रंजीत
बहुत पहले सहरसा- फारबिसगंज छोटी रेलवे लाइन की छोटी गाड़ी के साधारण डब्बे में सवार एक अपरिचित वृद्ध ने एक अद्भूत व्यंग्य-कहानी सुनाई थी। कहानी यूं थी- एक बार एक गांव में भयानक अगजनी हो गयी आैर दर्जनों घर स्वाहा हो गये। हादसे में उस गांव के जमींदार के घर भी जल गये। आग बूझने के बाद पूरे गांव में मातम-सा छा गया। कोई छाती पीट रहा था, तो कोई मूर्छित हो रहा था तो कोई पागल की तरह राख बीन रहा था। जमींदार साहेब गांव से बाहर थे आैर हादसे की खबर सुनकर दाैड़े-दाैड़े अपनी बस्ती पहुंचे। जमींदार को देखकर लोगों को कुछ ढांढस बंधा कि शायद ये कुछ उपाय करेंगे। लोग रोना-धोना भूलकर उन्हें घेरकर खड़ा हो गये। जमींदार साहेब ने जले हुए घरों पर एक उड़ती-हुई नजर दाैड़ाई आैर बोले- चलो चिंता की कोई बात नहीं। जो हुआ अच्छा ही हुआ । घर जले तो क्या हुआ, खटमल से तो निजात मिला। लोग भौचक्क रह गये, जमींदार की बात उनके मगज में नहीं अटी। बोले- सरकार, हमलोग कुछ समझे नहीं ! जमींदार साहेब बोले- अरे बुड़बकों ! कितने खटमल बढ़ गये थे बस्ती में, किसी रात चैन से नहीं सो पाता था। आग में घरों के साथ खटिया भी तो जल गये हैं न ? तो अब बताओ, वे साले खटमल बच पाये होंगेइस आग से ??
कोशी हादसा के बाद की राजनीतिक बाजीगरी को देखकर यह व्यंग्य-कथा रह-रहकर मेरे जेहन में कौंध जा रही है। कोशी की हाहाकारी बाढ़ के बाद कुछ राजनीतिक पार्टियां अंदर-ही-अंदर खुशी से ताली पीट रही है। बाढ़ से लोग तबाह हो गये तो क्या ? उनके घर-द्वार, जमीन-जायदाद, माल-मवेशी बह गये तो क्या ? चारों ओर भूख और बिमारी से कोहराम मचा हुआ है तो क्या ? उनके राजनीतिक खटमल तो मर गये न! विपक्षी राष्ट्रीय जनता दल के नेताओं की खुशी को तो कोई ठिकाना ही नहीं मिल रहा है। इन्हें इस बाढ़ में अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी रूपी खटमल के मरने का सौ फीसदी भरोसा है। इन्हें इस बाढ़ के प्रलय में सत्ता-रथ की वापसी की आहट साफ सुनाई दे रही है। रोते-कलपते लोगों की आंसुओं में उन्हें कुर्सी की तस्वीर दिख रही है। इसलिए पार्टी के नेताओं ने तो सहरसा-पटना-दिल्ली को तीन डग में ही समेट लिया है। कैमरा के सामने समर्थकों को रुपये बांटे जा रहे हैं। स्थिति तो यह है कि पार्टी कार्यकर्ताओं ने नेता जी के निर्देश पर जगह-जगह शिविरों के सामने बाकायदा पार्टी के चुनाव चिह्न वाले बड़े-बड़े पोस्टर-बैनर टांग दिये हैं। ताकि पीड़ितों को कौर का कसम दिलाकर उनसे वोट की गारण्टी ले ली जाय। अगर अचानक कोई इन बैनर-पोस्टरों को देखे, तो उन्हें आम चुनाव का भ्रम हो जाय।
किसी भी समाज ने शायद नैतिक पतन के ऐसे नमूने नहीं देखे होंगे जैसे आजकल कोशी अंचल के लोग देख रहे हैं। पहले तो लापरवाही और भ्रष्टाचार के कारण उन्हें मानव-निर्मित आपदा में झोंक दिया गया अब उनकी फटेहाली का मजाक उड़ाया जा रहा है। कहते हैं कि पतन की भी सीमा होती है। लेकिन बिहार की राजनीतिक पार्टियों ने गिरने की तमाम हद को पीछे छोड़ दिया है। निर्लज्जता और हया के सारे मानदंड खत्म हो गये हैं। एक पार्टी के नेता ने तो यहां तक कह दिया कि इस अंचल के यादव और मुस्लिमों का तबाह करने के लिए तटबंध तोड़ने की साजिश रची गयी।
यह तो हुआ विपक्षी दलों के कृत्य। अब कुछ सत्तानसीनों की भी सुन लीजिए। सत्ताधारी पार्टी के नेताओं में शिविर के उद्घाटन की होड़ मची हुई है। कई शिविरों का उद्घाटन तो बाकायदा फीता काटकर हुआ। लोग भूख से बिलाबिला रहे थे और नेता जी उद्घाटन के रिबन काटने में मशगूल थे। यही नहीं नेताओं ने नावों पर बाकायदा अपने नाम लिखवा दिये हैं। यह नाव - माननीय फलाना, विधायक जी के सौजन्य से। यह नाव- माननीय फलाना मंत्री जी के सौजन्य से... आश्चर्य की बात यह है कि ये कवायद तब शुरू हुई जब लोगों ने सारा कुछ गंवा दिया। जब उन्हें मदद की दरकार थी, तब सारे राजनीतिक दल और उनके नेता कान में तेल डालकर सोये थे। लगता है इस देश के लोग अब राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के लिए एक वोट-संसाधन के सिवा कुछ भी नहीं है। ये बगैर स्वार्थ के हरिद्वार भी नहीं जाते।
