(विस्थापित बच्चों को भोजन कराते सुपौल जिले के सिमराही के पास के गाँव के लोग )
दहाये हुए देस का दर्द -5
रंजीत
विद्वेश, विभेद, विघटन आैर नैतिक पतन की घटनाओं की बेशुमार वृिद्ध के बावजूद हृदय की हस्ती मिटती प्रतीत नहीं होती। कोसी की हाहाकारी बाढ़ के दाैरान जो एकमात्र संतोषजनक व सकारात्मक बात सामने आ रही है, वह है- कोसी क्षेत्र के लोगों का गहरा समाजबोध, आपद-ध्ार्म के निर्वाह का गहरा कत्त्र्ाव्यबोध। हालांकि अपवाद यहां भी है। कुसहा (नेपाल) में पिश्चमी तटबंध को तोड़कर निकली कोशी जब तांडव रूप धारण कर लोगों को राैंद रही थी,जब सारे सरकारी प्रतिनिधि (यहां तक कि लोगों के सबसे नजदीकी प्रतिनिधि मुखिया, प्रखंड प्रमुख आैर जिला परिषद के सदस्य एवं अध्यक्ष तक ने लोगों की फिक्र नहीं की), समूची प्रशासनिक मशीनरी नििष्क्रय बने हुए थे; तब पीड़ितों को बचाने में आसपास का समाज पूरे तन-मन-धन से लगा हुआ था। यह सिलसिला पिछले 18 अगस्त से वहां लगातार जारी है। आज अगर पानी में विलीन हो चुके गांवों के लाखों लोग जिंदा बचे हुए हैं, तो इसका पूरा श्रेय उस क्षेत्र के जिंदा समाज को जाता है,वरना शासन-व्यवस्था ने तो उन्हें उनके रहमोकरम पर छोड़ ही दिया था। कोसी अंचल का ही एक तकियाकलाम है- कोई मरे वाह-वाह, हम जिंदा।
मारने वालों से बचाने वालों का हाथ ज्यादा लंबा होता है, इस कहावत को कोसी के समाज ने चरितार्थ कर दिखाया है। आैर पूरी दुनिया को यह संदेश दिया है कि मानवीय करुणा आैर उसकी जिजीविषा कभी खत्म नहीं होगी, भले ही हुकूमती-भ्रष्टाचार का विषबेल पूरी सृिष्ट को ग्रस ले। सुपाैल जिला के राघोपुर प्रखंड में एक छोटा-सा बाजार है सिमराही। इसकी आबादी महज छह हजार है। गत 19 अगस्त को इस बाजार में पचास हजार लोग शरणार्थी बनकर चले आए और इनकी संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही थी। लेकिन दाद देनी होगी सिमराही के लोगों की हिम्मत की। वे घबराये नहीं, वे भागे भी नहीं और न ही शरणार्थियों के रेले से उनके होश गुम हुए। जबकि खुद सिमराही बाजार पर भी पानी का खतरा लगातार मंडरा रहा था। जिसको जैसे हुआ, जिस चीज से हुआ; पीड़ितों की मदद में भिड़ गये। 6 सितंबर को मैं सिमराही बाजार में था। मैंने देखा कि वहां हर घरों में बाढ़ पीड़ित आश्रय लिए हुए थे। जिसको जैसे बन पड़ रहा था, पीड़ितों की सेवा कर रहे थे। इस बाजार के पूरब में कुछ गांवों में मैंने देखा कि लोग बांस-बल्ली लेकर पीड़ितों के लिए शिविर बनाने में लगे हुए हैं। जबकि सामान्य परििस्थति में इन गांवों में अगर कोई किसी का एक बांस काट ले, तो बड़ी लड़ाई छिड़ जाती है।
कोसी के प्रलय से वीरपुर-मधेपुरा सड़क बच गयी है। इस कारण इस पट्टी के आसपास रहने वाले लगभग दो सौ गांव और एक दर्जन बाजार भी बच गये हैं। इन गांवों और बाजारों में कम से कम सात-आठ लाख पीड़ितों को शरण मिला है। इस पट्टी के गांवों के किसी ग्रामीणों के घर चले जाइये, उनके यहां भारी संख्या में पीड़ित मिल जायेंगे। इनसे पूछिये कि क्या आजतक कोई सरकारी मदद उन तक पहुंची। सच सामने आ जायेगा। मुझे समझ में नहीं आ रहा कि जिला मुख्यालय में किए जा रहे बड़े-बड़े दावों आैर बाहर से भेजी जा रही सामग्रियों का आखिर हो क्या रहा है ? मुख्यमंत्री आते हैं, जिला मुख्यालय के शिविरों के कुछ बाढ़ पीड़ितों से मिल लेते हैं आैर अधिकारियों के साथ बैठककर प्रेस-कैमरा के सामने खड़ा होकर अपने माथे का पसीना लोगों को दिखा देते हैं। यही अभिनय अन्य मंत्री- महोदय आैर अन्य नेता भी कर रहे हैं। लालू प्रसाद आते हैं तो अपने समर्थकों में से किन्हीं को कैमरा के सामने नोटों की गड्डी थमा देते हैं आैर राहत-मसीहा की पदवी पा लेते हैं। रामविलास पासवान का भी यही हाल। स्थानीय विधायकों का भी यही हाल। मानो तमाम राहत-कार्य प्रेस के माइक आैर कैमरा के मोर्चे पर ही चल रहा हो। अधिकारी भी अपने आका की नकल कर रहे हैं । प्रेस रिपोर्टरों के माइक के सामने लंबी-चाैड़ी राहत प्रवचन बांच देते हैंआैर पता नहीं उसके बाद किस बिल में समा जाते हैं। दुनिया को लगता है कि राहत-कार्य बहुत तेजी से चल रहा है। सरकार को आैर क्या चाहिए ?
