गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

इस बसंत के बाद

चार कट्ठे का वह पीला खेत
सरसों के कुछेक पौधे
अब तक संभाल रखे हैं
बचे-खुचे बसंत को

इस बसंत में
शायद आधे हो गये हैं चाक
आधा कुम्हार
कोने में सिमट चुका है बीधहों में फैला खमहार
मेमनों की बेधड़क हलाली के बाद
शराफत लगभग समाप्त हो चली है

अकेला कवि
आधा कुम्हार
चार कट्टे का खेत
छोटे-छोटे मेमने
आखिर कब तक बचा पायेंगे
समूचे गांव का पूरा बसंत

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

यह ओलावृष्टि नहीं, गोलावृष्टि है


दहाये हुए देस का दर्द-71
इंटरगवर्मेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज यानी आइपीसीसी ने पिछले साल अपनी एक रिपोर्ट में बहुत बड़ी बात कही थी। उसने कहा था कि जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों का पहाड़ सबसे ज्यादा उनके ऊपर टूटेगा, जिनका पर्यावरण को बिगाड़ने में सबसे कम योगदान है। वैसे आइपीसीसी का यह सचोद्‌घाटन रइसों को रास नहीं आयी थी। इसके बाद अमीरों ने वही किया जैसा वे ऐसे मामलों में हमेशा से करते आ रहे हैं। इससे पहले कि गरीबों के हक में कहा गया यह दूरगामी सच आम लोगों तक तक पहुंच पाता, अमीरों ने घिनौनी चाल चल दी। उन्होंने आइपीसीसी की विश्वसनीयता पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया। अमीर देशों के अगुवा और विश्व के स्वयं-भू नेता अमेरिका और उसके पिछलग्गुओं ने आइपीसीसी को ही कटघरे में खड़ा कर दिया। उनका षड्‌यंत्र रंग लाया जिसके परिणामस्वरूप दुनिया के बहुसंख्यक गरीबों के भविष्य को बचाने का एक प्रयास, सतह पर आने से पहले ही ओझल हो गया। लेकिन हाल के कुछ प्राकृतिक आपदाओं ने आइपीसीसी की रिपोर्ट पर अपनी मुहर जरूर लगा दी है।
कल पूर्वोत्तर बिहार के कोशी अंचल में बिन मौसम भारी ओलावृष्टि हुई। जी नहीं, इसे गोलावृष्टि कहना मुनासिब होगा, क्योंकि ओलों के वजन पांच से दस किलो तक थे। सूचना है कि आसमान से गोले की शक्ल में बरसे ओले ने एक दर्जन लोगों को मौके पर ही खेत कर दिया और करीब चार दर्जन लोगों को मरनासन्न अवस्था में पहुंचा दिया। सैकड़ों घर टूटे और भारी संख्या में मवेशियों के मरने और बड़ी मात्रा में रबी फसलों की तबाही की भी सूचना है। टीन की छत(कोशी इलाके में टीन की छत वाले घर काफी प्रचलित हैं) चलनी में बदल गये। उनमें बड़े-बड़े छेद हो गये। फूस से बने गरीबों के घर तो इन गोलों को दस मिनट भी बर्दाश्त नहीं कर सके।
इन दिनों गेहूं और अन्य शीतकालीन फसलों की सिंचाई-निराई चल रही है, सो किसान अपने-अपने खेतों में थे। शाम का समय था। पहले आसमान का रंग बदला। फिर पश्चिम की ओर से आये बादलों ने इलाके को घेर लिया और मूसलाधार बारिश होने लगी। यहां तक सब कुछ ठीक था, किसानों ने सोचा कि चलो पटवन के डीजल-पेट्रोल से कुछ राहत मिली। वे आसमान के खौफनाक इरादों से पूरी तरह अनभिज्ञ थे। उन्हें कहां मालूम था कि चंद ही मिनटों के बाद आसमान, बर्फ बरसाने वाले तोप में बदल जायेगा। बर्फों के गोले बरसने लगे, जो भाग सके वे बच गये। बांकी या तो अस्पताल या अश्मशान घाट पहुंच गये। किशनगंज में दो बच्चों समेत सुपौल और पूर्णिया में एक-एक महिला और मधेपुरा और अररिया में चार लोगों की मौत की पुष्टि हो चुकी है। घायलों के बारे में ठोस सूचना प्रशासन के पास नहीं है, लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि हर गांव को डॉक्टरी मदद की जरूरत है। लगभग हर गांव में दस-बीस लोग घायल हैं।
जी हां, यह जलवायु परिवर्तन का ही दुष्परिणाम है। लेकिन इसमें कोशी इलाके के लोगों का कोई योगदान नहीं। कार्बनडाइआक्साइड उत्सर्जन के मामले में यह इलाका दुनिया में सबसे न्यूनतम पायदान पर है। लेकिन जब पर्यावरण बिगड़ेगा, तो भौगोलिक सीमाओं का ख्याल नहीं करेगा। आइपीसीसी ने भी अपनी रिपोर्ट में यही बात कही थी। उसने कहा था कि पर्यावरण के मामले में करेगा कोई और भरेगा कोई और। आइपीसीसी ने कहा था कि अमीर मुल्क और अमीर लोग पैसे और संसाधन के बल पर पर्यावरण असंतुलन से होने वाले आपदाओं से बहुत हद तक बच जायेंगे, लेकिन गरीब मरने के लिए बाध्य होगा। कल की ओलावारी इसी का एक छोटा उदाहरण है।

