मंगलवार, 22 सितंबर 2009

हमें अब भी है यकीन

प्रिये,
हम आज भी उसी क्षण में हैं
या फिर उसकी बारंबारता में हैं
आज भी
उठा ले जाते हैं ताकतवर
हमारे खलिहानों से अन्न
आैर कर देते हैं बेदखल
हमें हमारी ही जमीन से
प्रिये,
हम आज भी उसी क्षण में हैं
या फिर उसकी बारंबारता में हैं
आज भी
बेहिचक चलते हैं
हमारे पेटों पर लात
विरोध करने पर
अपना ही खेत, बन जाता है जालियावाला बाग
प्रिये,
हम आज भी उसी क्षण में हैं
या फिर उसकी बारंबारता में हैं
आज भी
हम हंस नहीं सकते
भर मुंह हंसी, जिसे तुम हंसी कह सको
और नहीं जी सकते
कोई जिंदगी, जिसे तुम जिंदगी कह दो
प्रिये,
हम आज भी उसी क्षण में हैं
या फिर उसकी बारंबारता में हैं
आज भी
हमें सुनाई देती हैं
घोड़ों की टाप
भाले-तोप और बरछियों की आवाज
और दिखाई देते हैं
हमारी छतों से लटकती, उनकी तलवार
प्रिये ,
आज भी हम उसी क्षण में हैं
या फिर उसकी बारंबारता में हैं
आज भी
बनते हैं
इंसान के लहू से इंसान का राज
आदमी के खाल से आदमी का ताज
हमारी आह से उनका दरबार
प्रिये,
हम आज भी उसी क्षण में हैं
या फिर उसकी बारंबारता में हैं
लेकिन, आज भी
नहीं टूटा है हमारा तिलिस्म
बिखरी नहीं है उम्मीद
हमें अब भी है यकीन, हमें अब भी यकीन
 

सोमवार, 21 सितंबर 2009

मोबाइल, मेहंदी और अफवाह

दूरसंचार क्रांति के अद्‌भूत यंत्र यानी मोबाइल फोन ने भौगोलिक दूरियां खत्म कर दी है। निश्चित रूप से इससे मानव-विकास की प्रक्रिया को रफ्तार मिली है और दूरी के कारण कमजोर पड़ते सामाजिक-रिश्ते को नया जान मिला है। चंद शब्दों में इसके फायदे नहीं गिनाये जा सकते। लेकिन अगर आम आदमी में जागरूकता न हो तो यह यंत्र कहर का सबब भी बन सकता है। इसका एक उदाहरण कल झारखंड और बिहार में देखने को मिला । कल तकरीबन 24 घंटे तक झारखंड और बिहार के लाखों लोग भयानक दहशत में रहे। एक शक ने अफवाह का रूप धारण कर लिया और देखते ही देखते दोनों सूबे में कोहराम मच गया। अफवाह यह उ़ड़ी कि मेहंदी लगाने से लड़कियों की मौत हो रही है। हालांकि सच्चाई यह थी कुछ जगह मेहंदी लगाने के बाद लड़कियों को एलर्जी की समस्या हुई थी। लेकिन बात का बतंगड़ बनाकर इसे जानलेवा करार दिया गया। सुनी सुनाई बातों पर लोग यकीन करने लगे और अपने सगे-संबंधियों को तुरंत फोन पर इसकी सूचना देने लगे। जुबान-दर-जुबान अफवाह में मिर्च-मसाले लगते गये और रात तक दोनों सूबे के कई शहरों में कोहराम मच गया। घबड़ाकर बदहवास हुये लोगों से अस्पताल भरने लगे। बड़ी संख्या में औरतें-लड़कियां डर के मारे बदहवास होने लगी। इस तरह एक काल्पनिक रोग के भय के चलते वास्तव में बीमार होने लगे। बदहवासी अपने-आप एक गंभीर बीमारी है। वैज्ञानिक शोध के मुताबिक दुनिया में जितने लोग सांप के विष से नहीं मरते उससे कहीं ज्यादा सर्प दंश के भय से उपजे बदहवासी के कारण मौत के मुंह में समा जाते हैं।
कहा जाता है कि कल सुबह रांची के निकट ओरमांझी कस्बे के चकला गांव से यह अफवाह उड़ी कि मेंहदी लगाने से 11 बच्चियों की मौत हो गयी है। संबंधित क्षेत्रों की कुछ मस्जिदों से भी एेलान किया गया कि बच्चियां मेंहदी न लगाये, जिसने लगाया हो वह तत्काल धो ले। इसके बाद अस्पतालों में बच्चियां और महिलाएं तबीयत खराब होने की शिकायत लेकर पहुंचने लगीं। इनमें कुछ हाथ में जलन,कुछ बदन में दर्द तो कुछ ने कंपकंपी की शिकयत की।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह अफवाह ठीक ईद के चांद देखने के बाद फैली। जिसके कारण हजारों लोग पर्व का आनन्द भी नहीं उठा सके। कहां तो उत्सव का दिन था और लोग सुबह से पर्व मनाने की तैयारी कर रहे थे और कहां अफवाह के कारण सारे उत्साह भय और तखलीफ तब्दील हो गये। गौरतलब है कि बिहार और झारखंड में ईद के चांद दिखने के बाद औरतें मेहंदी लगाती हैं। चूंकि कई जगह मस्जिद से लाउडस्पीकरों के जरिये मेंहंदी लगाने से मना किया गया, इसलिए लोग ज्यादा भयभीत हो गये। अफवाहों से निपटने के लिए प्रशासन की ओर से जो प्रयास होना चाहिए वह नहीं हो सका। यह चिंता की बात है। लेकिन उससे भी ज्यादा चिंताजनक है- आम आदमी की अज्ञानता और भेड़िया-धंसान वाली मानसिकता। पिछले कुछ वर्षों में देखा गया है कि लोग बगैर अपनी आंखों से देखे और बुद्धि से परखे ही मोबाइल का बटन दबाना चालू कर देते हैं। पता नहीं इसमें उन्हें क्या मजा आता है, लेकिन मैंने देखा है कि ऐसी अफवाह फैलाने में कुछ लोगों को मजा आता है। वे कभी मोबाइल में विस्फोट की अफवाह फैलाते हैं तो कभी गणेश जी को दूध पिलाने लगते हैं। यह संचार के इस क्रांतिकारी यंत्र के दुरूपयोग का जीता-जागता नमूना है। सच तो यह कि हर प्रौद्योगिकी अपने साथ-साथ दुरूपयोग की संभावना भी लेकर आती है। यह तो उपयोग करने वाले पर निर्भर करता है कि वह उसका कितना सदपयोग करते हैं और कितना दुरूपयोग।
वैसे आजकल सौंदर्य प्रसाधन में मिलावट की बात आम हो गयी है। अब वे दिन लद गये जब लोग अपने बाड़ी से मेंहंदी के पात चुनकर लाते थे और घर में इसे तैयार करते थे। अब मेहंदी भी पाउच में आने लगी है जो हर्बल न होकर केमिकल है। साबित तथ्य है कि केमिकल पदार्थों के मिश्रण के अनुपात में थोड़ी गड़बड़ी होने से दवा जहर बन जाती है। लेकिन जिस देश में दवा में मिलावट रोक पाने में सरकार असक्षम हो वहां मेहंदी की मिलावट को कौन रोकेगा ? अब देखने की बात है कि इसे लेकर कोई कार्रवाई होती है या फिर ' दिन गये बात गयी' की तर्ज पर ही इस मामले को भी निपटा दिया जाता है।
 
