दहाये हुए देश का दर्द-66
यह जैविक सच है कि अगर आदमी जिंदा है, तो इसका मतलब है कि उसके अंदर दिल धड़क रहा है। शायद यह सिद्धांत राजनेताओं पर लागू नहीं होता। अगर लागू होता, तो त्रासदी पर भी राजनीति करते वक्त उनकी आंखें झुक जातीं। इन दिनों कोशी की त्रासदी पर बिहार में बेशर्म राजनीति हो रही है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (जिन्हें प्रगतिशील और वस्तुनिष्ठ राजनेता कहा जाता है) ने दो साल पहले गुजरात से आयी बाढ़-राहत की राशि लौटा दी है। नीतीश का कहना है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के उलाहने के कारण उन्होंने यह कदम उठाया। बकौल नीतीश,"नरेंद्र मोदी के उलाहने से कोशी के लोगों के स्वाभिमान को ठेस पहुंचा है, इसलिए वे यह राशि वापस कर रहे हैं।' अगर निरपेक्ष दृष्टि से देखें, तो नीतीश के बयान का एक-एक शब्द गलत है। कोशी क्षेत्र के स्थायी नागरिक होने के नाते मैं इस बात का दावा कर सकता हूं कि मोदी के बयान से कोशी के एक भी आदमी को न तो दुख पहुंचा है और न ही उस विवादास्पद विज्ञापन की इबारत को वे उलाहना मानते हैं, जिसमें गुजरात-बिहार और बाढ़ की बात की गयी थी। जहां तक बाढ़ की मदद-राशि लौटाने की बात है, तो यह इसलिए भी गलत है कि सरकारी राशि किसी मुख्यमंत्री की निजी मिल्कियत नहीं होती। मोदी ने अपने वेतन की राशि मदद में नहीं दी थी, वह गुजरात के आम लोगों का धन था और नीतीश द्वारा वापस की गयी राशि भी बिहार की जनता की है। इसलिए प्रकांतर से नीतीश के आचरण से गुजरात के लोगों को जरूर दुख पहुंचा होगा।
लेकिन नीतीश कुमार प्रकरण की गहराई में जाना ही नहीं चाहते। यह कहना भी उचित नहीं होगा कि वे प्रकरण को समझ नहीं रहे हैं। दरअसल, मामले को वे अनावश्यक रूप से राजनीतिक रंग दे रहे हैं। राजनीतिक मुहावरे में इसे वोट बैंक की राजनीति कहते हैं। नीतीश को लगता है कि रुपये लौटाने से कोशी के लोग उनकी सारी असफलता और टूटे वादे को भूल जायेंगे और भावुकता में आकर कहेंगे कि "देखो अपने मुख्यमंत्री को हम लोगों के मान-सम्मान-स्वाभिमान कि कितनी फिक्र है कि एक उलाहने पर उन्होंने उसके पैसे उसके मुंह पर मार दिये।' लेकिन यह नीतीश की राजनीतिक-सोच का दुर्भाग्य है कि कोशी के लोग न तो ऐसा कुछ सोच रहे हैं और न ही बोल रहे हैं। उल्टे वे इसे मददगारों की तौहीन मान रहे हैं। तभी तो सहरसा के कचहरी चौक पर एक युवक कह रहा था, "अलबत्त आदमी है जी, बाढ़ के साथ भी तीन तसिया खेलना चाहता है।' इसकी वजह यह है कि कोशी के भुक्तभोगियों को मालूम है कि बाढ़ के वक्त पूरे देश के लोगों ने उनकी जो मदद की थी, उसे सदियों तक याद रखा जायेगा। क्योंकि बाढ़ के वक्त देश के कोने-कोने के सामाजिक कार्यकर्ताओं, व्यवसायियों, डॉक्टरों, स्वयंसेवकों ने जी-जान हाथ में लेकर पीड़ितों की मदद की थी। एक पत्रकार के रूप में मैं जानता हूं कि शायद ही ऐसा कोई प्रखंड होगा, जहां गुजरात के अन्न, वस्त्र, पैसे आदि नहीं पहुंचे होंगे। यह बात अलग है कि उन दिनों राज्य की प्रशासनिक मशीनरी मदद-सामग्रियों के समुचित वितरण में भी असफल रही थी।