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

मेरी पसंद : महान कप्तानों की महान पारियां

आज तक ताज़ा , वे १६ चौके और छक्का: जिम्बाबे के विरुद्ध कपिल का नवाद १७५
सौरव की आतिशबाजी : श्रीलंका के खिलाफ १८३ रनों की अद्भुत कप्तानी पारी


इन दिनों क्रिकेट विश्व कप की ऐतिहासिक पारियों की खूब चर्चा हो रही है। इनमें ऐतिहासिक कप्तानी पारी भी शामिल की जा रही है। दो भारतीय कप्तानों की दो ऐतिहासिक पारी मुझे भी याद आ रही है। सन्‌ 1983 के विश्व कप में कपिल द्वारा विपरीत परिस्थिति में जिम्बाब्बे के खिलाफ खेली गयी 175 रन की नाबाद पारी मेरी पहली पसंद है। दूसरी पसंद है- सौरव गांगुली की सिक्सरमय 183। यह अलग बात है कि सौरव के साथ-साथ उनकी इस सनसनाती पारी को भी लगभग भूला दिया गया है। सन्‌ 2003 के विश्व कप में सौरव ने यह लाजवाब पारी खेली थी। दोनों ही बार भारत को जीत मिली और दोनों बार भारतीय टीम फाइनल तक पहुंचने में कामयाब रही। वैसे कपिल और गांगुली के अलावा भी देश में कई नामचीन कप्तान हुये, लेकिन उनके बल्ले से ऐसी पारी कभी नहीं निकल सकी।

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

बाजार के हवाले खेत, भूख के हवाले पेट

सभी संकेत यही बता रहे हैं कि देश की कृषि तेजी से कॉरपोरेट हाथों में जा रही है। इससे जहां एक ओर बेरोजगारीबढ़ेगी तो वहीं दूसरी ओर खाद्यान की आत्मनिर्भरता भी गंभीर संकट में फंस जायेगी , लेकिन अपनी नीतियों के हाथ की कठपुतली हो चुकी सरकार को ये खतरे समझ में नहीं रहे हैं कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा ने नई दुनिया में इस विषय पर एक गंभीर आलेख लिखा है। आप भी खेत और खलिहानों पर मंडराते बाजार के इस मकड़जाल को समझने की कोशिश कीजिये,ताकि समय रहते हम जाग जायें। रंजीत

