गठबंधन धर्म के उल्लंघन के आरोप में भाजपा ने उनकी सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया है और शिबू सोरेन की चार महीने की अल्पवय सरकार अल्पमत में आ गयी है। फिलहाल, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में समर्थन वापसी की इस घटना का ताबड़तोड़ पोस्टमार्टम हो रहा है और झारखंड की आगे की राजनीतिक स्थिति को लेकर तरह-तरह के कयास लगाये जा रहे हैं। लेकिन सच यह है कि यह खेल अंदर खेला जा चुका है। कुछ भी अचानक नहीं हुआ है। न ही शिबू सोरेन ने तैश में आकर संसद में कांग्रेस के पक्ष में मत दिया और न ही भाजपा ने इसके प्रतिशोध में समर्थन वापसी का ऐलान किया। बल्कि शिबू सोरेन और कांग्रेस के बीच दो सप्ताह पहले ही सब-कुछ तय हो गया था। यह नौबत तब बनी जब भाजपा ने साफ-साफ कह दिया कि वह शिबू के बेटे हेमंत सोरेन को किसी भी कीमत पर नेता नहीं मानेंगे। जबकि शिबू को यह विश्वास हो चला था कि अब उनके विधायक चुने जाने की संभावना समाप्त हो चुकी है क्योंकि लाख कोशिश के बावजूद वे अपने पसंद की विधानसभा सीट को खाली नहीं करा पाये। चूंकि वे पिछले चार महीने से गैरविधायक मुख्यमंत्री हैं, इसलिए संवैधानिक बाध्यता के कारण अगले दो महीने में उनका सत्ता से हटना लगभग तय था। इसलिए मुख्यमंत्री की कुर्सी को बचाने और सत्ता को अपने आंगन में बनाये रखने के लिए उन्होंने दूसरा रास्ता तलाशना शुरू कर दिया। उधर कांग्रेस तो पहले से घात लगाकर बैठी ही थी, जैसे ही उसे लगा कि शिबू सोरेन निरूपाय हो चले हैं, उसने तुरंत अपना जाल फेंक दिया। सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, कांग्रेस ने शिबू को एक नायाब सत्ता-पैकेज का ऑफर दिया है। इसके तहत शिबू को केंद्र में मंत्री बनाने के आश्वासन के साथ उनसे कहा गया है कि वे झामुमो, कांग्रेस, बाबूलाल मरांडी के झारखंड विकास मोर्चा के साथ गठबंधन कर नयी सरकार बनाने के लिए रास्ता तैयार करे। जाहिर है शिबू को इस पैकेज में उम्मीद की नयी किरण दिखायी दी। वे यह मानकर चल रहे हैं कि इस समीकरण के सहारे वह खुद तो केंद्र में मंत्री बनेंगे ही साथ-साथ मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भी अपने बेटे या किसी कठपुतली विधायक को बैठाने में कामयाब हो जायेंगे।
लेकिन चीजें जितना आसान शिबू को दिख रही हैं, उतना आसान हैं नहीं। पहली दिक्कत तो यह है कि सत्ता के इस बेशर्म खेल में बाबू लाल मरांडी आसानी से शामिल होंगे नहीं। शिबू सोरेन और कांग्रेस ऐसे बेशर्म खेल तो कई बार खेल चुके हैं, लेकिन बाबूलाल मरांडी की पहचान इनसे बिल्कुल भिन्न है। एक तो बाबूलाल मरांडी हमेशा से मर्यादा की राजनीति में विश्वास करते रहे हैं, दूसरी उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि कांग्रेस और झामुमो के इस सत्ता नोच प्रतियोगिता में शामिल होते ही, उनकी छवि रसातल में चली जायेगी। चूंकि बाबूलाल दूर की सोचते हैं, इसलिए इस बात की संभावना बहुत कम है कि वे इस पैकेज को स्वीकार करें। ऐसी स्थिति में दूसरी सूरत यह बनती है कि कांग्रेस और झामुमो मध्यावधि चुनाव से बचने का हवाला देकर बाबूलाल का बाहर से समर्थन प्राप्त कर ले। अगर ऐसा हुआ, तो भी यह तय है कि तोड़-जोड़ से बनने वाली अगली सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगी। और अंततः राष्ट्रपति शासन के हालात उत्पन्न हो जायेंगे, जो कांग्रेस की असल मंशा है। कांग्रेस चाहती है कि जनता में यह मैसेज जाये कि कांग्रेस ही इस प्रदेश में एक स्थायी सरकार दे सकती है।
कुल मिलाकर स्थिति यह है कि झारखंड एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता के दुश्चक्र में फंस गया है और फिलहाल इससे मुक्ति का कोई संकेत कहीं नहीं दिख रहा। समझ में नहीं आता कि इसे बहुदलीय लोकतंत्र की विडंबना कहें या फिर सत्ताई राजनीति का फलसफा।