मंगलवार, 1 मार्च 2011

फैज साहेब आपने ठीक कहा था- तख्त गिर रहे हैं, ताज भी उछल रहे हैं और हम देख भी पा रहे हैं। जय हो क्रांति कवि ! जन्मशती पर बार-बार नमन।

हम देखेंगे

जब जुल्मो-सितम के कोहे-गरां
...रूई की तरह उड़ जाएंगे
हम महकूमों के पांव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहले-हिकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी

जब अर्ज़े-खुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएंगे
हम अहले-सफा मर्दूदे-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख्त गिराए जाएंगे

बस नाम रहेग अल्लाह का
जो गायब भी है, हाज़िर भी
जो मंज़र भी है, नाज़िर भी
उठ्ठेगा अनलहक़ का नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज़ करेगी खल्क़े-खुदा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो

शब्दार्थः
अहले-सफा pure people; अनलहक़ I am Truth, I am God. Sufi Mansoor was hanged for saying it; अज़ल eternity, beginning (opp abad); खल्क़ the people, mankind, creation; लौह a tablet, a board, a plank; महकूम a subject, a subordinate; मंज़र spectacle, a scene, a view; मर्दूद rejected, excluded, abandoned, outcast; नाज़िर spectator, reader

1 टिप्पणी:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

फैज़ साहब ज़माने की नब्ज़ पहचान्ते थे ... गज़ब का लिख गए हैं जो आज भी सार्थक है .....