केंद्र सरकार का मनरेगा और राज्य सरकार का विकास का मोहक नारा के बीच बिहार में मजदूर दिवस के क्या मायने हैं। रोजी-रोटी के लिए परदेस की यात्रा और पलायन की पीड़ा। यही बिहार के कामगारों की गाथा है। पहले भी थी और आज भी है। हिंदी दैनिक राष्ट्रीय सहारा के पटना संस्करण में प्रकाशित यह रिपोर्ट भले ही आपको दाल-भात में मूसलचंद लगे, लेकिन सच्चाई यही है।- रंजीत
दीपिका झा/एसएनबी पटना। कोशी की धार हर साल सैकड़ों गांव और असबाब ही अपने साथ बहाकर नहीं ले जाती बल्कि ले जाती है वो हजारों हाथ जो बिहार को आकार देते हैं। वर्ष 2011 के अंत में सामाजिक कार्यकर्ता मधु चंद्रा ने अपने अध्ययन में पाया कि पिछले पांच साल में इन राज्यों से पलायन पांच गुना बढ़ा है। उनके मुताबिक उत्तर-पूर्वी राज्यों से अगले पांच साल में पचास लाख मजदूर अन्य राज्यों की ओर पलायन कर सकते हैं। महानिर्वाण कलकत्ता रिसर्च ग्रुप ने अपने अध्ययन में बताया है कि सहरसा, मधेपुरा और सुपौल सर्वाधिक पलायन करने वाले जिलों में हैं। इनमें भी दलित और महादलितों का पलायन ज्यादा है। 2003 में किये गये एक सव्रे के मुताबिक राज्य में पलायन 28 फीसद से बढ़कर 49 फीसद तक पहुंच गया था। सरकारी दावा : पलायन में 30 फीसद कमी हालांकि राज्य सरकार की सितम्बर 2011 में आई एक रिपोर्ट में बताया गया कि बिहार से अन्य प्रदेशों में पलायन करने वाले मजदूरों की संख्या में 30 फीसद तक की कमी आई है। काम की तलाश में दिल्ली और अन्य राज्यों में जाने वाले जिलों सहरसा, कटिहार, पूर्णिया और
बिहार-यूपी से एक मिलियन बच्चों का पलायन, इनमें 5-14 वर्ष के 3 बच्चे बिहार इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के मुताबिक दो करो ड़ बिहारी हैं अप्रवासी मजदूर 1834 में राज्य से शुरू हुआ पलायन का दौर अब भी जारी है 1980 तक पंजाब व हरियाणा बिहारी श्रमिकों के लिए सबसे माकूल स्थान 1990 के बाद दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों में होने लगा पलायन महाराष्ट्र , पंजाब, असम और गोवा जैसे राज्यों में हुए बिहारियों पर अत्याचार पिछले दस साल में बिहारी अप्रवासी श्रमिकों में एचआईवी का प्रसार ज्यादा कानून में जगह पलायन करने वाले मजदूरों के हित के लिए देश में अंतरराज्यीय अप्रवासी कामगार एक्ट, 1979 लागू राज्य सरकार के बीस सूत्री कार्यक्रम में अप्रवासी मजदूरों के लिए कल्याण योजना को दी गई जगह हर 49 महिलाओं वाले निर्माण स्थलों पर बच्चों की देखभाल के लिए क्रेश की सुविधा अनिवार्य है काम के दौरान घायल होने पर अप्रवासी कामगार को एक लाख का अनुदान देने की सरकार की घोषणा बिहार और झारखंड सरकार ने अप्रवासी मजदूरों को स्मार्ट कार्ड देने की योजना पर करार किया है
