधिकारी हमे देखने तक नहीं आया है तो धांधली का सवाल ही कहॉं है.संथाली जनजातियों का यह टोला सरकारी जमीन पर 50 साल पहले ही आबाद हुआ था. उनके पूर्वज रोज़गार की तलाश में यहॉं आए थे.

(बीबीसी हिंदी डॉट कॉम से साभार)


रविवार, 11 अप्रैल 2010

जनता दरबार

मैं गया "जनता दरबार''

पाया मैंने राज दरबार

मैं गया "जनता दरबार''

पाया मैंने "एक अने मार्ग''

मैं गया "जनता दरबार'

देखी मैंने महंगी कार

लेकर जो आये थे फरियाद

छोड़कर सारा घर और बार

बैठे थे कोने में लाचार

++

देर शाम को लौटै हम

सोचे ज्यादा बोले कम

मानो मुफ्त में नाटक देख आये हम

(5 अप्रैल को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जनता दरबार से लौटकर)

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

घटवर्णी !


घटवर्णी, घटवर्णी, घटवर्णी


घाट-घाट पर घटवर्णी


बाट-बाट पर घटवर्णी


ओजस्वी जुबान में


विद्रोही बयान में


न बात न विरोध


केवल मादक-मोहिनी


घटवर्णी,घटवर्णी,घटवर्णी


कभी हाथ जोड़े आते हैं


कभी बंदूक ताने आते हैं


कभी सेवा-सेवा जपते हैं


न्याय-न्याय भी रटते हैं


सत्ता -पैसा मिल जावे तो


गंगा भी वैतरणी


घटवर्णी,घटवर्णी,घटवर्णी

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

बांध और बागमती


A Padyatra : 2nd April to 6th April 2010

The Bagmati is regarded as one of the holiest rivers of India but of
late this river has become a target of the vested interests who have
started making hay while the sun shines.
This river was embanked for the first time in late 1960s in its lower
reaches with a hope that such a work will protect the areas of
Darbhanga, Samastipur and Khagaria districts against recurring
floods. That was never to be. The river kept on breaching the
embankments or else the people living along the river kept on cutting
the embankments as a routine as the water logging caused by the
embankments had made their life miserable. Local production processes
came to a standstill and the people were forced to migrate to other
places in search of employment. It is hard to find a place to stand on
the platforms of the railway stations of Darbhanga or Khagaria. due to
migrant's exodus.
These embankments were extended in Sitamarhi district in upper reaches
in the 1970s and that brought nearly 95 villages within them who had
to be relocated. Only 68 villages have been provided with
rehabilitation so far and the rest 27 are still in waiting list. They
are living either within the embankments, on the embankment or along
the 20 feet wide strip of land along the embankments. They are still
waiting for relocation despite thirty years of completion of the
project. Those relocated were not paid the cost of construction of the
new house but just a paltry sum of money to move their belongings.
There was no question of land for land as that much of land was not
available at all. They are expected to cultivate their land within the
embankments. This land often gets eroded or gets sand cast and
virtually no agriculture is possible there. Loitering in search of
employment and getting humiliated all over the country is their fate.
As if that were not sufficient, effluents of two sugar mills are
discharged into the river, one from the Rauthat district in Nepal and
the other, the Riga Sugar Mill in Sitamarhi. A local MLA, Pt. Damodar
Jha had raised a question in the Bihar Vidhan Sabha about the
pollution caused by the Riga Sugar Mill way back in 1955 and the
government had promised that within a year , ie by 1956, everything
will be brought under control. That has not happened so far.
Governments have come and gone but the plight of the people never


improved. Nearly 9,000 hectares of land remains not only waterlogged
round the year but the pollution caused by the river water has caused
all sorts of health hazards there. The area is now known as Kala Pani.
The government has started raising and strengthening these embankments
almost all over the state and the Bagmati too has fallen prey to this
spree. The adverse results of this effort would be visible in years to
come because there is no likelihood of reduction in the quantity of
water and silt in the river nor there is any possibility lowering of
the river bed because of such sediments. This will add to seepage
through the embankments and the water logging will rise in future.
Then, no embankment has been constructed so far in anywhere in the
world that would not breach. Higher and stronger the embankments,
greater would be the vulnerability of the people to flood disaster.
Barh Mukti Abhiyan - Bihar, Jal Jamav Virodhee Sangharsh Samiti -
Saran, Gaon Vikas Manch - Sitramarhi, Sitamarhi Lok Sewa Sansthan -
Sitamarhi, Sitasmarhi Samaj Shodh Sansthan -Sitamarhi, Kartavya Sewa
Sangha -Awapur, Kshitij - Sonbarsa, National Council Of Social
Welfare- Bakhar, and Shyam Jan Sewa Bharti - Sonakhan have organized a
padyatra that will start from Bhanaspatti in Sitamarhi ( 28th
Kilometer from Muzaffarpur on the Muzaffarpur Sitamarhi Road) on the
2nd April 2010 and will end up in Basbhitta near Dheng bridge on the
6th April 20101 to highlight the issues faced by the people of the
basin. All are invited.