मंगलवार, 14 सितंबर 2010

टिकट दीजिए, हमहूं लड़ेंगे चुनाव

शत्रुघ्न बाबू अपनी पंचायत के मुखिया हैं। माफ कीजिए, मुखिया नहीं, मुखिया-पति हैं, लेकिन उनके समर्थक उन्हें मुखिया जी कहकर ही बुलाते हैं। पूर्णिया जिले की कसबा सीट से राजधानी पटना पहुंचे हैं। उन्हें टिकट चाहिए। उमाशंकर बाबू, जिला पार्षद हैं, वे भी पिछले पांच दिनों से पांच बोलेरो गाड़ी के साथ पटना में कैंप कर रहे हैं। उमाशंकर बाबू को भी टिकट चाहिए।
मुखिया को टिकट चाहिए, वार्ड मेंबर को टिकट चाहिए। प्रखंड समिति के मेंबरों को टिकट चाहिए और जिला परिषद वाले को तो चाहिए ही चाहिए।
दुखू को भी चाहिए और सुखू को भी चाहिए। यादव जी को चाहिए, महतो जी को चाहिए। पासवान जी को चाहिए तो राम जी को क्यों नहीं चाहिए। किसी बात की कमी नहीं है। टका है, गाड़ी है, अच्छी चुनावी जाति में जन्म लिए हैं, नारे लगाने के लिए चमचे हैं, गोली चलाने के लिए गुंडे हैं, तो विधायक का चुनाव क्यों नहीं लड़ सकते?
"लड़ेंगे तो जरूरे, साला टिकसवा मिले या न मिले। एक सिंबल नहीं मिलेगा, (मूछ पर ताव देकर) तो राम शरण यादव चुनावे नहीं लड़ेगा, बिहार में ? गजबे कहते हैं जी !'
लालू जी से डांट खाकर राजद कार्यालय के बाहर आये नेता जी ने यही कहा था, अपने समर्थकों को। मुझे आदमी दिलचस्प लगा, तो मैंने कहा- "अभी तो आप छोड़ा-माड़र (युवा) हैं। अगर राजद के सही कार्यकर्ता हैं, तो पार्टी की सोचिए। टिकट के लिए इतने बेचैन क्यों हैं ?
रामशरण ने ईमानदारी का परिचय देते हुए एक ईमानदार बात कह दी, बोला-"ई युग में पार्टी की कौन सोचता है जी, सब अपने लिए सोचता है। हमको नहीं मालूम है कि पार्टी जीतेगी, तो मुख्यमंत्री के बनेगा ? जाइये-जाइये, उचितवक्ता नहीं बनिये। जब हमहूं एमएलले बन जायेंगे, तो आइयेगा इंटरभू लेने।'
"... तो क्या निर्दलीय लेड़ेंगे ?'
"अगर टिकट नहीं देंगे तो का करेंगे, बिना टिकटवे के न लड़ेंगे। चुनाव कौनो इनकी रेलगाड़ी है कि गिरफ करवा देंगे। देखियेगा न जमानत जभ (जब्त) करवा देंगे, सबकी... '
"रामशरण बाबू ! जिंदावाद (करीब दस समर्थकों की आवाज)।'
पुलिस आती है। भीड़ को भगाती है। भीड़ भागती है, लेकिन भागकर फिर वहीं पहुंच जाती है, जहां पहले थी।
दरअसल, इन दिनों बिहार की राजधानी पटना में राजनीतिक पार्टियों के कार्यालयों के आसपास ये नजारे आम हैं। ऐसा लगता है मानो ये राजनीतिक पार्टियों के कार्यालय न होकर कोई नियोजन कार्यालय हो, जहां देश के नौजवान नौकरी के लिए टूट पड़े हों। टिकटार्थियों की भीड़ से राजधानी की सड़कें गुलजार हैं। जिस होटल में जाइये, किसी भी रेस्टोरेंट में जाइये, सफेद कुर्ता-पायजामाधारी मिल जायेंगे। यही कारण है कि पार्टियों को उम्मीदवार तय करने में पसीना छूट रहा है। एक-एक सीट से कई सौ आवेदन मिले हैं।
जिन लोगों ने दस-बीस वर्ष पहले की राजनीति कोदेखी-सुनी है, उन्हें सहसा विश्वास नहीं होता कि बिहार में राजनीति की नर्सरी अचानक इतनी समृद्ध कैसे हो गयी ? कि अब वार्ड सदस्य भी विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए आतुर है। इसका मतलब राज्य में ग्रास रूट लेबल पर जरूर कोई-न-कोई राजनीतिक क्रांति हो गयी है। जी हां, "क्रांति' ही तो हुई है। अब तो पंचायतों के बजट भी करोड़ों में पहुंचने लगे हैं। भ्रष्टाचार देवी की कृपा से मुखिया भी लाखों में खेलने लगे हैं। प्रमोशन कौन नहीं चाहता। अब जब पॉकेट में पैसा आ गया है, तो मुखिया बने रहना उन्हें मंजूर नहीं।
आप पूछेंगे कि इतना पैसा गांव जा रहा है तब तो जनता का भी कल्याण हुआ ही होगा? इसका जवाब पाने के लिए आपको बिहार के गांवों में जाना होगा। गांव जाने पर एक-से-एक किस्से सुनने को मिलेंगे। नरेगा के बारे में! अंत्योदय के बारे में! बीपीएल-एपीएल के बारे! शिक्षक नियुक्ति से लेकर आंगनबाड़ी की सेविकाओं की नियुक्ति की रामकहानी के बारे में! और इन सारे किस्सों को क्लाइमेक्स एक जैसा होगा। ... पैसा तो पंडा ले गया, जनता निर्माल बिछ रही है! घरवाली क्या करती, छाली तो थाली खा गयी, साली !
और जनता ?
अरे उसका क्या ! वो तो आज भी बारहों महीने खरजीतिया करती है। नहीं समझे ? चार सांझ उपवास और एक सांझ भोजन।

2 टिप्‍पणियां:

खबरों की दुनियाँ ने कहा…

दीजिए , सबको टिकट दीजिए । काहे नहीं देंगे टिकट ? सबको बिकास न करना है ?

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सही लिखा है ... जनता की कौन सोचता है ...चार सांझ उपवास और एक सांझ भोजन...
पर सभी खड़े हो जाएँ तो जीतेगा कौन .....