शिवसागर रामगुलाम को कौन नहीं जानता। रोजगार के लिए बिहार से पलायन कर सुदूर देश जाने वाले इस मजदूर ने अपने जैसे हजारों कामगारों की मदद से जो मुकाम हासिल किया उसे हम मॉरीशस के नाम से जानते हैं। 1961 से 1982 तक इस देश के प्रधानमंत्री रहे रामगुलाम आज बिहार के गौरव हैं तो मॉरीशस बिहारियों का बनाया हुआ स्वर्ग। लेकिन पलायन की यह सुनहरी कहानी आज बदरंग हो गई है। पलायन अब हर पल की यातना बन चुकी है। हमारा राज्य उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश के उस क्लब में शामिल हो गया है जहां से सबसे ज्यादा मजदूर दूसरे प्रदेशों में काम के लिए पलायन करते हैं और जो सबसे ज्यादा दुश्कर तथा अपमानजनक परिस्थितियों में गुजारा करते हैं।
शेख ने कहा, ैएीइस तरह की अपुष्ट खबरें हैं कि चिकित्सकों ने सरबजीत को दिमागी तौर पर मृत घोषित कर दिया है और दलबीर कौर का भारत लौटना इसी से जुड़ा हो सकता है।ैए"
मधुबनी से लिए गए आंकड़ों के आधार पर श्रम विभाग, एएन सिन्हा इंस्टीच्यूट और कुछ एनजीओ द्वारा कराये गये सव्रे में बताया गया है कि बिहार से बाहर जाने वाले मजदूरों की संख्या में उल्लेखनीय कमी होने के कारण लुधियाना की साइकिल फैक्टरियों में उत्पादन पर जबर्दस्त असर पड़ा है। लुधियाना में साइकिल बनाने की 5000 से ज्यादा छोटी-बड़ी कंपनियां हैं जिनमें पचास फीसद से ज्यादा बिहारी कामगार काम करते हैं। अध्ययन में बताया गया कि बिहार में काम करने की बेहतर परिस्थितियों और सड़क एवं अन्य निर्माण कायरे में तेजी आने के कारण अब लोग काम की तलाश में बाहरी राज्यों में जाने को तरजीह नहीं देते। खासकर मनरेगा के कारण मजदूरों को काम की गारंटी मिलने के कारण पलायन में कमी आई है। मंत्रालय नहीं मानता दावे को लेकिन यह राज्य सरकार का दावा है। केंद्रीय मंत्रालय और खुद पंजाब सरकार ऐसा नहीं मानती। जून, 2012 में केंद्रीय श्रम मंत्रालय ने माना कि मनरेगा का पंजाब और लुधियाना में बिहारियों के पलायन पर कोई खास असर नहीं पड़ा और न ही इन राज्यों में आप्रवासी मजदूरों की संख्या में कमी आई है। हालांकि पंजाब सरकार के पास अप्रवासियों का कोई आंकड़ा नहीं है लेकिन चंडीगढ़ का सेंटर ऑफ रिसर्च फॉर रूरल एंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट में अर्थशास्त्री रंजीत सिंह गुमान के मुताबिक 2012 में भी राज्य में आठ लाख से ज्यादा अप्रवासी मजदूर आए। इसका मतलब है बिहार से पलायन में कोई खास कमी नहीं आई है। इसका कारण मनरेगा के तहत औसतन केवल 38 दिन काम मिलना है जबकि प्रावधान के मुताबिक मजदूरों को 100 दिन रोजगार की गारंटी दी गई है। ऐसे में बाकी दिनों के लिए दूसरे राज्यों की ओर रुख करना मजबूरी है। मुसलमानों में अधिक है दर इसके अलावा आद्री और बिहार राज्य अल्पसंख्यक आयोग के एक अध्ययन में पाया गया कि राज्य के गया, औरंगाबाद, वैशाली और दरभंगा में मुसलमानों का पलायन अधिक है। अध्ययन के मुताबिक हर तीन मुस्लिम परिवारों में दो सदस्य बेहतर रोजगार के लिए बाहर के प्रदेशों में हैं। इनमें भी सीवान और गोपालगंज के 40 फीसद लोग खाड़ी देशों में काम कर रहे हैं। ज्यादा काम, कम आराम अपने लोगों को छोड़ कर अनजान लोगों के बीच जाकर काम