(भारत-नेपाल सीमाः नेपाल की लकड़ी और भारत का खाद)
दहाये हुए देस का दर्द-61
रोटी तो सभी खाते हैं, लेकिन सब की रोटी एक-जैसी नहीं होती। कोई हलाल की रोटी खाते हैं, तो कोई हराम की। किसी की रोटी पसीने से आती है, तो किसी की फरमाइश से। रोटी-रोटी में फर्क का यह अन्यायी सिलसिला न जाने कब से चलते आ रहा है। हालांकि रोटी से खेलने वाले इसओर कभी ध्यान नहीं देते और उनकी नजरों में सभी रोटियां अंततः अनाज की ही होती हैं। रोटी से खेलने वाले कभी नहीं स्वीकारते कि "रोटी'' और "इज्जत'' में किसी भी तरह की कोई रिश्तेदारी हो सकती है। लेकिन मेहनतकशों को पसीने की रोटी पर हमेशा नाज रहा है। किसान और मजदूरों के बीच रहने वाले लोग इस सच से निश्चित तौर पर अवगत होंगे। भूख और उसूल के दोहरे भार से दबे मेहनतकशों से पूछिए, उनका जवाब होगा- "हम गरीब जरूर हैं, लेकिन इज्जत की रोटी खाते हैं।'' कौन होगा जो ऐसे ईमानदार व मासूम आत्म-गौरव पर रीझ-पसीज न जाये। कवियों ने इसे विरॉट मानवीय सौंदर्य माना है और लेखकों ने इससे प्रेरणा लेकर दर्जनों ऐतिहासिक रचना की है। फणीश्वनाथ रेणु का संपूर्ण साहित्य श्रमशील सर्वहारा के निश्चल प्रेम और उच्च मानवीय मूल्य की ही बात करता है। लेकिन लगता है कि अब मेहनतकशों को भी "इज्जत की रोटी और पसीने की कमाई '' जैसी मुहावरों से चिढ़ होने लगी है।
बिहार का कोशी अंचल भी बुनियादी तौर पर मेहनतकश किसान-मजदूरों का इलाका है। प्रकृति और शासकों के निष्करूण प्रहारों को सदियों तक झेलते रहने के बाद भी इस समाज ने मानवीय मूल्यों से कभी भी समझौता नहीं किया। मेहनत और मजूरी पर नाज करने की संस्कृति यहां प्राचीन काल से ही रही है। लेकिन कुछ वर्षों से इस संस्कृति में तेजी से एरोजन हो रहा है। मेहनतकश बाप-दादाओं के पोते अब खेत में बैलों के साथ बहने से जी चुराने लगे हैं। उनके अरमानों को बाजारवाद का पंख लग गया है। उन्हें भी घूमने के लिए बाइक चाहिए और पहनने के लिए आधुनिक जिंस और बात करने के लिए महंगे मोबाइल। जाहिर है खेतों में पसीना बहाकर उपभोग की ये सामग्रीयां उन्हें एक जनम में तो कभी भी नसीब नहीं होने वाली, इसलिए वे तमाम तरह के अपराधों में शामिल हो रहे हैं। कोई आइएसआइ का एजेंट बन रहा है, तो कोई लश्कर-तैइबा का हमदर्द। हालांकि इस तरह के हाइप्रोफाइाल अपराध में अभी बहुत कम युवक ही शामिल हैं, लेकिन अंतरराष्ट्रीय तस्करी तो इस इलाके में एक पेशा का रूप ले चुका है।
पिछले कुछ दिनों में कोशी अंचल से सटे नेपाल और बांग्लादेश की सीमाओं पर भारी तादाद में ऐसे युवकों की गिरफ्तारी हुई है, जिनकी पृष्ठभूमि मेहनतकशों की रही है। जिनके बाप-दादा ये कहते हुए गुजर गये कि '' आधे पेट खाया, लेकिन पराये खेत की ओर कभी नहीं झाँका । आज अररिया, किशनगंज और सुपौल जिले के सीमावर्ती इलाके के कई गांव तस्करों के गढ़ बन चुके हैं। यहां तक कि इन युवकों की सांठगांठ अब पूर्वोत्तर राज्यों के बड़े तस्कर समेत विदेशी तस्करों तक से हो चुकी है। हालांकि ज्यादातर स्थानीय तस्करों की भूमिका अभी भी कैरियर (समान को सीमा के पार पहुंचाने वाला)की ही है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि पुलिस और प्रशासन इन्हें रोकने के बदले बढ़ावा ही दे रहे हैं। क्योंकि इस गोरखधंधे में उनकी जेबें भी गरम हो रही हैं।