शायद भारत की राजनीतिक पार्टियां और नेता मानवीय संवेदनाओं से ऊपर उठ चुके हैं। इस श्रेणी में अबतक राक्षस और ईश्वर को रखा जाता था। लगता है अब इसमें राजनीतिक पार्टियां और राजनेता भी शामिल हो गये हैं।
कोशी हादसा के बाद की राजनीतिक बाजीगरी को देखकर यह व्यंग्य-कथा रह-रहकर मेरे जेहन में कौंध जा रही है। कोशी की हाहाकारी बाढ़ के बाद कुछ राजनीतिक पार्टियां अंदर-ही-अंदर खुशी से ताली पीट रही है। बाढ़ से लोग तबाह हो गये तो क्या ? उनके घर-द्वार, जमीन-जायदाद, माल-मवेशी बह गये तो क्या ? चारों ओर भूख और बिमारी से कोहराम मचा हुआ है तो क्या ? उनके राजनीतिक खटमल तो मर गये न! विपक्षी राष्ट्रीय जनता दल के नेताओं की खुशी को तो कोई ठिकाना ही नहीं मिल रहा है। इन्हें इस बाढ़ में अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी रूपी खटमल के मरने का सौ फीसदी भरोसा है। इन्हें इस बाढ़ के प्रलय में सत्ता-रथ की वापसी की आहट साफ सुनाई दे रही है। रोते-कलपते लोगों की आंसुओं में उन्हें कुर्सी की तस्वीर दिख रही है। इसलिए पार्टी के नेताओं ने तो सहरसा-पटना-दिल्ली को तीन डग में ही समेट लिया है। कैमरा के सामने समर्थकों को रुपये बांटे जा रहे हैं। स्थिति तो यह है कि पार्टी कार्यकर्ताओं ने नेता जी के निर्देश पर जगह-जगह शिविरों के सामने बाकायदा पार्टी के चुनाव चिह्न वाले बड़े-बड़े पोस्टर-बैनर टांग दिये हैं। ताकि पीड़ितों को कौर का कसम दिलाकर उनसे वोट की गारण्टी ले ली जाय। अगर अचानक कोई इन बैनर-पोस्टरों को देखे, तो उन्हें आम चुनाव का भ्रम हो जाय।
किसी भी समाज ने शायद नैतिक पतन के ऐसे नमूने नहीं देखे होंगे जैसे आजकल कोशी अंचल के लोग देख रहे हैं। पहले तो लापरवाही और भ्रष्टाचार के कारण उन्हें मानव-निर्मित आपदा में झोंक दिया गया अब उनकी फटेहाली का मजाक उड़ाया जा रहा है। कहते हैं कि पतन की भी सीमा होती है। लेकिन बिहार की राजनीतिक पार्टियों ने गिरने की तमाम हद को पीछे छोड़ दिया है। निर्लज्जता और हया के सारे मानदंड खत्म हो गये हैं। एक पार्टी के नेता ने तो यहां तक कह दिया कि इस अंचल के यादव और मुस्लिमों का तबाह करने के लिए तटबंध तोड़ने की साजिश रची गयी।
यह तो हुआ विपक्षी दलों के कृत्य। अब कुछ सत्तानसीनों की भी सुन लीजिए। सत्ताधारी पार्टी के नेताओं में शिविर के उद्घाटन की होड़ मची हुई है। कई शिविरों का उद्घाटन तो बाकायदा फीता काटकर हुआ। लोग भूख से बिलाबिला रहे थे और नेता जी उद्घाटन के रिबन काटने में मशगूल थे। यही नहीं नेताओं ने नावों पर बाकायदा अपने नाम लिखवा दिये हैं। यह नाव - माननीय फलाना, विधायक जी के सौजन्य से। यह नाव- माननीय फलाना मंत्री जी के सौजन्य से... आश्चर्य की बात यह है कि ये कवायद तब शुरू हुई जब लोगों ने सारा कुछ गंवा दिया। जब उन्हें मदद की दरकार थी, तब सारे राजनीतिक दल और उनके नेता कान में तेल डालकर सोये थे। लगता है इस देश के लोग अब राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के लिए एक वोट-संसाधन के सिवा कुछ भी नहीं है। ये बगैर स्वार्थ के हरिद्वार भी नहीं जाते।
शायद भारत की राजनीतिक पार्टियां और नेता मानवीय संवेदनाओं से ऊपर उठ चुके हैं। इस श्रेणी में अबतक राक्षस और ईश्वर को रखा जाता था। लगता है अब इसमें राजनीतिक पार्टियां और राजनेता भी शामिल हो गये हैं।
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