जैसे उकन्न (विलुप्त) गये पंझाली, लालसर, सिंगारा, पेरवापांखि जैसे धानों की दर्जनों सनातन प्रजातियां, कुछ-कुछ उसी तरह सनै-सनै लुप्त हो रहे हैं गांवों के गांवपन। गांवों से गुम हो रही हैं देसी लोकोक्तियां, अपनत्व-ममत्व से भरे संबोधन, माटी के बरतन, अनुरागों से सिक्त मन । अब तो गांवों की गलियों में भी सुनाई देते हैं- फिकर नॉट, फिकर नॉट के फिकरे। न जाने कहां-कहां की जुबान गांवों में प्रवेश कर गयी हैं । राह चलते हाल पूछना गांव का सनतान संस्कार है। शायद इसलिए एक दिन राह चलते नोनिया टोले के किशुनदेव से यूं ही पूछ लिया, "कि हो किशुन, गौना ठीक-ठाक से हो गेलअ न ?' किशुनदेव बोला- "किशुन नहीं, किशन कहिए ब्रदर, सब मस्त रहा। हजार टका भाड़ा देकर मारूति लाये थे, सकिंड मैरिज के लिए।' गांव इतने बदल गये हैं कि आंगन के प्रवेश द्वार पर अगर खांस दिए, तो बस्ती के छोकरे महीनों तक आपका मजाक उड़ाते रहेंगे। दातून से दांत साफ करने वालों को अब गांव में पिछड़ा समझा जाने लगा है। जिसे शादी में दहेज की मोटी राशि नहीं मिलती, वो खुद को अभागा मानता है। अपराधबोध से ग्रस्त हो जाता है। बला यह कि दहेज लेना और देना स्टेटस सिंबल बन गया है। इसलिए लोग पचास हजार लेते हैं, तो दो लाख बताते हैं और दो लाख देते हैं , तो पांच लाख गिनने का प्रचार करते हैं।
नब्बे के दशक के बाद से गांवों में अजीबोगरीब धाराएं बहने लगी हैं । उपभोक्तावाद की मादक-लहरें शहरों की अट्टालिकाओं से टकराकर गांवों की झोपड़ियों तक में लहरा रही हैं। चौके से चौपाल तक बाजारवाद का उत्स फैल गया है। धनोपार्जन के बदले धन-लिप्सा की मानसिकता जन-जन को अपने आगोश में ले रही है। उपभोग और विलासिता सबसे बड़े आदर्श बनने लगे हैं। कर्म तंत्र से मीलों आगे है पहुंच गया है- धन तंत्र। जिसके पास धन नहीं, मानो वह जन नहीं।
वे अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते, लेकिन बाजार से मोबाइलों के अद्यतन मॉडल खरीद लाते हैं। बगैर काम किए, सब कुछ हासिल कर लेना चाहते हैं। नरेगा के फर्जीबाड़े में दिल खोल कर हिस्सा लेते हैं। सरकारी योजनाओं की खबर रखते हैं, लेकिन सिर्फ और सिर्फ निजी स्वार्थ के लिए। जो मुंहदुब्बर हो उनकी आवाज दवा दो, उनका हक छिन लो। रुपये लेकर मुखिया, प्रमुख के हर गलत कामों को सही ठहराते दो। इंदिरा आवास के लिए मिले रुपये से जमीन खरीद लो । अगर अधिकारी जांच करने पहुंचे तो उन्हें खस्सी-मुर्गी खिला दो। दो-चार किलो देसी घी उनकी गाड़ी की डिक्की में रख दो।
चुनाव के दरम्यान तो गांवों का नजारा चमत्कृत कर देता है। सभी उम्मीदवारों से पैसे लेते हैं, लेकिन वोट गिराने नहीं जाते। मुंहदुब्बरों के मत का सौदा करते हैं और उन्हें मतदान से वंचित कर देते हैं। मुंहदुब्बरों का साधने के लिए वे तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं। कभी हुक्का-पानी बंद कर देते हैं, तो कभी राह चलते पीट देते हैं।
गांवों में सामूहिक प्रेम, सामूहिक दायित्व की भावना दम तोड़ रही है। प्रेम, निश्छलता, करुणा, भलमनसाहत अब गांवों में भी दुर्लभ हो गये हैं। बूढ़े बाप-मां बेटे-बहू के लिए बोझ बनते जा रहे हैं। बेटे को सुबह में पता चलता है कि ओसारे पर सोये बाप ने रात के किसी पहर में अकेले दम तोड़ दिया।