देवेंद्र शर्मा

इक्कीसवीं स
दी का पहला दशक इतिहास में थोड़ा धुंधला सा गया है। समय की सुई एक बार फिर वापस घुम रही है अंतर्राष्ट्रीय खाद्य मूल्य एक बार फिर अपने चरम पर है और वैश्विक मूल्य सारे रिकार्ड तोड़ते हुए एक बार फिर उसी स्तर पर पहुंच गये हैं जो वर्ष 2008 में थे। अगला दशक भी संभवत: ऐसा ही होगा।
जनवरी के प्रथम साप्ताह में अल्जीरिया पहले ही खाद्य पदार्थों को लेकर दंगे से गुजर चुका है। उधर संयुक्त राष्ट्र को डर सता रहा है कि 2011 में कहीं 2008 जैसी स्थिति फिर से न आ जाये, जब दुनिया के 37 देशों ने भूख के लिए दंगों का सामना किया था। मुझे डर है कि कहीं अगले दशक में भारत सहित विकासशील देशों के अन्य गुटों को खाद्य पदार्थ आयात न करना पड़े। भारत में कृषि के क्षेत्र में तेजी से बढ़ती कार्पोरेट संस्कृति और पानी, जंगल व कृषि भूमियों के निजीकरण देश को एक बार फिर तेजी से गुलामी के पुराने दिनों में पहुंचा रही है। देश को अपने लाखों भूखे पेटों को भरने के लिए खाद्य पदार्थ का आयात करना पड़ रहा है। नीति निर्माता और योजना बनाने वाले इस दिशा में काफी काम कर रहे हैं कि किसान अपनी खेती की जमीन को छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर जायें।
उत्तरप्रदेश का उदाहरण लें। यह देश का सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला प्रदेश है और साथ ही यह देश का सबसे ज्यादा आनाज उत्पादन करने वाला भी प्रदेश है। उत्तर प्रदेश का पश्चिमी भाग जिसमें गंगा से लगे मैदानी इलाकों की उपजाऊ जमीन भी शामिल है, हरित क्रांति का बेल्ट कहलाता है। यहां हर साल 410 लाख टन अनाज पैदा होता है। इसके अलावा यह प्रदेश 1.30 करोड़ टन गन्ना तथा 1.05 करोड़ टन आलू का भी उत्पादन करता है।
लेकिन यह सब जल्द ही बदलने की संभावना है और इसी बात का मुझे डर सता रहा है। इस रूट पर आठ हाईवे और टाउनशिप प्रस्तावित हैं। साथ ही उद्योग, रियल एस्टेट व इन्वेस्टमेंट प्रोजेक्ट के लिए अधिकांश जमीनों पर कब्जा होने लगा है। इसके दायरे में 23 हजार गांव आ रहे हैं। एक मोटे आंकड़े के अनुसार 66 लाख हेक्टेयर कृषि की जमीन पर खतरा पर मंडरा रहा है। इसका सीधा असर 140 लाख टन अनाज के पैदावार पर पड़ेगा। दूसरे शब्दों में कहे हैं तो उत्तरप्रदेश आने वाले सालों में अनाज की भीषण कमी से जूझेगा। उत्तरप्रदेश की यह कहानी दरअसल पूरे देश की है।
भारत में हरित क्रांति के दौरान कृषि में जो विकास हुआ था उसका सबसे बड़ा नुकसान पर्यावरण को उठाना पड़ा, क्योंकि इस दौरान रासायनिक खाद्य का बेतरतीब तरीके से उपयोग किया गया। वैज्ञानिक शब्दावली में इसे दूसरी पीढ़ी का पर्यावरणीय प्रभाव माना गया । कृषि वैज्ञानिकों की नजर में यह क्रांति प्राकृतिक संसाधन के लिए नुकसानदेह थी।