दरअसल, अररिया, किशनगंज और सुपौल जिले से नेपाल की लगभग साढ़े तीन सौ किलोमीटर की सीमा लगती है, जो पूरी तरह से खुली हुई है। अकेले अररिया जिले में नेपाल के साथ लगभग 110 किलोमीटर की सीमा-रेखा है। अररिया के बेला बसमतिया से सिकटी से होकर लहसुन, सुपाड़ी, चीनी , धान, उर्वरक, पेट्रोलियम, चरस, गांजा, हेराईन, ब्राउन सुगर, नकली भारतीय करेंसी व विस्फोटक हथियारों तक की तस्करी होती है। इतना ही नहीं, तस्करों ने अररिया और किशनगंज के सीमाई इलाके में सदियों से मौजूद बांस के जंगल को साफ कर दिया है। महज दस वर्ष पहले तक यहां बांस के घने जंगल होते थे, जिनमें सैकड़ों किस्म के हजारों वन्य प्राणी रहते थे। लेकिन आज यह जंगल साफ हो चुका है और वन्य प्राणी तो खोजने से भी नहीं मिलते।
हाल की कुछ प्रमुख तस्करी घटना पर गौर करें तो सितंबर 2009 से अब तक अररिया के कुआड़ी ओपी क्षेत्र में करीब दो करोड़ से अधिक कीमत की चंदन की लकड़ी पकड़ी गयी। इससे कुछ समय पहले कुर्साकाटा के मरातीपुर में पुलिस ने चरस के साथ एक तस्कर को गिरफ्तार किया था, जिसने पुलिस को बताया था कि हर महीने नेपाल से अकेले कुर्साकाटा में तीन से चार क्विंटल तक चरस की तस्करी होती है। गौरतलब है कि कुछ वर्ष पहले अररिया के फारबिसगंज के डीएसपी ने थाइलैंड निर्मित हेरोइन के साथ कुछ विदेशी तस्करों को गिरफ्तार किया था।
लेकिन ये खुलासे और गिरफ्तारियां तो महज दिखावा है। सच्चाई तो यह कि 90 प्रतिशत से ज्यादा मामले या तो पुलिस के पकड़ से दूर रहते हैं या फिर पुलिस की सहमति से खुलेआम चलते रहते हैं। हाल यह है कि कोशी इलाके के छोटे-छोटे हाट-बाजारों में भी भारी मात्रा में गांजे उपलब्ध रहते हैं। गौरतलब है कि नेपाल में गांजें की खुलेआम खेती होती है, जिन्हें तस्करी के जरिये बिहार और भारत के अन्य हिस्सों में खपाया जाता है।
संक्षेप में कहें तो तस्करी ने कोशी इलाके के सामाजिक सौंदर्य को निगल लिया है। गरीबी में भी ईमानदार बने रहना कोशी इलाके का सामाजिक सौंदर्य है। पसीने की रोटी खाने वाले लोगों का यह 'यू टर्न' हमें हैरत में डालता ही है , साथ ही इस तथ्य को भी साबित करता है कि भूख और उसूल की लड़ाई में उसूल अंततः हार ही जाता है। लेकिन उन्हें कौन समझाये कि उसूल की हार, भूख से भी ज्यादा खतरनाक है। क्या बाजारवाद ने विरोध और बदलावों के रास्ते भी बंद कर दिए हैं ? लगता तो ऐसा ही है। अगर यह सच नहीं होता, तो ये युवक आज तस्कर नहीं विद्रोही होते।