किसी ने कहा था कि अंततः प्रेम इस दुनिया को बर्बाद होने से बचा लेगा और भारत को भारत के गांव बचा लेंगे। बाजारवाद की आंधी में लगातार गुमराह होते समाज से व्यथित लोगों को यह वाक्य एक ढांढस बंधाता है। लेकिन अब तो गांव के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लग गया है। जब बांस ही नहीं रहेगा तो बंशी कहां से बजेगी। गांव नहीं रहेगा, तो भारत का डूबना निश्चित है। जब हम ऐसा कह रहे हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हम गांवों के विकास की आलोचना कह रहे हैं। मेरा आशय गांवों की लुप्त होती जिजीविषा, गांवों की परंपरा, गांवों के संस्कार और गांवों की अस्मिता से है। यह सच है कि हमारे यहां गांव और गरीबी को पर्यायवाची मान लिया गया है, लेकिन भारत के गांव महज एक सुदूर गरीब इलाके के प्रतीक नहीं हैं, बल्कि ये एक व्यापक जीवन-दर्शन के प्रतिनिधि और वाहक भी हैं। हमारे गांव इंसानी संवेदनाओं, मानवीय करुणा , भाइचारे, सहअस्तित्व, प्रेम और ममत्व का सनातन प्रतिनिधि है। शहरों में यह बहुत पहले खत्म हो चुका है।
बाजारवाद और उपभोक्तावाद का फलसफा है कि यह इंसान को इंसान से अलग कर देता है । यह मनुष्य को मानवीय संवेदनाओं से काटता है। प्रेम और भाइचारे को अप्रासंगिक बना देता है। भंवरे क्या करे ? सौरभ की तलाश में जंगल पहुंचे भंवरे को नहीं मालूम कि जंगल ने वनफूलों से तौबा कर लिया है।
पर यह एपेक्स नहीं है। क्लाइमेक्स अभी बाकी है। बाजारवाद जब क्लाइमेक्स पर पहुंचेगा, तो इंसान के पास कुछ नहीं होगा सिवाय धन के। और धनविहीन इंसान किसी अपराधी से कम नहीं होगा। जिसके पास धन नहीं होगा उसे सांस लेने के लिए हवा नहीं मिलेगी, चलने के लिए रास्ते नहीं दिए जायेंगे, न तो जन्म लेने के लिए कोख मिलेगी और न ही मौत के लिए दो गज जमीन। आंख होंगी पर दृष्टि के लिए अनुमति लेनी होगी। जिसके पास बैलेंस नहीं होगा, वह आंखों का उपयोग नहीं कर सकेगा। इंसान के पास जुबान होगी पर बोलने के लिए हर शब्द की कीमत चुकानी होगी। आकाश, पताल, पहाड़, हवा, पानी, रोशनी, शब्द, भाषा, पहनावा आदि निजी मिल्कियत होगी। इसके उपयोग के लिए भाड़े चुकाने होंगे। कविता और कवि एक तो होंगे नहीं अगर होंगे तो उन्हें शैतान घोषित कर दिया जायेगा।
नब्बे के दशक के बाद से गांवों में अजीबोगरीब धाराएं बहने लगी हैं । उपभोक्तावाद की मादक-लहरें शहरों की अट्टालिकाओं से टकराकर गांवों की झोपड़ियों तक में लहरा रही हैं। चौके से चौपाल तक बाजारवाद का उत्स फैल गया है। धनोपार्जन के बदले धन-लिप्सा की मानसिकता जन-जन को अपने आगोश में ले रही है। उपभोग और विलासिता सबसे बड़े आदर्श बनने लगे हैं। कर्म तंत्र से मीलों आगे है पहुंच गया है- धन तंत्र। जिसके पास धन नहीं, मानो वह जन नहीं।
वे अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते, लेकिन बाजार से मोबाइलों के अद्यतन मॉडल खरीद लाते हैं। बगैर काम किए, सब कुछ हासिल कर लेना चाहते हैं। नरेगा के फर्जीबाड़े में दिल खोल कर हिस्सा लेते हैं। सरकारी योजनाओं की खबर रखते हैं, लेकिन सिर्फ और सिर्फ निजी स्वार्थ के लिए। जो मुंहदुब्बर हो उनकी आवाज दवा दो, उनका हक छिन लो। रुपये लेकर मुखिया, प्रमुख के हर गलत कामों को सही ठहराते दो। इंदिरा आवास के लिए मिले रुपये से जमीन खरीद लो । अगर अधिकारी जांच करने पहुंचे तो उन्हें खस्सी-मुर्गी खिला दो। दो-चार किलो देसी घी उनकी गाड़ी की डिक्की में रख दो।