 
 

शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

हिन्दी नहीं, यह हिन्दुस्तान का विरोध है

उस देश के लगभग पचास फीसद लोगों की मादरे-जुबान हिन्दी है। वहां के नब्बे फीसदी लोग हिन्दी बोलते हैं जबकि तकरीबन शत-प्रति-शत नागरिक इस भाषा को समझने की काबलियत रखते हैं। उस देश में ब़डी संख्या में हिन्दी फिल्में देखी जाती हैं आैर वहां के रेडियो स्टेशनों से अक्सर हिन्दी के नये-पुराने गाने प्रासारित होते रहते हैं। वहां के राष्ट्रीय टेलीविजन से लेकर प्राइवेट टेलीविजन तक हिन्दी फिल्म व सीरियल प्रसारित करते हैं। यहां तक कि उस देश की राष्ट्रभाषा भी हिन्दी-संस्कृत परिवार से निकली उप-भाषा है जिसकी लिपि देवनागरी हैआैर जिसके नब्बे प्रतिशत शब्द या तो हिन्दी के हैं या फिर हिन्दी परिवार की भाषा मैथिली, भोजपुरी, बंगाली आदि के। लेकिन व्यतिरेक-विडंबना देखिये, उस देश में हिन्दी का विरोध हो रहा है। क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के चूल्हे पर हिन्दी की हांडी च़ढायी जा रही है। वहां के निवार्चित उपराष्ट्रपति को हिन्दी में शपथ लेने के कारण पदच्यूत होना प़डा है। अब तक शायद आप समझ गये होंगे कि मैं किस देश की बात कर रहा हूं। जी हां, मैं नेपाल की ही बात कर रहा हूं, जहां इन दिनों हिन्दी विरोध की राजनीति सातवें आसमान पर है। मैं उस नेपाल की बात कर रहा हूं जिसे भारत ने अपना हृदय के लहू से पाला-पोसा है। अपने हिस्से की रोटी खिलाकर जवान किया है। मैं उस नेपाल की भी बात कर रहा हूं जो आज भी भारत की मदद के बगैर महज दस दिन भी जिंदा नहीं रह सकता। यह वही नेपाल है जिसके भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, स़डक, परिवहन आैर इंर्धन की व्यवस्था आज भी भारत ही करता है, बिल्कुल छोटे भाइर् की तरह।
उप राष्ट्रपति परमानंद झा को कुर्सी से बेदखल किये जाने को लेकर नेपाल के मधेश इलाके में भारी आक्रोश है। नेपाल के सवा करो़ड मधेशी इसे अपना अपमान मान रहे हैं। वैसे भी वर्षों से राजनीतिक आैर सामाजिक उपेक्षा के शिकार मधेशी राजनीतिक हिस्सेदारी के लिए पिछले तीन साल से आंदोलनरत है। हालांकि इसका आगाज आज से चालीस वषर् पहले ही हो गया था। अब मातृभाषा के अपमान ने उनके जले पर नमक छि़डक दिया है, जिसके परिणामस्वरूप मधेश इलाका एक बार फिर से सुलग उठा है।
हालांकि मधेशी आैर गैर-मधेशी नेपाली लोगों के लिए यह भाषाइर् टकराव का मुद्दा है, लेकिन अगर गहराइर् से देखें तो इसकी ज़डें कहीं आैर हैं। दरअसल, यह हिन्दी विरोध का मुद्दा नहीं, बिल्क इसके तार भारत-विरोध की साजिश से जु़डी हुइर् है जिसका नेतृत्व नेपाल की चरमपंथी पाटिर्यां कर रही हैं। कहने की जरूरत नहीं कि नेपाल में तेजी से पांव पसारती चरमपंथी शिक्त्ायां पिछले डे़ढ दशक से वहां भारत-विरोध का माहाैल तैयार करने में लगी हुइर् हैं। ये वहीं शिक्तयां है जो येन-केन-प्रकारेन नेपाल को अपनी मुट्ठी में कैद करने के लिए बेताब हैं। पहले उन्होंने इसके लिए बुलेट को माध्यम बनाया फिर बैलेट को । आैर जब इन सबके बावजूद बात नहीं बनी तो वे अब सामाजिक विद्धेष आैर अिस्थरता फैलाकर अपने नापाक लक्ष्य को हासिल करने में जुट गयी हैं। बुलेट से बैलेट तक के सफर में तो वे बहुत हद तक सफल रहे, लेकिन सेना को गिरफ्त में लेने की उनकी चाल विफल हो गयी। चीन के इशारे पर काम कर रहीं ये शिक्त्ायां (जिन्हें मालूम नहीं कि चीन को दुनिया का सबसे गैरभरोसेमंद देश माना जाता है आैर जिसके बारे में कहा जाता है कि वह किसी का नहीं है) अपनी योजना की नाकामी के लिए भारत को जिम्मेदार मानती हैं। इसलिए अब वे उन तमाम सूत्रों आैर हेतु-सेतु पर हमला बोल रही हैं जो भारत आैर नेपाल को आपस में जो़डते हैं। जाहिर है हिन्दी भाषा, हिन्दवी संस्कृति आैर भारत-नेपाल मैत्री संधि दोनों देशों को एक सूत्र में पिरोते हैं, इसलिए वे बारी-बारी से इन सबों पर आक्रमण कर रही हैं। अब तो वहां ग्रेटर नेपाल की मांग भी होने लगी हैं। ग्रेटर नेपाल का मतलब है आधा बिहार, आधा उत्त्ार प्रदेश,उत्त्ारी बंगाल आैर समूचे सििक्कम को नेपाल में शामिल कराना। नेपाल की स़डकों पर आये दिन ग्रेटर नेपाल के नक्शे के साथ बेध़डक प्रदशर्न होते रहते हैं। नेपाल की किसी भी सरकार ने रिश्ते के इन भस्मासुरों को कभी गिरफ्तार नहीं किया आैर न ही यह जानने की कोशिश की कि आखिर ये बंकारा बछ़डे किन खूंटे के बल उछल-कूद कर रहे हैं।
