(बेचारगी की इंतिहा- सिमराही-प्रतापगंज सड़क- NH 57 पर किसी फरिश्ता का इंतजार करता एक बेघर वृद्ध )
दहाये हुए देस का दर्द -4
रंजीत
बेटे को अच्छे कॉलेज में दाखिला दिलाने का सपना देख रहा था। बेटी तेरह वर्ष की हो गयी है, उसकी पढ़ाई आैर शादी के लिए बड़े-बड़े ख्वाब देख रहा था। इस बार धान की फसल बहुत अच्छी थी। चालीस-पचास हजार की आमदनी की उम्मीद लगाये हुए था। बीच में दो-तीन महीने के लिए गुजरात चला जाता आैर वहां से भी दस-बीस हजार कमाकर ले ही आता। मेरे सारे सपने पूरे हो जाते। लेकिन हाय रे भाग! एक दिन में ही भिखारी बनने पर विवश कर दिया है, लेकिन दुर्भाग्य यह कि आत्मस्वाभिमान भीख भी मांगने नहीं देगा। घर के सारे कपड़े पानी में बह गये। पांच दिन से बीवि-बच्चे एक ही कपड़े में है। न रहने के लिए घर है आैर न खाने के लिए अन्न। आगे क्या होगा ??? अंधेरा, अंधेरा, ... घोर अंधेरा !!!
सुपाैल के राघोपुर रेलवे स्टेशन पर मेरे साथ बाढ़ स्पेशल ट्रेन में सवार हुए उस व्यिक्त ने एक घंटे के सफर में पहली बार अपनी जुबान खोली थी। उसकी मानसिक िस्थति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उपरोक्त दास्तां उसने किससे कही यह डब्बे में सवार किसी भी व्यिक्त को मालूम नहीं हो सका। एक क्षण के लिए मुझे लगा कि जैसे उसने मुझे संबोधित की है, लेकिन जब मैंने उसके चेहरे की ओर देखा तो जाना कि उसे मेरी उपिस्थति का जैसे कोई संज्ञान ही न हो। दरअसल वह किसी से भी मुखातिब नहीं था। उपरोक्त आपबयानी उसका एकालाप था। डॉक्टर लोग कहते हैं कि वेदना के गहरे सागर में डूबा व्यिक्त को देश-काल-पात्र का ज्ञान नहीं रहता। वेदना उसे इतना तड़पाती-तरसाती है कि व्यिक्त रह-रहकर चेतनाशून्य हो जाता है। कुछ देर के बाद मैंने किसी तरह उससे संवाद-संबंध बना लिया। उसका नाम अमरेश झा है आैर कोसी प्रलय से पहले तक उसका पता - ग्राम विशनपुर, प्रखंड- बसंतपुर, जिला- अररिया, बिहार हुआ करता था। फिलहाल वह एक शरणार्थी है, घर छूटने के सात िदन बाद तक उसे कहीं शरण नहीं मिल पाया था। सरकार कहती है कि उसने पर्याप्त राहत शिविर बना लिये हैं। मैं कहता हूं- हा- हा- हा.. .
जिला मुख्यालय के चंद शिविरों के सिवा सरकार ने कहीं भी कोई शिविर नहीं लगाया है। पीड़ितों ने खुद अपने हताश हाथों से सैकड़ों जगह हजारों झुग्गियां बनाई है, हां स्थानीय लोग दिलो-जान से उनकी मदद कर रहे हैं। लेकिन यह अपर्याप्त है। अगर राहत शिविरों की सच्चाई जाननी हो तो सुपाैल के प्रतापगंज-सिमराही सड़क पर चले जाइये। उस सड़क पर कम से कम पचास हजार आदमी शरण लिए हुए हैं। सात अगस्त को मैं उन लोगों के बीच था। लेकिन मुझे दूरदराज क्षेत्रों में कहीं कोई सरकारी शिविर नहीं नजर आया। आसपास के जो लोग इन पीड़ितों के लिए खाने-पीने की जुगाड़ कर रहे हैं, उनके संसाधन धीरे-धीरे खत्म हो रहे हैं। पीड़ित मांगकर लाये गये बांस आैर संठी (जूट का तना) आैर फूस से झुग्गी बनाकर किसी तरह उसमें सिर छुपा रहे हैं। ये झुग्गियां ऐसी हैं कि सुख के दिनों में इनमें सूअर भी रहने से इनकार कर दे। प्रतापगंज-सिमराही सड़क पर दुअनिया पूल के पास एक जगह पांच-छह युवक गर्म हो रहे हैं। वे कहते हैं विजेंद्र यादव (जल संसाधन मंत्री, बिहार सरकार) मिल जाय तो उसकी खाल उतारकर चील-गिद्ध को खिला दूंगा। मैंने हस्तक्षेप किया- कि भेलै, किया गरमाय रहलिए ये अहां सब ? सभी युवक एक क्षण के लिए खामोश हो जाते हैं। उसके बाद एक स्वर उभरता है- कुछो नै भाईजी, हमर सबके तकदीर में जे लिखल रहै ओकरा के बांटते ? दूसरा कहता है- अगर जिंदा रैह गेलये ते चुइन-चुइन के गोली माइर देवे - ई मादर... बहान.. . सब के ... मेरा दिल कहता है - एक आैर नार्थइस्ट का जन्म...
सुपाैल-वीरपुर सड़क के समदा चाैक से एक सड़क सीधे 22 आरडी, बड़ी नहर तक जाती है आैर नहर के 22 आरडी स्थित पश्चिमी महार को कोसी नहीं तोड़ सकी। इसको आसपास के ग्रामीणों ने बचा लिया, जिससे राघोपुर, किशनपुर आैर करजाईन बाजार प्रखंड के तीन लाख लोग कहर से बच गये। लेकिन इस नहर के बगल एक मैदान में नहर के पूर्वी इलाकों के गांवों से हजारों लोग शरण लिए हुए हैं। एक 18-20 वर्ष की युवती की आंख रो-रोकर इतना सूख गयी है कि जैसे महीने भर से उनकी आंखों ने नींद नहीं देखी हो। वह अपने मां-बाप,चाचा-चाची, भाई-बहन को खोज रही है जो पता नहीं जिंदा भी हैं कि नहीं। लड़की बहुत डरी हुई थी और उसके चेहरे की भयानकता से मैं भी भयभीत हो गया। जवान लड़की, बिना मां-बाप और समाज के ? वहीं पर बगल में भूख से बिलबिलाते एक आठ वर्ष के बच्चे को जब मैंने बििस्कट दी, तो उसने उसे इस तरह झपटा जैसे लड़के को बििस्कट नहीं कुबेर का खजाना मिल गया हो।
बलुआ बाजार के बगल में बड़ी नहर पर एक शानदार शामियाना लगा हुआ है। उसमें अच्छे कपड़े में एक पूरा परिवार आराम कर रहा है। वे सभी संतुष्ट हैं। बगल में दो बड़ी जीपें आैर एक ट्रैक्टर लगे हुए हैं। पता चला कि ये विशनपुर गांव के मुखिया हैं। अमरेश झा के गांव के मुखिया.. . इन्हें गांव के लोगों के बारे में कोई खास जानकारी नहीं है। कुरेदने पर कोसी की गाथा सुनाने लगते हैं कि कैसे उसके पुरखों ने कोसी को पस्त किये थे। वे उसी पुरखे के संतान है और कोसी को पछाड़ ही देंगे।
शनिवार, 13 सितंबर 2008
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