सहरसा शहर में मुझे एक महिला (गोबरधनिया) मिली,जहां सदर अस्पताल में डॉक्टरों के सामने एक पांच वर्ष के शिशु का 14 सितंबर को डायरिया से निधन हो गया, क्योंकि उसके मां-पिता के पास बाहर से दवा खरीदकर लाने की क्षमता नहीं थी। वह महिला, शहर के डीबी रोड में चाय की दुकान चलाती है। उसने पिछले 15 दिनों से अपनी दुकान बंद कर रखी है। वह नित सबेरे आसपास के गांवों के किसानों से दूध मांगने के लिए निकल जाती है। हर दिन वह 15-20 लीटर दूध एकत्र कर लेती है आैर वापस आकर बाढ़पीड़ित शिशुओं को बांट देती है। महिला गोबरधनियां कहती हैं- यैह समय छे बाबू किछ पुण्य करै के (यही समय है बाबू कुछ पुण्य कमाने का).. . गोबरधनियां की महानता के सामने मुझे अपना व्यिक्तत्व बहुत छोटा लग रहा है।
हे माई गोबरधन, हम पढ़े-लिखे लोग हैंं। हम आइएएस (देश के टॉप मेरिट), हम नेता (सर्वशिक्तमान), हम विद्वान, हम नीति-निर्माता (सर्वज्ञ) पाप-पुण्य के फेर में नहीं पड़ते। हमारी दुकाने कभी बंद नहीं होंती, न बाढ़ में, न सुखाड़ में, न दंगा न फसाद में...
दहाये हुए देस का दर्द -5
रंजीत
विद्वेश, विभेद, विघटन आैर नैतिक पतन की घटनाओं की बेशुमार वृिद्ध के बावजूद हृदय की हस्ती मिटती प्रतीत नहीं होती। कोसी की हाहाकारी बाढ़ के दाैरान जो एकमात्र संतोषजनक व सकारात्मक बात सामने आ रही है, वह है- कोसी क्षेत्र के लोगों का गहरा समाजबोध, आपद-ध्ार्म के निर्वाह का गहरा कत्त्र्ाव्यबोध। हालांकि अपवाद यहां भी है। कुसहा (नेपाल) में पिश्चमी तटबंध को तोड़कर निकली कोशी जब तांडव रूप धारण कर लोगों को राैंद रही थी,जब सारे सरकारी प्रतिनिधि (यहां तक कि लोगों के सबसे नजदीकी प्रतिनिधि मुखिया, प्रखंड प्रमुख आैर जिला परिषद के सदस्य एवं अध्यक्ष तक ने लोगों की फिक्र नहीं की), समूची प्रशासनिक मशीनरी नििष्क्रय बने हुए थे; तब पीड़ितों को बचाने में आसपास का समाज पूरे तन-मन-धन से लगा हुआ था। यह सिलसिला पिछले 18 अगस्त से वहां लगातार जारी है। आज अगर पानी में विलीन हो चुके गांवों के लाखों लोग जिंदा बचे हुए हैं, तो इसका पूरा श्रेय उस क्षेत्र के जिंदा समाज को जाता है,वरना शासन-व्यवस्था ने तो उन्हें उनके रहमोकरम पर छोड़ ही दिया था। कोसी अंचल का ही एक तकियाकलाम है- कोई मरे वाह-वाह, हम जिंदा।
मारने वालों से बचाने वालों का हाथ ज्यादा लंबा होता है, इस कहावत को कोसी के समाज ने चरितार्थ कर दिखाया है। आैर पूरी दुनिया को यह संदेश दिया है कि मानवीय करुणा आैर उसकी जिजीविषा कभी खत्म नहीं होगी, भले ही हुकूमती-भ्रष्टाचार का विषबेल पूरी सृिष्ट को ग्रस ले। सुपाैल जिला के राघोपुर प्रखंड में एक छोटा-सा बाजार है सिमराही। इसकी आबादी महज छह हजार है। गत 19 अगस्त को इस बाजार में पचास हजार लोग शरणार्थी बनकर चले आए और इनकी संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही थी। लेकिन दाद देनी होगी सिमराही के लोगों की हिम्मत की। वे घबराये नहीं, वे भागे भी नहीं और न ही शरणार्थियों के रेले से उनके होश गुम हुए। जबकि खुद सिमराही बाजार पर भी पानी का खतरा लगातार मंडरा रहा था। जिसको जैसे हुआ, जिस चीज से हुआ; पीड़ितों की मदद में भिड़ गये। 6 सितंबर को मैं सिमराही बाजार में था। मैंने देखा कि वहां हर घरों में बाढ़ पीड़ित आश्रय लिए हुए थे। जिसको जैसे बन पड़ रहा था, पीड़ितों की सेवा कर रहे थे। इस बाजार के पूरब में कुछ गांवों में मैंने देखा कि लोग बांस-बल्ली लेकर पीड़ितों के लिए शिविर बनाने में लगे हुए हैं। जबकि सामान्य परििस्थति में इन गांवों में अगर कोई किसी का एक बांस काट ले, तो बड़ी लड़ाई छिड़ जाती है।