वास्तव में उपराष्ट्रपति परमानंद झा का मामला, भारत विरोध की गहरी साजिश की एक क़डी है, जिसे व्यापक फलक में देखनी की जरूरत है। अगर इस क़डी कलइर् खोलनी हो तो पूरी जंजीर की प़डताल करनी प़डेगी। दरअसल, आज से कोइर् साल भर पहले परमानंद झा भारी बहुमत से नेपाल के उपराष्ट्रपति चुने गये थे। एक अप्रत्याशित राजनीतिक घटनाक्रम के तहत तब मधेशी जनाधिकार फोरम के उम्मीदवार श्री झा को नेपाली कांग्रेस आैर एमाले ने समथर्न दिया था। यह समीकरण इसलिए फलीभूत हुआ क्योंकि ये तीनों पाटिर्यां उस समय माओवादियों को रोकना चाहती थी। इस समझाैते के तहत तीनों पाटिर्यों ने राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति आैर संविधान सभा के अध्यक्ष पद आपस में बांट लिया थाआैर माओवादी पार्टी मुंह ताकते रह गयी। लेकिन बाद के दिनों में सत्त्ााइर् टकराव के चलते जनाधिकार फोरम आैर एमाले के रिश्ते में कांटे उग आये । इसलिए हिन्दी भाषा का जिन्न बोतल से बाहर निकाल दिया गया आैर इस पर वहां के उच्चतम न्यायालय ने भी अपनी मुहर लगा दी। जबकि मधेशी जनाधिकार फोरम आैर श्री झा का कहना है कि उच्चतम न्यायालय का फैसला ही गलत है क्योंकि उसने संविधान के जिस आलोक में यह निणर्य सुनाया है उस पर अभी संविधान सभा में फैसला होना है। पूवर् न्यायाधीश श्री झा का तकर् है कि उन्होंने हिन्दी में शपथ लेकर कोइर् गुनाह नहीं किया है, क्योंकि हिन्दी को संविधान में शामिल कराने की मांग को पूरा किये जाने के समझाैता-आश्वासन के बाद ही उसकी पार्टी चुनाव प्रकि्रया में शामिल हुइर् थी। इसके अलावा उन्होंने कहा कि उन्होंने शपथ पत्र पर दस्तखत करने के बाद ही हिन्दी में शपथ लिया था। अगर उनकी शपथ असंवैधानिक थी तो उसके शपथ-पत्र को अभी तक अवैधानिक घोषित क्यों नहीं किया गया है। इसके अलावा अगर उनकी शपथ अमान्य थी तो एक साल तक राष्ट्रपति ने उनके शपथ डाक्यूमेंट को नामंजूर क्यों नहीं किया।
सच तो यह है कि नेपाल सरकार इन दिनों जिस अंतरिम संविधान के तहत काम कर रही है, उसके कइर् प्रावधानों के विरोध में सभी पाटिर्यों ने आवाज उठायी है। अगर नेपाल के माजूदा अंतरिम संविधान के बरक्श देखें तो खुद उच्चतम न्यायालय के अिस्तत्व पर सवालिया निशान लग जाता है। उहापोह की इस िस्थति से मुक्त होने का जो एक मात्र रास्ता है, वह है नये संविधान का निमार्ण। एक साल पहले इसी के लिए संविधान सभा का चुनाव हुआ था। इसलिए श्री झा के मामले के निबटारे के लिए संविधान सभा से बेहतर कोइर् आैर संस्था नहीं थी। लेकिन सबकुछ जानते हुए उनकी हिन्दी में शपथ लेने के फैसले को असंवैधानिक करार दिया गया आैर नेपाली भाषा में शपथ लेने के लिए कहा गया। जाहिर सी बात है कि ऐसा करने के बाद मधेशी पार्टी मधेशियों से नजर नहीं मिला सकती थी, इसलिए श्री झा ने पद छो़डने का फैसला कर लिया।
बहरहाल, भारत ने इसे लेकर कोइर् प्रतिकि्रया नहीं दी है। स्पष्ट है भारत कोइर् बयान देकर नेपाल के अंदरूनी मामले में दखल देने के संभावित आरोप से बचना चाहता है। लेकिन इस मामले पर भाषा शािस्त्रयों की चुप्पी समझ में नहीं आती। उन साहित्यकारों की चुप्पी भी, जो भाषा को सरहद से परे मानते हैं । हालांकि इसमें कोइर् दोमत नहीं कि भाषा बहती सलिला सदृश होती है। इतिहास साक्षी है कि कोइर् भी ताजो-तख्त भाषा का कुछ नहीं बिगा़ड सकी, तो इस मुअॆ राजनीति की हैसियत ही क्याहै। राजनीति तो बदचलन होती है, पल-पल बदलती रहती है। नेपाली लोग किसी स्कूल या काॅलेज में हिन्दी नहीं सिखते, इसे वह मां की गोद में ही उच्चारणे लगते हैं। आैर यह समय की कसाैटी पर कसा-परखा सच है कि मां के आंचल से उपजने वाली भाषा किसी कागजी प्रमाणपत्र का मोहताज नहीं होती। परमानंद झा ने इसी सच का साथ दिया है। भाषाइर् प्रतिबद्वता के इतिहास में यह घटना एक मिसाल के ताैर पर याद की जायेगी। भारत के तथाकथित हिन्दी प्रेमी नेताओं को परमानंद झा से प्रेरणा लेनी चाहिए।
 