टेक्नोलॉजी के विफल होने का संयुक्त प्रभाव कृषि उपज पर पड़ा और इसमें भारी गिरावट देखी गई। सन्‌ 1990 के बाद से भारत में कृषि की पैदावार में लगातार गिरावट बनी हुई है। हरित क्रांति के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि कृषि की विकास दर जनसंख्या वृद्धि दर से प्रभावित हुई। उसके बाद इसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं देखा गया। यह प्रक्रिया कई सारी सामाजिक-आर्थिक समस्याएं भी लेकर आई। हरित क्रांति टेक्नोलॉजी की विफलता भी किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या की एक बड़ी वजह बनी।
पर इनसे भी भारत ने कुछ नहीं सीखा। भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ कृषि के क्षेत्र में ज्यादा कुछ नहीं कर सका। भारत ने आयात दर कम कर दी या फिर हटा ही दी। यह विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) को खुश करने से ज्यादा कुछ नहीं था। सबसे ज्यादा चिंता की बात क्या है ? कृषि में लगातार आ रही गिरावट से कुछ नहीं सीखना या फिर यूपीए सरकार द्वारा दूसरी हरित क्रांति को फास्ट ट्रैक पर लाने की तैयारी करना जो किसानों को खेती से दूर करने का काम कर रही है।
किसानों को कृषि से पूरी तरह अलग रखने की तैयारी की जा रही है। अर्थशास्त्रियों के अनुसार विकास के लिए इससे अलग कोई दूसरा रास्ता नहीं है। लेकिन कोई यह नहीं बता रहा कि आखिर ये किसान जाएंगे कहां ? अमेरिका सहित ऐसा कौन सा देश है जो आज 10 मिलियन लोगों को रोजगार देने की स्थिति में है ? कौन- सी कंपनी या उद्योग एक मिलियन लोगों को आज रोजगार देने का वायदा करने की स्थिति में है ?
भूमि किराया नीतियों जिन्होंने भूमि अधिग्रहण, विशेष आर्थिक क्षेत्रों आदि को बढ़ावा दिया है और साथ ही कृषि के बढ़ती कारपोरेट संस्कृति जिसकी वजह से बढ़ती हुई कांटेक्ट फार्मिंग और कमोडिटी ट्रेडिंग है, की वजह से भारत दूसरी हरित क्रांति की स्थिति में प्रवेश कर रहा है जो कि अंतत: कृषि से किसानों को बाहर फेंक देगी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी समय-समय पर ग्रामीण इलाकों से शहरों की ओर जनसंख्या के स्थानांतरण की जरूरत पर बल दिया है।
अगले दशक में हम देखेंगे की कृषि पूरी तरह से कारपोरेट के चंगुल में आ गई है। बीज तकनीक वाली कंपनियों के साथ ही कुछ प्रमुख बड़ी कंपनियां भारत में अपनी दुकानें खोलने जा रही हैं। यह एक तरह से रिटेल के क्षेत्र में मल्टी ब्रांड बन चुकी है। हाल ही में जो कीमतों में वृद्धि हुई है वे भारत में बड़े रिटेल बाजार के प्रवेश को साफ दर्शा रही है।
अब जबकि खाद्य पदार्थों का आयात बढ़ता जा रहा है और कृषि क्षेत्र से किसान बाहर होते जा रहे हैं, भारत बहुत तेजी से उस स्थिति की ओर बढ़ रहा है जहां से उसने शुरूआत की थी। पिछले साठ वर्षों में देश ने उन नीतियों को उलट दिया है जो खाद्य के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की ओर ले गई थी। अगले दशक में आर्थिक वृद्धि के नाम पर खाद्य आत्मनिर्भरता की बलि दी जा सकती है।
कृषि की आधारभूत संरचना को जानबूझकर पहुँचाई गई क्षति के परिणामस्वरूप सामने आई सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक स्थितियों को समझना अत्यंत ही मुश्किल है।