कोसी के प्रलय से वीरपुर-मधेपुरा सड़क बच गयी है। इस कारण इस पट्टी के आसपास रहने वाले लगभग दो सौ गांव और एक दर्जन बाजार भी बच गये हैं। इन गांवों और बाजारों में कम से कम सात-आठ लाख पीड़ितों को शरण मिला है। इस पट्टी के गांवों के किसी ग्रामीणों के घर चले जाइये, उनके यहां भारी संख्या में पीड़ित मिल जायेंगे। इनसे पूछिये कि क्या आजतक कोई सरकारी मदद उन तक पहुंची। सच सामने आ जायेगा। मुझे समझ में नहीं आ रहा कि जिला मुख्यालय में किए जा रहे बड़े-बड़े दावों आैर बाहर से भेजी जा रही सामग्रियों का आखिर हो क्या रहा है ? मुख्यमंत्री आते हैं, जिला मुख्यालय के शिविरों के कुछ बाढ़ पीड़ितों से मिल लेते हैं आैर अधिकारियों के साथ बैठककर प्रेस-कैमरा के सामने खड़ा होकर अपने माथे का पसीना लोगों को दिखा देते हैं। यही अभिनय अन्य मंत्री- महोदय आैर अन्य नेता भी कर रहे हैं। लालू प्रसाद आते हैं तो अपने समर्थकों में से किन्हीं को कैमरा के सामने नोटों की गड्डी थमा देते हैं आैर राहत-मसीहा की पदवी पा लेते हैं। रामविलास पासवान का भी यही हाल। स्थानीय विधायकों का भी यही हाल। मानो तमाम राहत-कार्य प्रेस के माइक आैर कैमरा के मोर्चे पर ही चल रहा हो। अधिकारी भी अपने आका की नकल कर रहे हैं । प्रेस रिपोर्टरों के माइक के सामने लंबी-चाैड़ी राहत प्रवचन बांच देते हैंआैर पता नहीं उसके बाद किस बिल में समा जाते हैं। दुनिया को लगता है कि राहत-कार्य बहुत तेजी से चल रहा है। सरकार को आैर क्या चाहिए ?
सहरसा शहर में मुझे एक महिला (गोबरधनिया) मिली,जहां सदर अस्पताल में डॉक्टरों के सामने एक पांच वर्ष के शिशु का 14 सितंबर को डायरिया से निधन हो गया, क्योंकि उसके मां-पिता के पास बाहर से दवा खरीदकर लाने की क्षमता नहीं थी। वह महिला, शहर के डीबी रोड में चाय की दुकान चलाती है। उसने पिछले 15 दिनों से अपनी दुकान बंद कर रखी है। वह नित सबेरे आसपास के गांवों के किसानों से दूध मांगने के लिए निकल जाती है। हर दिन वह 15-20 लीटर दूध एकत्र कर लेती है आैर वापस आकर बाढ़पीड़ित शिशुओं को बांट देती है। महिला गोबरधनियां कहती हैं- यैह समय छे बाबू किछ पुण्य करै के (यही समय है बाबू कुछ पुण्य कमाने का).. . गोबरधनियां की महानता के सामने मुझे अपना व्यिक्तत्व बहुत छोटा लग रहा है।
हे माई गोबरधन, हम पढ़े-लिखे लोग हैंं। हम आइएएस (देश के टॉप मेरिट), हम नेता (सर्वशिक्तमान), हम विद्वान, हम नीति-निर्माता (सर्वज्ञ) पाप-पुण्य के फेर में नहीं पड़ते। हमारी दुकाने कभी बंद नहीं होंती, न बाढ़ में, न सुखाड़ में, न दंगा न फसाद में...
2 टिप्पणियां:
अच्छा काम कर रहे हैं। दर्दनाक मंजर है लेकिन काफी लोग सेवा भावना से लगे हुए हैं।
satyendra jee aapko dhanyawad. hum asamwedanshilon ko jagana chah rahe hain .yah samwedanshilon ke samuhik pryas se hi sambhav hoga.
Ranjit
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