बुधवार, 16 सितंबर 2009

बाइ इलेक्शन वाया वाइ पास

दहाये हुए देस का दर्द-56
साठ साल में तो घूरे के दिन भी फिर जाते हैं । लेकिन इस देश की राजनीति के दिन फिरने के संकेत कहीं नहीं दिखते। हमारी बदकिस्मती यह है कि बार-बार नेताओं के हाथों मोहरा बनना हमारी नियति बन गयी है। आज भी राजनेताओं की नजर में समाज एक चेश बोर्ड ज्यादा कुछ नहीं, जिस पर सिर्फ चाल चले जा सकते हैं और जीत हासिल कर सत्ताई कुर्सी कब्जाया जा सकता है। साल-दर-साल यही होता आ रहा है। कहते हैं कि विपत्ति में इंसान अपनी क्षुद्रता को भूल जाता है, लेकिन हमारे राजनेता दैवी आपदा और राष्ट्रीय संकट के समय भी शतरंज के खिलाड़ी ही बने रहने के आदि हैं। इसका ताजा उदाहरण है- बिहार का हालिया विधानसभा उपचुनाव।
बिहार में कुल सत्रह विधानसभा सीटों पर हाल में ही उपचुनाव संपन्न हुये हैं। बाढ़ से उजड़े कोशी अंचल की तीन विधानसभा सीटों पर भी उपचुनाव हुये। इनमें सुपौल जिले की त्रिवेणीगंज, सहरसा जिले की सिमरी बख्तियारपुर और अररिया जिले की अररिया सीटें शामिल हैं। ये सीटें विधायकों के एमपी बन जाने के कारण खाली हुई थीं। उम्मीद थी कि चुनाव प्रचार के दौरान नेता बाढ़ से तबाह हुये लोगों की बात सुनेंगे और कोशी अंचल में चारों ओर यत्र-तत्र बिखरी हुई तबाहियों को मुद्दा बनायेंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। सभी पार्टियों ने इस मुद्दे को नक्कारखाने में डाल दिया। बड़ी कुशलता से राजनीतिक पार्टियों ने बाढ़ के मुद्दे पर मिट्टी डाल दी और लोगों को पता भी नहीं चला। कोई सांप्रदायिकता का बेसुरा राग अलापने लगा, तो कोई जातिवाद के ठुमके लगाने लगे। और इस तरह जनता के असल मुद्दे गौण हो गये। चुनावी प्रचार के दौरान किसी भी पार्टी के किसी नेता ने बाढ़ का जिक्र तक नहीं किया। चाहे केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस हो या राज्य में सत्तासीन राजग या फिर बिहार की मुख्य विपक्षी पार्टी, राजद और लोजपा।
सब-के-सब एक साथ अंधे हो गये । कांग्रेस की ओर से काबिल माने जाने वाले सलमान खुर्शीद और जगदीश टाइटलर ने अपने प्रत्याशियों के लिए कई सभाएं कीं। दोनों नेता केंद्र सरकार का गुणगान करते रहे और हर सभा में कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली। लालू और रामविलास महादलित-दलित के राग पर सवारी करते रहे। संक्षेप में कहें, तो सब पार्टियों ने उसी पुराने फार्मूले का इस्तेमाल किया- तुम मुझे गाली दो, मैं तुझे गाली दूंगा। जनता जब तक समझ सकें कि किसने किसको गाली दी, तब तक वोट हो जायेगा।
