एक के बाद एक दो मातृशोक ! पहले लतिका और अब शशिकांता। दोनों चली गयीं। अगर रेणु का रचना-संसार अच्छिंजल (कुएं का पवित्र जल) है, तो लतिका हमारे लिए एक उघन (कुआं से पानी निकालने वाली रस्सी, जिसे कोशी अंचल में उघन कहा जाता है) थी। लेकिन वे पिछले दिनों हमसे सदा के लिए जुदा हो गयीं। लतिका जी के जाने से एक विरॉट शून्य पैदा हो गया और मेरे जैसे लोगों की बहुत-सारी जिज्ञाशाएं भी सदा के लिए दफ्न हो गयीं। लतिका जी, रेणु के लेखन की गवाह ही नहीं, बल्कि रचना-प्रक्रिया की हिस्सा भी थी। रेणु जी की लेखन-प्रेरणा के मर्म तक जाने के लिए लतिका जी सबसे बड़ा उघन थी। यह हमारी नाबालकी है कि हम कभी-कभी माटी की देह पर जरूरत से ज्यादा भरोसा कर लेते हैं। देह को जाना ही है, चाहे वह रेणु की हो या फिर लतिका की । लो दोनों चली गयीं।
पर यह क्या ? शशिकांता जी भी नहीं रहीं!
अभी लतिकाशोक से कोशी के लोग उबरे भी नहीं थे कि उन्हें दोहरा आघात लगा है। खबर मिली है कि परसों कोशी के दूसरे सबसे बड़े कलमकार राजकमल चौधरी की धर्मपत्नी शशिकांता जी का भी देहावसान हो गया । शनिवार की सुबह गाजियाबाद में शशिकांता जी ने हम सबको अलविदा कह दिया।
लतिका जी और शशिकांता जी की मौत अस्वाभाविक नहीं है। दोनों भरा-पूरा परिवार छोड़ गयी है। लतिका ने 86 वर्ष तक देह का धर्म निभाया, जबकि शशिकांता जी 80 की हो चली थी। बावजूद इसके मन इन खबरों को स्वीकार करना नहीं चाहता। मन कहता है, अभी वे नहीं मर सकतीं। उन्हें अभी हमारे बहुत-सारे सवालों का जवाब देना है। आखिर लतिका ही तो बतायेगी कि रेणु जी को "डॉक्टर प्रशांत' कहां मिले थे। उन्होंने परती की परिकथा में "जीतेंद्र' को कैसे खोजा था। उन्हें बताना था, कई सारी आदिम रात्रि की महक। और "मछली मरी हुई' के बारे में शशिकांता से बेहतर कौन बता सकता था, हमें ? कोई नहीं ? अब इन सवालों के जवाब कभी नहीं मिलेंगे। इन जवाबों तक पहुंचने का आखिरी रास्ता शून्य में गुम हो गया है। संतोष यह कि इन दोनों माताओं ने अपने-अपने पति के साथ मिलकर कोशी की पीड़ा को हरने में हमेशा उनका साथ दिया। लतिका नहीं होती, तो "तीसरी कसम' भी न होती और शशिकांता के बिना "राज का कमल' कभी नहीं खिलता। कोशी की इन महान मांओं को शत-शत प्रणाम। नश्वरते कौन ?
पर यह क्या ? शशिकांता जी भी नहीं रहीं!
अभी लतिकाशोक से कोशी के लोग उबरे भी नहीं थे कि उन्हें दोहरा आघात लगा है। खबर मिली है कि परसों कोशी के दूसरे सबसे बड़े कलमकार राजकमल चौधरी की धर्मपत्नी शशिकांता जी का भी देहावसान हो गया । शनिवार की सुबह गाजियाबाद में शशिकांता जी ने हम सबको अलविदा कह दिया।
लतिका जी और शशिकांता जी की मौत अस्वाभाविक नहीं है। दोनों भरा-पूरा परिवार छोड़ गयी है। लतिका ने 86 वर्ष तक देह का धर्म निभाया, जबकि शशिकांता जी 80 की हो चली थी। बावजूद इसके मन इन खबरों को स्वीकार करना नहीं चाहता। मन कहता है, अभी वे नहीं मर सकतीं। उन्हें अभी हमारे बहुत-सारे सवालों का जवाब देना है। आखिर लतिका ही तो बतायेगी कि रेणु जी को "डॉक्टर प्रशांत' कहां मिले थे। उन्होंने परती की परिकथा में "जीतेंद्र' को कैसे खोजा था। उन्हें बताना था, कई सारी आदिम रात्रि की महक। और "मछली मरी हुई' के बारे में शशिकांता से बेहतर कौन बता सकता था, हमें ? कोई नहीं ? अब इन सवालों के जवाब कभी नहीं मिलेंगे। इन जवाबों तक पहुंचने का आखिरी रास्ता शून्य में गुम हो गया है। संतोष यह कि इन दोनों माताओं ने अपने-अपने पति के साथ मिलकर कोशी की पीड़ा को हरने में हमेशा उनका साथ दिया। लतिका नहीं होती, तो "तीसरी कसम' भी न होती और शशिकांता के बिना "राज का कमल' कभी नहीं खिलता। कोशी की इन महान मांओं को शत-शत प्रणाम। नश्वरते कौन ?