दहाये हुए देस का दर्द-85
बिहार के कोशी अंचल को जूट की खेती के लिए भी जाना जाता है। उत्पादन के लिहाज से यह इलाका पश्चिम बंगाल और असम के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा जूट उत्पादन केंद्र रहा है। कोशी अंचल के पूर्णिया, कटिहार,मधेपुरा,सुपौल,अररिया और किशनगंज के लाखों किसानों के लिए जूट नकदी आमदनी का प्रमुख स्रोत रहा है। सच तो यह है कि कोशी के किसानों के लिए जूट (जिसे स्थानीय लोग पटुआ या पाट कहते हैं) महज एक फसल ही नहीं, बल्कि जिंदगी और संस्कृति का हिस्सा है। यहां पटुओं की दर्जनों कहावत और अनगिनत किस्से प्रचलित हैं। एक कहावत का उल्लेख प्रासंगिक होगा,"ज उपजतो पाट तें देखिअ ठाठ अर्थात जब जूट की अच्छी पैदावार होगी, तो आनंद देखने वाला होगा।' यही कारण है कि तमाम मुश्किलात और विपरीत हालात के बावजूद इलाके के लाखों खेतिहर आज भी जूट की खेती जारी रखे हुए हैं।
लेकिन विडंबना यह है कि पिछले कुछ सालों से स्थितियां लगातार जूट खेती के प्रतिकूल होती जा रही हैं। अगर हालात ऐसे ही रहे, तो वह दिन दूर नहीं जब जूट की खेती भी मड़ुआ, जौ,काउन,अल्हुआ, भदई धान (कभी कोशी अंचल में इन फसलों का खूब उत्पादन होता था) की तरह कोशी का किस्सा बन जायेगी। इसके कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण सरकार की जूट नीति है, जिसने धीरे-धीरे किसानों की रीढ़ तोड़ दी । हाल में ही केंद्रीय इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने कहा कि उन्हें महंगाई से खुशी है, क्योंकि इससे किसानों को फसलों के ज्यादा दाम मिल रहे हैं। वैसे तो वर्मा का यह बयान दर्शाता है कि हमारे मंत्री जमीनी हकीकत से पूरी तरह नावाकिफ हैं। लेकिन जूट के मूल्यों के हालिया इतिहास के मद्देनजर देखें तो वर्मा का बयान किसी जहर-सिक्त तीर की तरह चूभता है। सन् 1984 में देश में जूट के मूल्य 1400 रुपये क्विंटल था। आज 2012 में यानी 28 वर्षों के बाद यह घटकर 1200 रुपये प्रति क्विंटल पर आ गया है। पिछले 28 वर्षों में रुपये में हुए अवमूल्यन को ध्यान में लेते हुए कोई भी व्यक्ति जूट उत्पादक किसानों के दर्द का अंदाजा लगा सकता है और जूट की मूर्छित खेती का मर्ज आसानी से समझ सकता है।
जुल्मो-सितम की यह नीम-तीर कहानी समर्थन मूल्य नामक मिसाइल की मार तक ही सीमित नहीं है। सच तो यह है कि पिछले चार दशक में जूट उत्पादकों को तरह-तरह के हथियारों से पीटा गया है। सबसे घातक वार था, बेलगाम प्लास्टिक नीति। गौरतलब है कि जूट के किसानों को बचाने के लिए एक जमाने में सरकार के पास संरक्षण नीति थी। तब चीनी, चावल, सीमेंट समेत तमाम फैक्ट्रियों के लिए कम-से-कम तीस प्रतिशत जूट की बोरी का इस्तेमाल अनिवार्य था। लेकिन उदारीकरण की आंधी में ये नीतियां तिनकों की तरह उड़ गयीं और किसी को चीख तक नहीं सुनाई दी । प्लास्टिक बोरियां सस्ती थीं (अभी भी हैं), इसलिए उत्पादकों ने जूट बोरी का इस्तेमाल बंद कर दिया। इसके कारण देसी बाजार में जूट की मांग कम होती गयी। तकनीक के बल पर वस्त्र उद्योग इतना आगे निकल गया कि जूट से बने मोटे कपड़े को पिछड़ेपन का प्रतीक मान लिया गया और पहनावे से जूट से सदा के लिए समाप्त हो गया। यह बात और है कि अब ये प्लास्टिक धरती पर भी भारी पड़ने लगी है। कहने की जरूरत नहीं कि प्लास्टिक के बेइंतिहा इस्तेमाल ने पर्यावरण और पारिस्थितिकी को गंभीर रूप से बिगाड़ दिया है, जिसे पर्यावरण-प्रिय जूट ही ठीक कर सकता है। जूट की खेती को तीसरी मार जूट रिसर्च इंस्टिट्यूटों से पड़ी, जो जानलेवा साबित हुआ। इन संस्थाओं ने पुरानी नस्ल को खत्म किया और उन्नत नस्ल के नाम पर जो बीज तैयार किया उससे पैदावार बढ़ने की बजाय घटती चली गयी।
जलवायु परिवर्तन भी जूट की खेती पर कहर बरपा रहा है। गौरतलब है कि जूट मौसम के प्रति अत्याधिक संवेदनशील पौधा है। मौसम की थोड़ी-सी प्रतिकूलता पौधे को चौपट कर देती है। लेकिन हाल के कुछ वर्षों से मौसम चक्र लगातार असंतुलित हो रहा है, जिसके परिणामस्वरूप जूट की पैदावार मारी जा रही है। जलाशयों की कमी भी जूट की खेती को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। जूट से रेशे निकालने के लिए इसे स्थिर पानी में सड़ाना पड़ता है, लेकिन स्थिर पानी के परंपरागत स्रोत मसलन झील, ताल,चौर, पोखर आदि तेजी से कम और खत्म हो रहे हैं।
संक्षेप में कहें, तो आज जूट की खेती सिर्फ किसानों की जिद और देसी उपयोगिता के बल पर जिंदा है। वह युग बीत गया जब किसान इसे "हरा नोट'' कहते थे। उस दौर में जूट कोशी अंचल के किसानों के लिए दुर्गापूजा, दीपावली, मुहर्रम का सौगात लेकर आता था। सितंबर में इसके रेशे तैयार होत थे। हर किसान को त्योहारों के लिए अच्छी-खासी नकदी मिल जाती थी। अब तो लोग जूट के डंठल (सोंठी) और रस्सी के लिए जूट बोते हैं। कोशी इलाके के लोग आज भी जूट के डंठल से ही घरों के टाट बनाते हैं। सोंठी यहां के लोगों के लिए जलावन का महत्वपूर्ण स्रोत भी है।