जबकि बाढ़ से उजड़े इलाके के लोग आज भी किसी फरिश्ता का इंतजार कर रहे हैं। रोजगार के अभाव में लोग पलायन कर रहे हैं। यहां तक कि बाढ़ में ध्वस्त हो चुकी आधारभुत संरचना की पुनर्स्थापना जनता की महती जरूरत है। अभी तक न तो ध्वस्त हुई सड़कों का पुणनिर्माण हो सका है और न ही टूटे रेलवे ट्रैक दुरूस्त हो सके हैं। केंद्र सरकार के कामों की दुहाई देने वाले सलमान खुर्शीद को शायद पता नहीं कि केंद्र सरकार का रेलवे मंत्रालय 15 महीने में बाढ़ से टूटे महज 40 किलोमीटर रेलवे ट्रैक को रिस्टोर नहीं कर सका। कोशी नदी को साधने के लिए केंद्र सरकार पिछले एक साल में एक कदम आगे नहीं बढ़ सकी है। उन्हें नहीं मालूम कि कोशी अंचल के लोग इसका स्थायी समाधान चाहते हैं। लोग पूछ रहे हैं कि पिछले एक साल में केंद्र सरकार ने इस दिशा में क्या किया? लेकिन किसी नेता ने इसका जवाब नहीं दिया । जवाब दें भी तो कैसे, वे तो वाय पास से निकलने के आदि हैं। शहर में बिना घुसे ही शहर को पार कर जाते हैं।

रविवार, 13 सितंबर 2009

भ्रष्टाचार के महाकाल में एक ईमानदार आवाज

आज देश के मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन पर फिदा होने का मन करता है। लंबे अर्से बाद शीर्ष कुर्सी पर बैठे किसी व्यक्ति को दिल से शुक्रिया कहने का मन करता है। अन्यथा भ्रष्टाचार के कैंसर से छटपटाते इस देश की कराह सुनने की फुर्सत कहां है हमारे कर्णधारों को। अधिकतर भ्रष्टाचार को सामाजिक शिष्टाचार मान चुके हैं और दिलो-जान से इसमें शामिल है। कुछ दूर बैठकर तमाशा देख रहे हैं और कुछ धृतराष्ट्र की तरह आंख पर पट्टी बांधकर आत्मपलायन कर चुके हैं। निरीह जनता को मालूम नहीं कि वे क्या करे ? उन्हें भ्रष्टाचार के इस कैंसर का अंजाम भी कहां मालूम ? लेकिन जिन्हें मालूम है, वे भी क्या कर रहे हैं ? उद्धारक का नकाब लगाकर पियक्कड़ी कर रहे हैं। और जाने-अनजाने देश की अंतिम यात्रा की प्रतीक्षा ही तो कर रहे हैं
यह भ्रष्टाचार का महाकाल है। इसलिए अधिकतर की मति मारी जा चुकी है। आंख रहते अंधे और कान होते बहरे होने का युग-दोष भारत को ग्रस चुका है। लेकिन मुख्य न्यायाधीश ने अपने नैतिक दायित्व को निभाहते हुए जवान खोली है। यह साहस का काम है। महाकाल के इस भयानक बेईमान समय में मुख्य न्यायाधीश ने एक आवाज लगायी है। यह आवाज़ नहीं चेतावनी -हार्न है । शायद उनकी आवाज दूर तक जायेगी। जानी चाहिए । अगर यह आवाज भी नहीं सुनी गयी, तो यकीन मानिये हमें जगाने और हार्न बजाने के लिए कोई अवतार नहीं होने वाला।
कहते हैं कि किसी भी देश का भविष्य उसका युवा वर्ग तय करता है। लेकिन देश के युवा क्या भ्रष्टाचार के इस आपादमस्तक व्याप्त वायरस को नहीं देख रहे ? युवाओं ! भ्रष्टाचार ने हमारे भविष्य को कैद कर लिया है। यह जींस और गोगल्स का वक्त नहीं, देश को बचाने के लिए आगे आने का वक्त है। जरा सुनो, तो मुख्य न्यायाधीश ने क्या कहा है ?
क्या कहा मुख्य न्यायाधीश ने
1 सभी महत्वाकांक्षी योजनाएं बिचौलियों व दलालों के चंगुल में
2 रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार से राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा
3 राशन कार्ड, बिजली और पानी के कनेक्शन में भी भ्रष्टाचार
4 भ्रष्ट अधिकारियों की संपत्ति जब्त की जाये