(देवेंद्र शर्मा कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं। आलेख नई दुनिया से साभार)

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

हम कैंसर को उद्योग कैसे कह दें



हर किसी को मालूम है कि बिहार औद्योगिक रूप से पिछड़ा प्रदेश है। इस बात से भी किसी को एतराज नहीं हो सकता कि बिहार को आर्थिक रूप से अव्वल बनाने के लिए उद्यम-उद्योग की व्यापक आवश्यकता है। लेकिन यह बात भी सच है कि भूख कितनी ही जोर की क्यों न लग जाये, खाना दोनों हाथ से नहीं खाया जा सकता। लेकिन बिहार सरकार "उद्योग' की तीव्र भूख को शांत करने के लिए हाथ क्या, पैरों से भी खाने के लिए तैयार है। मुजफ्फरपुर के विवादित एस्बेस्टस सीमेंट फैक्ट्री के मामले में उसने अभी तक जो स्टैंड लिया है, उससे तो यही साबित होता है। सरकार हर हाल में इस परियोजना को पूरी करना चाहती है, जबकि स्थानीय जनता इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं है। स्थानीय जनता कह रही है कि "आपने हमसे जमीन ली थी कृषि उद्योग के नाम पर और लगा रहे हैं जानलेवा एस्बेस्टस-आधारित सीमेंट फैक्ट्री। हमें उद्योग चाहिए, बीमारी की परियोजना नहीं चाहिए।' यही बात विश्व प्रसिद्ध पर्यावरण विशेषज्ञ बैरी कैसलमैन ने भी कहा है। मेधा पाटेकर, सुनीता नारायण, गोपाल कृष्ण, सच्चिदानंद सिन्हा जैसे देश-विदेश के नामी पर्यावरण विशेषज्ञ भी कह चुके हैं। लेकिन सरकार कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं है।
दरअसल, मुजफ्फरपुर स्थित मरवां प्रखंड के विशुनपुर-चयनपुर गांवों में चल रहे सरकार बनाम आम आदमी के इस टकराव को समझने के पहले हमें कुछ और बातों को समझना पड़ेगा। आखिर क्या कारण है कि प्रो-पीपुल होने का दावा करने वाली नीतीश सरकार इस प्रोजेक्ट को लेकर आमिल पी हुई है। क्या कारण है कि सुशासन और न्याय का दम भरने वाली एक सरकार एक कंपनी की मास-धोखाधड़ी को नेरअंदाज कर रही है। सरकार कंपनी से यह बात क्यों नहीं पूछ रही कि आपने जनता को अंधेरे में रखकर जमीन अधिग्रहीत की है, आपका चरित्र संदिग्ध है।
सवाल उठता है कि क्या यह सच में यह औद्योगिक भूख ही है कि सरकार एक अदद फैक्ट्री के लिए कंपनी की तमाम अपराध को माफ करने के लिए तैयार है। वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं है। अब तक यह बात साफ हो चुकी है कि चयनपुर-विशुनपुर की प्रोजेक्ट में राज्य के एक आला नेता की व्यक्तिगत दिलचस्पी है। उसने कंपनी से वादा कर रखा है कि चाहे कुछ भी हो जाये, आपकी सीमेंट फैक्ट्री जरूर खुलेगी। वैसे अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि यह गठबंधन की सरकार चला रहे नीतीश कुमार की राजनीतिक मजबूरी है या कुछ और कि वे भी अब तक इस मुद्दे पर जनता का साथ छोड़ने के लिए तैयार है। लोग पूछ रहे हैं कि बच्चों की टेक्सट बुक में लिखी बात (कि एस्बेस्टस के कण जानलेवा होते हैं) क्या गलत है? मुख्यमंत्री जवाब दें। लेकिन मुख्यमंत्री खामोश हैं। ठीक रूपम पाठक कांड की ही तरह। मतलब साफ है। अगर प्रचंड बहुमत वाले सरकार के मुखिया
लोगों के सहज सवाल का जवाब नहीं दे सकते, तो कैसे मान लिया जाये कि उनकी मंशा साफ है।
बहरहाल, मुजफ्फरपुर के शांति-प्रिय किसान आंदोलित हैं। सरकार ने 50 एकड़ की विवादित जमीन पर धारा 144 लगा दी है, जिसका अर्थ यह हुआ कि वहां पर फिलहाल कोई गतिविधियां नहीं चलायी जा सकतीं। लेकिन सरकार ने अभी तक विवादित बिंदुओं के समाधान की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है। हालांकि इसे लेकर कई बार फैक्ट्री का विरोध कर रहे "खेत बचाओ जीवन बचाओ संघर्ष कमेटी'' संगठन के साथ बातचीत का स्वांग जरूर रचा गया है। लेकिन तमाम अवसरों पर सरकार की करनी और कथनी में कोई सामंजस्य नहीं था। प्रकरण में सरकार और स्थानीय प्रशासन का रूख अब तक एंटी-पीपुल्स ही रहा है, जिसके कारण अब लोगों का धैर्य जवाब दे रहा है। पिछले दिनों जिला प्रशासन के खिलाफ हजारों लोगों की गोलबंदी इसका सबूत है। संक्षेप में कहें तो एग्रेसिव पूंजीवाद बनाम रूरल इंडिया की टकराहट अब अपने दूसरे दौर में पहुंच गया है। पश्चिम बंगाल और ओड़िशा में इसका हस्र दुनिया देख चुकी है। अब इसके कदम बिहार की धरती पर पड़ रहे हैं। इतिहास गवाह है कि बिहार की आंदोलन-गर्भा धरती इसे बर्दाश्त नहीं करेगी। बिहार के लोग अगर अड़ गये, तो परिणाम भीषण होंगे। उम्मीद है आक्रामक पूंजी के नेतृत्वकर्ता इस बात और इसमें निहित खतरे को समझेंगे। क्या बिहार सरकार लगभग पूरी दुनिया में प्रतिबंधित हो चुके कारसीजेनिक (कैंसर पैदा करने वाला) एस्बेस्टस के पक्ष में रहेगी या फिर अपनी जनता की सेहत का ख्याल करेगी ?