दहाये हुए देस का दर्द-82
गांव के बड़े-बुजुर्ग कहते हैं- "अगर सींग पकड़कर बार-बार छेड़ोगे तो धीमड़(शांत और सुस्त) बैल भी मरखा (मारने वाला यानी आक्रामक) हो जायेगा।'' बैलों के संदर्भ में कही जाने वाली यह कहावत इंसान पर भी हू-ब-हू लागू होता है। बिहार के कोशी अंचल का समाज मौलिक तौर पर शांत और अमनपसंद है। इतिहास साक्षी है कि हिंसा-उपद्रव यहां के समाज की फितरत नहीं है। लगातार असहिष्णु होती दुनिया में कोशी अंचल एक अपवाद है, जो विपरीत हालात और तमाम मुश्किलात के बावजूद सहनशीलता में विश्वास रखता है। लेकिन सहने की भी एक सीमा होती है। यह संयोग नहीं है कि पिछले कुछ समय से कोशी अंचल में भी उपद्रव की घटना बढ़ती जा रही है। पिछले एक-दो साल से पुलिस और आम लोगों के बीच लगातार भिडंत हो रही है। फारबिसगंज में जो कुछ हुआ उसके बारे में अब कुछ कहने की जरूरत नहीं है। इस गोलीकांड के घाव को भरने में मुद्दत लग जायेंगे।
कुछ महीने पहले सहरसा में आम लोग और पुलिस के बीच हुए टकराव के घाव अभी भरे भी नहीं थे कि बीते दिनों सुपौल जिले के चुन्नी गांव में पुलिस और ग्रामीणों के बीच हिंसक भिड़ंत हो गयी। तीन दिन बाद ही सहरसा रेलवे स्टेशन पर यात्रियों और रेलकर्मियों के बीच हिंसक टकराव हो गया। यात्रियों की शिकायत थी कि बुकिंग क्लर्क अतिरिक्त पैसा लेकर यात्रियों को ट्रेन में जगह दिला रहे थे, जिसके कारण आम यात्रियों को भारी परेशानी उठानी पड़ी। हमेशा की तरह उस दिन भी सहरसा से अमृतसर जाने वाली जनसेवा एक्सप्रेस में पांव रखने की जगह नहीं थी। यह ट्रेन हर दिन औसतन चार हजार मजदूरों को ढोकर पंजाब ले जाती है। उस दिन भी स्टेशन पर पांच हजार से ज्यादा मजदूर गाड़ी के इंतजार में खड़े थे। यात्रियों की तुलना में जगह कम पड़ने लगी। रेलकर्मियों को लोगों की इस परेशानी में कमाई का जरिया नजर आया और उसने अपना गोरखधंधा शुरू कर दिया। बवाल मचना था, जमकर मचा। कई कंप्यूटर तोड़ डाले गये। स्टेशन परिसर में खड़ी गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया गया। लेकिन उन कर्मियों के खिलाफ न तो कोई शिकायत दर्ज हुई और न ही कोई कार्रवाई हुई।
यह सच है कि किसी भी समाज की प्रकृति रातों-रात नहीं बदलती। कोशी के लोग भी रातों-रात नहीं बदले हैं। इलाके की अधिकांश आबादी गरीब और मेहनतकश है। साबिक जमाने से ही वे गरीबी, अशिक्षा, बदहाली से अपनी तरह से लड़ते रहे हैं। बेरोजगारी ने उन्हें पंजाब-हरियाण, दिल्ली, मुंबई, सूरत के रास्ते दिखाये। यह सिलसिला अस्सी के दशक में शुरू हुआ और अब तो इलाके की आर्थिक व्यवस्था पलायन के अर्थशास्त्र पर आश्रित हो चली है।
लेकिन पिछले पांच-दस साल में एक बड़ा परिवर्तन यह हुआ है कि अब सरकार की मशीनरी गांवों तक में प्रवेश कर गयी है। एक जमाना था जब लोग गरीबी के बावजूद स्वतंत्र थे। वे भूखे पेट रहते थे, लेकिन निश्ंिचत होकर सोते थे। गांवों में नेता, बिचौलिया, ठेकेदार, पुलिस, अधिकारियों का आगमन नहीं होता था। लेकिन जब से सरकार ने कल्याण, विकास योजनाओं के नाम पर प्रखंडों-गांवों में रुपये भेजने शुरू किये हंै, इन तत्वों का हस्तक्षेप बढ़ता गया है। लोग मूक दर्शक बने हुए हैं। नेता, अधिकारी, दलाल उनकी नजरों के सामने लाखों रुपये का वारा-न्यारा कर रहे हैं। आम लोगों को लूट की इस प्रहसन से कुछ हासिल तो नहीं हो रहा है, लेकिन उनकी परेशानी बढ़ रही है। उनके काज-रोजगार, जीवन-यापन में सरकारी मशीनरी अनावाश्यक रूप से हस्तक्षेप कर रही है। टकराव लाजिमी है।
यह जानकर अचरज होता है कि मीडिया-क्रांति के इस युग में भी शासक वर्ग का मनोविज्ञान अठारहवीं सदी जैसा है। सरकार का मतलब सिर्फ शासन करना नहीं होता, बल्कि लोगों के प्रति उसकी जिम्मेदारी भी बनती है। चंद लोगों के लिए लूट का अवसर तैयार करने का नाम विकास नहीं होता है। लूट के आयोजन पर जनता का नाम चस्पा कर देने से वह जन-योजना नहीं हो जाता। अगर शासक वर्ग को लगता है कि सतत उपेक्षा के बावजूद कोई हमेशा शांत बना रहेगा, तो यह उसकी नासमझी है। बगल का नेपाल इसका उदाहरण है। सन् 1990 तक नेपाल की गिनती दुनिया के सबसे शांत देशों होती थी। वहां के राजा को इसका गुमान हो गया था। वक्त ने ऐसी पलटी मारी कि सन् 2000 आते-आते नेपाल दुनिया के सबसे अशांत देशों में शुमार होने लगा और 2006 में राजा को गद्दी छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा।
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