दरअसल, नीतीश कुमार ने मोदी पर हमला कर एक लाठी से दो सांप मारने की कोशिश की है। चूंकि आगामी महीने में राज्य में चुनाव होने वाले हैं, इसलिए उन्होंने ये स्वांग रचा। नीतीश के थिंक टैंक को लगता है कि नरेंद्र मोदी की आलोचना करते ही बिहार के सारे अल्पसंख्यक वोट उनकी ओर आ जायेंगे। और पैसा लौटाते ही कोशी के लोग त्रासदी को भूलकर जद यू की ओर दौड़ पड़ेंगे। लेकिन सच यह नहीं है। वैसे यह अलग बात है कि कोशी के लोग ऐतिहासिक कारणों से कांग्रेस और राजद से दूर जा चुके हैं और आगामी चुनाव में भी उनका समर्थन जदयू-भाजपा को ही मिलने वाला है। लेकिन उन्हें कोशी को वोट बैंक बनाने की कोशिश नागवार गुजरी है।
यह जैविक सच है कि अगर आदमी जिंदा है, तो इसका मतलब है कि उसके अंदर दिल धड़क रहा है। शायद यह सिद्धांत राजनेताओं पर लागू नहीं होता। अगर लागू होता, तो त्रासदी पर भी राजनीति करते वक्त उनकी आंखें झुक जातीं। इन दिनों कोशी की त्रासदी पर बिहार में बेशर्म राजनीति हो रही है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (जिन्हें प्रगतिशील और वस्तुनिष्ठ राजनेता कहा जाता है) ने दो साल पहले गुजरात से आयी बाढ़-राहत की राशि लौटा दी है। नीतीश का कहना है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के उलाहने के कारण उन्होंने यह कदम उठाया। बकौल नीतीश,"नरेंद्र मोदी के उलाहने से कोशी के लोगों के स्वाभिमान को ठेस पहुंचा है, इसलिए वे यह राशि वापस कर रहे हैं।' अगर निरपेक्ष दृष्टि से देखें, तो नीतीश के बयान का एक-एक शब्द गलत है। कोशी क्षेत्र के स्थायी नागरिक होने के नाते मैं इस बात का दावा कर सकता हूं कि मोदी के बयान से कोशी के एक भी आदमी को न तो दुख पहुंचा है और न ही उस विवादास्पद विज्ञापन की इबारत को वे उलाहना मानते हैं, जिसमें गुजरात-बिहार और बाढ़ की बात की गयी थी। जहां तक बाढ़ की मदद-राशि लौटाने की बात है, तो यह इसलिए भी गलत है कि सरकारी राशि किसी मुख्यमंत्री की निजी मिल्कियत नहीं होती। मोदी ने अपने वेतन की राशि मदद में नहीं दी थी, वह गुजरात के आम लोगों का धन था और नीतीश द्वारा वापस की गयी राशि भी बिहार की जनता की है। इसलिए प्रकांतर से नीतीश के आचरण से गुजरात के लोगों को जरूर दुख पहुंचा होगा।
लेकिन नीतीश कुमार प्रकरण की गहराई में जाना ही नहीं चाहते। यह कहना भी उचित नहीं होगा कि वे प्रकरण को समझ नहीं रहे हैं। दरअसल, मामले को वे अनावश्यक रूप से राजनीतिक रंग दे रहे हैं। राजनीतिक मुहावरे में इसे वोट बैंक की राजनीति कहते हैं। नीतीश को लगता है कि रुपये लौटाने से कोशी के लोग उनकी सारी असफलता और टूटे वादे को भूल जायेंगे और भावुकता में आकर कहेंगे कि "देखो अपने मुख्यमंत्री को हम लोगों के मान-सम्मान-स्वाभिमान कि कितनी फिक्र है कि एक उलाहने पर उन्होंने उसके पैसे उसके मुंह पर मार दिये।' लेकिन यह नीतीश की राजनीतिक-सोच का दुर्भाग्य है कि कोशी के लोग न तो ऐसा कुछ सोच रहे हैं और न ही बोल रहे हैं। उल्टे वे इसे मददगारों की तौहीन मान रहे हैं। तभी तो सहरसा के कचहरी