करना कितना मुश्किल होता है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि निर्माण कायरे में लगे दंपतियों के 78 फीसद बच्चों को पहले छह महीने तक मां का दूध नहीं मिल पाता है जबकि 70 फीसद बच्चों का जरूरी पोषण और नियमित टीकाकरण नहीं हो पाता। इस काम में लगी संस्था ैएीडिस्टेंस माइग्रेशनैए" ने कहा है कि कम पैसा, ज्यादा काम और कम आराम के बीच अपनी जिंदगी किसी तरह काटने वाले इन लोगों को अत्यंत सीमित साधनों और अपमानजनक हालातों से गुजरना पड़ता है। महिलाओं और बच्चियों को तस्करी और यौन शोषण से गुजरना पड़ता है तो वहीं पुरुष अक्सर एचआईवी जैसे जानलेवा रोगों की चपेट में आ जाते हैं। एक बड़ी अफसोसजनक बात यह है कि नाबालिग और छोटे बच्चों के पलायन का ट्रेंड बढ़ा है। अपने परिवार के लिए ज्यादा पैसा जुटाने की ललक में बच्चों को घर-बार छुड़ाकर बड़े शहरों में भेजा जाता है जहां कुपोषण और शोषण उनके लिए तैयार रहते हैं। हालांकि कई शहरों में मोबाइल क्रेश की शुरुआत की गई है लेकिन मजदूरों की इतनी बड़ी संख्या के सामने ये क्रेश नाकाफी हैं। कंस्ट्रक्शन कंपनियों की दादागिरी दो साल पहले बेंगलुरू से भाग कर आये छत्तीसगढ़ के मजदूरों ने जो दास्तान सुनाई वो निर्माण कंपनियों की दादागिरी दिखाने के लिए काफी है। मजदूरों को हर दिन 157 रुपये मजदूरी देने के वादे के साथ काम पर लगाया गया था लेकिन उन्हें मिलते थे हफ्ते में केवल 50 रुपये। प्रताड़ना और शोषण की ये कहानी सुनकर कानूनगारों के होश उड़ गये। देश का कानून विभिन्न श्रम कानूनों के तहत आप्रवासी मजदूरों के अधिकारों की रक्षा करता है। 1979 के एक्ट के मुताबिक हर निर्माण कंपनी को किसी अप्रवासी मजदूर को काम पर रखने के लिए लाइसेंस लेना जरूरी होता है। साथ ही पांच से अधिक राज्यों के मजदूरों को काम पर रखने के लिए कानून के तहत पंजीकरण करवाना भी अनिवार्य है। मगर दिसंबर 2011 की स्टैंडिंग कमेटी की 23वीं रिपोर्ट के मुताबिक देश में केवल 285 लाइसेंसी और 240 पंजीकृत कंपनियां हैं। जाहिर है मजदूरों को सर्वाधिक रोजगार देने वाले निर्माण क्षेत्र का यह आंकड़ा बेहद चिंताजनक है। क्या कहता है कानून देश में अंतरराज्यीय अप्रवासी कामगार एक्ट 1979 लागू है लेकिन उसका पालन भी रामभरोसे ही है। कानून कहता है कि जहां भी 49 से ज्यादा महिला कामगार कार्यरत होंगी वहां नियोक्ता को क्रेश की व्यवस्था करनी होगी लेकिन इक्का-दुक्का उदाहरणों को छोड़कर कहीं क्रेश नहीं दिखाई देता। राज्य में नीतीश सरकार ने अपने बीस सूत्री कार्यक्रम में आप्रवासी मजदूरों के कल्याण को भी शामिल किया है लेकिन इसका अभी तक पूरी तरह से क्रियान्वयन नहीं किया जा सका है। राज्य में एक लाभ जो ऐसे श्रमिकों को मिला है वो है काम के दौरान घायल होने पर एक लाख का मुआवजा। बाकी के प्रावधान कंपनियां और सरकारें कब तक लागू करती हैं यह देखना होगा।
(साभार- राष्ट्रीय सहारा)
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