5 ठगा महसूस कर रहा है आम आदमी
मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन ने कल शनिवार (१२-09) को दिल्ली में कहा कि नरेगा सहित गरीबों और दलितों के उत्थान के इरादे से शुरू की गयी लगभग सभी महत्वाकांक्षी योजनाएं बिचौलियों और दलालों के चंगुल में फंसकर तड़प रही हैं। उन्होंने कहा कि देश में चारों ओर भ्रष्टाचार का बोलबाला है। भ्रष्टाचार की जद में न्यायपालिका भी आ चुकी है। वह भ्रष्टाचार से संबंधित अपराधों के खिलाफ़ लड़ाई के मुद्दे पर सीबीआइ की ओर से अायोजित संगोष्ठी में बोल रहे थे। उन्होंने कहा- जनवितरण प्रणाली भी भ्रष्टाचार का ग़ढ बना हुआ है। चाहे राशन कार्ड बनवाना हो या बिजली और पानी का कनेक्शन लेना हो, सब जगह भ्रष्टाचार है। इस पर अंकुश लगाने की जरत है। आम आदमी इसका सबसे बड़ा शिकार बन रहा है। उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार से न्यायपालिका भी अछूती नहीं है। यह अत्यंत दुखद है। न्यायपालिका का अर्थ केवल न्यायाधीशों से ही नहीं, अपितु न्याय प्रणाली से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जुड़े सभी लोगों से है। उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार से सबसे ज्यादा प्रभावित आम आदमी होता है, जो कदम-कदम पर खुद को ठगा हुआ सा महसूस कर रहा है। उन्होंने हवाला कारोबार के जरिये आतंकियों को धन उपलब्ध कराने और रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार की घटनाओं का उल्लेख करते हुए कहा कि इससे राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा तो है ही, कानून व्यवस्था भी इससे प्रभावित होती है। उन्होंने कहा कि विदेशों में भ्रष्टाचार को मौलिक मानवाधिकारों के उल्लंघन का महत्वपूर्ण कारण समझा जाने लगा है, लेकिन भारत का कानून कुछ अलग तरह का है। उन्होंने भ्रष्टाचार में शामिल व्यक्तियों को शत-प्रतिशत सजा दिलाने की आवश्यकता जताते हुए कहा कि इसके लिए अभियोजन एजेंसियों को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। अभियोजन एजेंसियां ज्यादा जिम्मेदार है। उन्होंने कहा कि अपराधियों के छूट जाने के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार अभियोजन एजेंसियां होती हैं। मजबूत अभियोजन और सटीक गवाही के अभाव में अपराधियों के रिहा होने से उस मुकदमे का निस्तारण करनेवाले न्यायाधीश को भी हताशा होती है। ऐसे अपराधियों को सजा सुनिश्चित कराने के लिए देश में सशक्त व प्रभावी अभियोजन एजेंसियों की आवश्यकता है।
 

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

पूर्णिमा और अमावाश्या का फर्क

दादियां मिथकों में जीती थीं
इसलिए जब -तब बांचती रहती थीं
कि अमावाश्या के दिन जन्मे बच्चे
बड़े होकर चोर हो जाते हैं
यह बात
दादी की दादी की दादियों ने भी बांची थीं
इसलिए, गांव की प्रसवासन्न मांएं
उन दिनों अमावाश्या से डरती थीं
लेकिन
अचानक युग ने जैसे पलटी मार ली
अमावाश्या और पूर्णिमा का फर्क
जैसे सदा के लिए खत्म हो गया
जैसे खत्म हो गये गांधी, विनोबा और हरिशचंद्र
जैसे खत्म हो गये ईमान और सिद्धांत
और इस तरह
बच्चे जन्म लेने से पहले ही चोर हो गये
++
अब कोई मां
नहीं डरती अमावश्या से
उन्हें मालूम है अपने बच्चों का भविष्य
वे तोड़ चुकीं हैं, दादियों की बेड़ियां
शुक्र है खुदा का
कि आज दादियां जिंदा नहीं हैं
 
 
 

सोमवार, 7 सितंबर 2009

राहत और रिश्वत

दहाये हुए देस का दर्द- 55
हमने देखी एक प्रचंड बाढ़
बाढ़ के बाद
धरती पर एक भीषण उजाड़
खाली गोद
बिछुड़े अबोध
पोछी मांग
इसके बाद
हमने देखी
शायद सबसे बड़ी राहत
शायद सबसे बड़ी रिश्वत
चरपहिये से दौड़ते गिद्ध
दोपहिये से झपटते चील और कौअॆ
और इस तरह
हम भूल गये उस बाढ़ को
उसकी प्रचंडता को
अब हमें
वह बाढ़ बहुत निरीह लगने लगी है
क्योंकि हमारे सामने
बाढ़ से लंबी लकीर खींची जा चुकी है
 