चौक पर एक युवक कह रहा था, "अलबत्त आदमी है जी, बाढ़ के साथ भी तीन तसिया खेलना चाहता है।' इसकी वजह यह है कि कोशी के भुक्तभोगियों को मालूम है कि बाढ़ के वक्त पूरे देश के लोगों ने उनकी जो मदद की थी, उसे सदियों तक याद रखा जायेगा। क्योंकि बाढ़ के वक्त देश के कोने-कोने के सामाजिक कार्यकर्ताओं, व्यवसायियों, डॉक्टरों, स्वयंसेवकों ने जी-जान हाथ में लेकर पीड़ितों की मदद की थी। एक पत्रकार के रूप में मैं जानता हूं कि शायद ही ऐसा कोई प्रखंड होगा, जहां गुजरात के अन्न, वस्त्र, पैसे आदि नहीं पहुंचे होंगे। यह बात अलग है कि उन दिनों राज्य की प्रशासनिक मशीनरी मदद-सामग्रियों के समुचित वितरण में भी असफल रही थी।
दरअसल, नीतीश कुमार ने मोदी पर हमला कर एक लाठी से दो सांप मारने की कोशिश की है। चूंकि आगामी महीने में राज्य में चुनाव होने वाले हैं, इसलिए उन्होंने ये स्वांग रचा। नीतीश के थिंक टैंक को लगता है कि नरेंद्र मोदी की आलोचना करते ही बिहार के सारे अल्पसंख्यक वोट उनकी ओर आ जायेंगे। और पैसा लौटाते ही कोशी के लोग त्रासदी को भूलकर जद यू की ओर दौड़ पड़ेंगे। लेकिन सच यह नहीं है। वैसे यह अलग बात है कि कोशी के लोग ऐतिहासिक कारणों से कांग्रेस और राजद से दूर जा चुके हैं और आगामी चुनाव में भी उनका समर्थन जदयू-भाजपा को ही मिलने वाला है। लेकिन उन्हें कोशी को वोट बैंक बनाने की कोशिश नागवार गुजरी है।
6 टिप्पणियां:
नीतीश की इस समय की हरकतों से लगता है कि वे इस घमंड से चूर हैं कि बिहार में जीत उनके हाथ में है। लेकिन आज भी अगर भाजपा अलग हो जाती है तो नीतीश के साथ जातीय गणित नहीं रह जाएगी और बिहार में किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलेगा। कांग्रेस यही घात लगाए बैठी है और वह शीबू सोरेन की ही तर्ज पर नीतीश को भी पैदल कर देना चाहती है। कांग्रेस की नजर पूरी तरह से हिंदी भाषी इलाकों में पूर्ण बहुमत पाने की है, जिससे केंद्र में उसे मजबूती मिल सके। वह उप्र और बिहार में किसी की बैशाखी नहीं चाहती, इसका साफ उदाहरण है कि उसने मुलायम और लालू से दूरियां बना ली है। अब बिहार में कांग्रेस का थोड़ा आधार तभी बनेगा, जब वहां कथित उच्च जातियों का वोट कांग्रेस की ओर आए। ऐसा तभी होगा, जब नीतीश और भाजपा अलग हों और ये दोनों कमजोर पड़ें।
अपने देश की समस्या ही यही है ... हर बात को राजनीति के चश्मे से देखा जाता है ... नेता भी ऐसा करते हैं और जनता भी यही करती है .... लोगों की परवा कोई नही करता ....
Nitish ji is taking wrong decisions due to his insecurity .
A help in crisis can never be returned.
He is making a mountain out of a mole.
"अलबत्त आदमी है जी, बाढ़ के साथ भी तीन तसिया खेलना चाहता है।'
Jo hua wah dukhad hai.kuch chijon ko rajniti se dur hi rakha jaye to achcha.
यही तो मुसीबत है जी, नेता लोग केवल वोट जानते हैं...इससे उनका गैर ज़िम्मेदार होने का सबूत मिलता है !
कोसी?????? अरे भोपाल गैस त्रासदी तक को नहीं बख्शा दोस्त!
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