बुधवार, 17 मार्च 2010

विनाश काले विपरीत बुद्धि

(कब उठेगा यह लाल पर्दा ? स्थान- प्रतापगंज, जिला- सुपौल )

दहाये हुए देस का दर्द -62

19 महीने में धरती सूर्य का डेढ़ बार चक्कर लगा लेती है। इतनी अवधि में ब्रह्मांड में बहुत-से तारे, ग्रह और नक्षत्र एक छोर से दूसरे छोर पर पहुंच जाते हैं। बड़े-बड़े युद्ध अपने अंजाम को प्राप्त हो जाते हैं। 19 महीने में एक भारतीय नागरिक पांव-पैदल देश की चौहदी माप सकता है। लेकिन 19 महीने में सात किलोमीटर की क्षतिग्रस्त रेलवे पटरी को दुरुस्त नहीं किया जा सकता ! यह दुनिया के शीर्ष रेलवे नेटवर्क में शुमार किए जाने वाले भारतीय रेल की असलियत है।

आपको याद होगा कि 18 अगस्त 2008 को जब कोशी ने पूर्वी बिहार में तांडव नृत्य किया था, तो उसने जहां-तहां रेल पटरियों को तोड़-मरोड़ दिया था। तब उसका कहर बिहार के सुपौल, सहरसा, अररिया और मधेपुरा जिले की लाइफ लाइन कही जाने वाली सहरसा-फारबिसगंज रेल लाइन भी पर जमकर बरपा था। बाढ़ की चपेट में आकर जहां-तहां रेल-सड़क और बिजली के खंभे ध्वस्त हो गये थे। हालांकि पानी हटने के बाद पता चला कि सौभाग्य से बाढ़ में रेल-पटरी और स्टेशनों को ज्यादा नुकसान नहीं हुआ है और कुल मिलाकर छह-सात किलोमीटर की पटरी ही बुरी तरह प्रभावित हुई है। पानी के बावजूद प्रतापगंज, छातापुर और ललितग्राम स्टेशन तब सुरक्षित बच गये थे। हां, इस प्रलयंकारी बाढ़ में सात-आठ छोटे पुल जरूर पूरी तरह ध्वस्त हो गये थे। पानी हटने के बाद तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद ने इलाके के लोगों को आश्वस्त किया था कि जल्द ही इस लाइन की रेल सेवा को दोबारा बहाल कर दिया जायेगा। लेकिन महीना-दर-महीना बीतता रहा, पर सहरसा-फारबिसगंज रेल सेवा चालू नहीं हुई। इसे लेकर कई बार स्थानीय लोगों ने आंदोलन तक किया, लेकिन रेल महकमा कान में रूई और तेल लेकर सोता रहा। रेल के किसी भी आला अधिकारी ने क्षतिग्रस्त पटरियों और पुलों के पुनर्निमाण में कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी। परिणामस्वरूप मरम्मत का काम बीरबल की खिचड़ी की कहावत को चरितार्थ करती रही।इस बीच कुसहा में कोशी के टूटे तटबंध को बांध भी दिया गया। इसके बाद तो रेल अधिकारी के पास यह बहाना भी नहीं बचा कि पानी के कारण मरम्मत के काम में बाधा उपस्थित हो रही है। आज भी रेलवे के कोई अधिकारी यह बताने की स्थिति में नहीं है कि इस लाइन पर दोबारा कब रेल के इंजन और डिब्बे का दर्शन हो सकेगा।

यहां एक साथ कई सवाल उठते हैं। सबसे पहला सवाल यह कि क्या अगर सहरसा-फारबिसगंज रेल लाइन महाराष्ट्र, पंजाब, बंगाल, गुजरात, दिल्ली या दक्षिण के राज्यों में होती, तो रेलवे का ऐसा ही सलूक होता ? उत्तर बिहार में अगर बाढ़ के कारण रेल लाइन क्षतिग्रस्त होती है तो तटीय राज्यों में समुद्री तूफानों के कारण आये दिन रेल,सड़क, बिजली आदि की लाइनें क्षतिग्रस्त होती रहतीं हैं। तब भारतीय रेल पूरी तत्परता से आगे आता है और क्षतिग्रस्त पटरी को दुरुस्त भी कर लेता है। लेकिन पूर्वोत्तर बिहार के साथ उसने इतना भद्दा मजाक क्यों किया है ? इसलिए कि इस इलाका का उल्लेख पूंजीपतियों की डायरी में नहीं है और यहां के लोग बात-बात पर हथियार नहीं उठाते हैं ? भले ही रेल मंत्री या शीर्ष रेल अधिकारी ऐसे सवालों का जवाब देना जरूरी नहीं समझे, लेकिन हकीकत यही है। हकीकत यह है कि दिल्ली में बैठे देश के नीति-नियंता अब बाजार, हिंसा और वोट बैंक को छोड़ दूसरी कोई भी भाषा नहीं समझते। इसे बिडंबना नहीं तो क्या कहा जाये। वैसे भी अपने यहां एक प्राचीन कहावत काफी प्रचलित है- विनाश काले विपरीत बुद्धि !

6 टिप्‍पणियां:

विवेक सिंह ने कहा…

और तो और 19 महीने में बच्चा पैदा होकर बोलने भी लगता है ।

मनोज कुमार ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति!

राज भाटिय़ा ने कहा…

वेसे होना तो यह चाहिये जब भी नागरिक किसी देश की चीज को खराब करे, जेसे रेलवे लाईन, सडके, सरकारी इमारते, या फ़िर शहर की बसे, तो उन्हे दोवारा ठीक ना किया जाये, बसे जलाई तो उन्हे हटा दो, रेलवे लाईन उखाडी तो रेल बन्द कर दो ईमारत को नुकसान पहुचाया तो उस कार्यालय का काम बन्द, जब तक जनता अपने पेसे इकट्टे कर के उसे ना बनबाये, फ़िर देखो केसे जनता देश की आमानत का सत्या नाश करती है????

रंजीत/ Ranjit ने कहा…

राज जी, लगता है आप समूचा आलेख नहीं पढ़े। यह नुकसान जनता ने नहीं किया है, बल्कि बाढ़ से हुआ है। वैसे कोशी इलाके की जनता सरकारी या सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान करने में विश्वास नहीं करती है।
धन्यवाद
रंजीत

shama ने कहा…

Yahan to sthaneey janta jabtak shor nahi machaegi,kuchh nahi honewala...

दिगम्बर नासवा ने कहा…

कोशी की समस्या को लेकर अक्सर आपको पढ़ता हूँ ....
ये नेता लोग भी नही जागते, प्रशासन भी नही जागता .... बहुत पीड़ा होती है देख कर .... काश इनकी कान में भी जूं रेंगे कभी तो ... ....