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

इस तरह भी बन जाता है एक देश

इधर
इनके सिर पे टूटा है आसमान
और पेट पर बंधे हैं पत्थर
जैसे ये आदमी नहीं
आदम जात का आखिरी मुहावरा हो
उधर
वे बनाते हैं तीन को तीस
और डेढ़ बीत के पेट में रखते हैं पूरे कायनात
जैसे वह आदमी नहीं
बरमूडा का अखाड़ा हो
और
इस तरह बन जाता है एक देश
जैसे वह देश नहीं
देश का कबाड़ा हो

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

कहीं देर न हो जाये (रिवर इंटरलिकिंग : एक विश्लेषण)

अब यह बात लगभग साबित हो चली है कि भारत की अधिकतर नदियां मानवीय हस्तक्षेप के कारण अपना मूल चरित्र खो चुकी है। इसलिए जल संकट इस देश की एक स्थाई समस्या बन गयी है। कहीं नदियां सूख रहीं हैं, कहीं अत्यधिक प्रदूषण के कारण उसका पानी इस्तेमाल करने योग्य नहीं रहा है तो कहीं उसकी जल धारण क्षमता खत्म हो रही है। यानी हर स्थिति में जल-संकट। कमी से सुखाढ़ तो अधिकता से बाढ़। इस समस्या निजात पाने के लिए तीन दशक से नदियों को जोड़ने की बात की जा रही है, लेकिन अभी तक न तो इसकी पुख्ता तैयारी हो सकी है और न ही मतैक्य हो सका है। देश की वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक विसंगतियों को देखते हुए इस बात की उम्मीद भी काफी कम है कि यह योजना कभी धरातल पर उतर सकेगी।
सन 1980 में केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय और केंद्रीय जल आयोग ने इसके लिए एक अध्ययन योजना बनायी जिसे नेशनल पसर्पेिक्टव प्लान (एनपीपी) कहा गया। 1982 में केंद्र सरकार ने इसके विभिन्न आयामों पर अनुसंधान करने के लिए एनडब्लूडीए (नेशनल वाटर डेव्‌लपमेंट एजेंसी) नामक एजेंसी का गठन किया। इसके बाद लंबे समय तक यह महापरियोजना ठंडे बस्ते में रही। दोबारा 2002 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने इसमें दिलचस्पी दिखाते हुए कुछ कदम उठाये। गाैरतलब है कि अक्तूबर 2002 में उच्चतम न्यायालय ने निर्देश दिया था कि एक दशक के अंदर ही इसके लिए आवश्यक कदम उठाए जाये। बाद के दिनों में देश की प्रमुख नदियों को परस्पर जो़डने आैर डैम व नहरों के माध्यम से अनुपयोगी (सरप्लस) जल को देश भर में वितरित करने वाली इस महापरियोजना को लेकर एक टास्क फोर्स का गठन किया गया। टास्क फोर्स ने विभिन्न प्रकार के अनुसंधान आैर अध्ययन के बाद इस योजना के लिए एक प्रारूप तैयार किया, जिसकी सुसंगता (फिजीविलिटी) आैर विस्तृत परियोजना (डीपीआर) अभी बांकी है। केंद्रीय जल संसाधन विभाग के अनुसार, इस दिशा में काम हो रहा है।
प्रस्तावित प्रारूप में इसके लिए देश में कुल 30 नदी-बेसिन-लिंक बनाने का प्रस्ताव है। इनमें से 16 लिंक दक्षिणी प्रायिद्वपीय (पेनिसुलर) भागों में तथा 14 उत्त्ारी क्षेत्रों बनाये जाने का प्रस्ताव है। प्रारूप को सरकार को साैंपते समय एनडब्लूडीए के अध्यक्ष सुरेश पी प्रभु ने कहा था, "नदियों के जो़डने से देश को जल उपलब्धता के असंतुलन से बहुत हद तक निजात मिल सकता है। परियोजना पूरी होने के बाद समुद्र में मिलकर बेकार हो जाने वाले पानी का समुचित उपयोग हो सकेगा।' एनडब्लूडीए के अनुसार, परियोजना पूरी होने के बाद लगभग 200 अरब घन मीटर (बिलियन क्यूबिक मीटर) पानी को एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जा सकेगा। इसके अलावा लगभग सा़ढे तीन करो़ड हेक्टेयर जमीन की सिंचाइर् हो सकेगी। गंगा, ब्रह्मपुत्र आैर उनकी सहायक नदियों से आने वाली बा़ढ में 20 से 30 फीसद तक कमी होगी। बकाैल सुरेश प्रभु, "देश में जलविद्युत्‌ ऊजार् की असीम संभावना है। लेकिन आज भी हमारी कुल बिजली उत्पादन में जलविद्युत्‌ का हिस्सा मात्र 25 फीसद है । नदियों को जो़डने के बाद इसमें भारी ब़ढोत्त्ारी होगी। हम इस परियोजना की मदद से 34 हजार मेगावाट पनबिजली का उत्पादन कर सकते हैं।' जहां तक लागत राशि की बात है तो एनडब्लूडीए ने अपने प्रस्ताव में कहा था कि वषर् 2002 के मूल्यों आधार पर इसमें कुल 5 लाख 60 हजार करो़ड रुपये खचर् होने का अनुमान है।