चुनाव के दरम्यान तो गांवों का नजारा चमत्कृत कर देता है। सभी उम्मीदवारों से पैसे लेते हैं, लेकिन वोट गिराने नहीं जाते। मुंहदुब्बरों के मत का सौदा करते हैं और उन्हें मतदान से वंचित कर देते हैं। मुंहदुब्बरों का साधने के लिए वे तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं। कभी हुक्का-पानी बंद कर देते हैं, तो कभी राह चलते पीट देते हैं।
गांवों में सामूहिक प्रेम, सामूहिक दायित्व की भावना दम तोड़ रही है। प्रेम, निश्छलता, करुणा, भलमनसाहत अब गांवों में भी दुर्लभ हो गये हैं। बूढ़े बाप-मां बेटे-बहू के लिए बोझ बनते जा रहे हैं। बेटे को सुबह में पता चलता है कि ओसारे पर सोये बाप ने रात के किसी पहर में अकेले दम तोड़ दिया।
किसी ने कहा था कि अंततः प्रेम इस दुनिया को बर्बाद होने से बचा लेगा और भारत को भारत के गांव बचा लेंगे। बाजारवाद की आंधी में लगातार गुमराह होते समाज से व्यथित लोगों को यह वाक्य एक ढांढस बंधाता है। लेकिन अब तो गांव के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लग गया है। जब बांस ही नहीं रहेगा तो बंशी कहां से बजेगी। गांव नहीं रहेगा, तो भारत का डूबना निश्चित है। जब हम ऐसा कह रहे हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हम गांवों के विकास की आलोचना कह रहे हैं। मेरा आशय गांवों की लुप्त होती जिजीविषा, गांवों की परंपरा, गांवों के संस्कार और गांवों की अस्मिता से है। यह सच है कि हमारे यहां गांव और गरीबी को पर्यायवाची मान लिया गया है, लेकिन भारत के गांव महज एक सुदूर गरीब इलाके के प्रतीक नहीं हैं, बल्कि ये एक व्यापक जीवन-दर्शन के प्रतिनिधि और वाहक भी हैं। हमारे गांव इंसानी संवेदनाओं, मानवीय करुणा , भाइचारे, सहअस्तित्व, प्रेम और ममत्व का सनातन प्रतिनिधि है। शहरों में यह बहुत पहले खत्म हो चुका है।
बाजारवाद और उपभोक्तावाद का फलसफा है कि यह इंसान को इंसान से अलग कर देता है । यह मनुष्य को मानवीय संवेदनाओं से काटता है। प्रेम और भाइचारे को अप्रासंगिक बना देता है। भंवरे क्या करे ? सौरभ की तलाश में जंगल पहुंचे भंवरे को नहीं मालूम कि जंगल ने वनफूलों से तौबा कर लिया है।
पर यह एपेक्स नहीं है। क्लाइमेक्स अभी बाकी है। बाजारवाद जब क्लाइमेक्स पर पहुंचेगा, तो इंसान के पास कुछ नहीं होगा सिवाय धन के। और धनविहीन इंसान किसी अपराधी से कम नहीं होगा। जिसके पास धन नहीं होगा उसे सांस लेने के लिए हवा नहीं मिलेगी, चलने के लिए रास्ते नहीं दिए जायेंगे, न तो जन्म लेने के लिए कोख मिलेगी और न ही मौत के लिए दो गज जमीन। आंख होंगी पर दृष्टि के लिए अनुमति लेनी होगी। जिसके पास बैलेंस नहीं होगा, वह आंखों का उपयोग नहीं कर सकेगा। इंसान के पास जुबान होगी पर बोलने के लिए हर शब्द की कीमत चुकानी होगी। आकाश, पताल, पहाड़, हवा, पानी, रोशनी, शब्द, भाषा, पहनावा आदि निजी मिल्कियत होगी। इसके उपयोग के लिए भाड़े चुकाने होंगे। कविता और कवि एक तो होंगे नहीं अगर होंगे तो उन्हें शैतान घोषित कर दिया जायेगा।