लेकिन इन तमाम आकलनों आैर उम्मीदों के बाद भी इस परियोजना को लेकर अभी तक मतैक्य नहीं हो सका है। कइर् पयार्वरणविद्‌ , सामाजिक कायर्कतार् आैर नदी विशेषज्ञ इसकी आलोचना कर रहे हैं। इनमें प्रसिद्ध पयार्वरणविद्‌ अनुपम मिश्र, डाॅ अरुण कुमार सिंह आैर सामाजिक कायर्कतार् मेधा पाटकर आैर वंदना शिवा भी शामिल हैं। आलोचकों का कहना है कि यह योजना न केवल अव्यवहारिक है, बिल्क इससे पानी की समस्या घटने के बजाय ब़ढेगी आैर राज्यों के बीच पानी को लेकर झग़डों में इजाफा होगा।
इस आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता। कोई भी राज्य यह नहीं चाहेगा कि उसका पानी मुफ्त में दूसरे को मिले। प्राकृतिक संपदाओं पर क्षेत्रीय अधिकार को पूरी दुनिया स्वीकार करती है। इसलिए यह सोचना कि किसी क्षेत्र की प्राकृतिक संपदा मुफ्त में अन्य क्षेत्रों को दे दिया जायेगा और विरोध नहीं होगा, सरासर मुर्खता होगी। हालांकि आलोचकों का कहना है कि इससे आम लोग आैर किसानों को लाभ नहीं होगा, बिल्क नेता, अफसरशाही आैर ठेकेदार मालामाल होंगे। यह तर्क भी अपने जगह सोलह आने सच है। देश की राजनीति और अफसरशाही के भ्रष्ट आचरण को देखकर इससे कौन इंकार करेगा। अभी तक का अनुभव यही बताता है कि नदियों के प्रबंधन की योजना इसलिए घातक साबित हो रही है क्योंकि यहां भ्रष्टाचार के कारण हर प्रबंधन अंततः कुप्रबंधन में तब्दील हो गयी। कोसी तटबंध परियोजना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। याद रहे कि साठवें दशक में जब कोशी परियोजना पर काम चालू हुआ था तो उस समय प्रसिद्ध अभियंता केएल राव की अध्यक्षता में इसकी फिजीविलीटी पर अध्ययन कराया गया था। राव ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि तटबंध एक तात्कालिक उपाय है। उन्होंने स्पष्ट हिदायत दी थी कि कोशी तटबंध को हमेशा विशेष निगरानी और नियमित देखरेख में रखना पड़ेगा। लेकिन हुआ इसका उलट। कोशी तटबंध की मरम्मत और अपग्रेडेशन के नाम पर आवंटित राशियों का हमेशा बंदरबांट होता रहा। न तो कभी उसे अपग्रेड किया गया और न ही उसके रखरखाव पर ध्यान दिया। आज परिणाम सबके सामने हैकि कोशी तटबंध लगभग नाकाम हो चुका है और अब उसके अंदर नदी को रख पाना लगभग असंभव हो चुका है। यही हश्र अन्य तटबंधों का भी हुआ।
नदियों को जोड़ने की योजना की तकनीकी सुसंगता (कंपैटिबिलिटी) पर भी सवाल उठते हैं। केंद्रीय जल आयोग के पूवर् अध्यक्ष आैर जल प्रबंधन के विशेषज्ञ एमएस रेड्‌डी ने कुछ समय पहले इस परियोजना की तकनीकी खामियों की ओर लोगों का ध्यान दिलाया था। उन्होंने कहा था कि ऐसी परियोजना कि लिए पयाप्तर् वैज्ञानिक अध्ययन आैर सर्वेक्षण की आवश्यकता होती है आैर अभी जो बातें कही जा रहीं हैं उनमें कइर् खामियां हैं। तकनीकी आैर पयार्वरण संबंधी अ़डचनों के अलावा इसकी राह में आैर रो़डे भी हैं। यह नेपाल आैर बांग्लादेश के गंभीर सहयोग के बिना संभव नहीं है। इसके दो डैम आैर तीन नहर नेपाल में बनने हैं। लेकिन नेपाल सरकार ने अभी तक इसमें कुछ खास दिलचस्पी नहीं दिखाइर् है। बांग्लादेश पहले ही विरोध दजर् कर चुका है। लिहाजा योजना अभी भी कागज, कल्पना, चर्चे आैर बहस तक ही सीमित है।
हालांकि इसमें कोइर् दोमत नहीं कि जल संकट अब विकट शक्ल अिख्तयार कर चुका है। प्रदूषण, जलवायु परिवतर्न आैर दोषपूणर् जल प्रबंधन नीति के कारण नदियों के साथ-साथ देश के भू-जल की िस्थति भी लगातार चिंताजनक होती जा रही है। ऐसे में एक व्यापक आैर बहु-स्वीकायर् राष्ट्रीय जल नीति की आवश्यकता से कोइर् इनकार नहीं कर सकता। ऐसा न हो कि हम नदियों को जो़डने की बात करते-करते इतनी देर कर दे कि फिर हमारे हाथ में करने लायक कुछ बचे ही नहीं। लेकिन लाख टके का सवाल है कि क्या भारतीय राजनेता और यहां के नीति-निर्माता इस समस्या की गंभीरता को कभी समझेंगे। हर चीज में व्यक्तिगत नफे-नुकसान की खोज करने वाले आज के राजनेता व अफसर को देखकर तो ऐसा नहीं लगता।