उस देश के लगभग पचास फीसद लोगों की मादरे-जुबान हिन्दी है। वहां के नब्बे फीसदी लोग हिन्दी बोलते हैं जबकि तकरीबन शत-प्रति-शत नागरिक इस भाषा को समझने की काबलियत रखते हैं। उस देश में ब़डी संख्या में हिन्दी फिल्में देखी जाती हैं आैर वहां के रेडियो स्टेशनों से अक्सर हिन्दी के नये-पुराने गाने प्रासारित होते रहते हैं। वहां के राष्ट्रीय टेलीविजन से लेकर प्राइवेट टेलीविजन तक हिन्दी फिल्म व सीरियल प्रसारित करते हैं। यहां तक कि उस देश की राष्ट्रभाषा भी हिन्दी-संस्कृत परिवार से निकली उप-भाषा है जिसकी लिपि देवनागरी हैआैर जिसके नब्बे प्रतिशत शब्द या तो हिन्दी के हैं या फिर हिन्दी परिवार की भाषा मैथिली, भोजपुरी, बंगाली आदि के। लेकिन व्यतिरेक-विडंबना देखिये, उस देश में हिन्दी का विरोध हो रहा है। क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के चूल्हे पर हिन्दी की हांडी च़ढायी जा रही है। वहां के निवार्चित उपराष्ट्रपति को हिन्दी में शपथ लेने के कारण पदच्यूत होना प़डा है। अब तक शायद आप समझ गये होंगे कि मैं किस देश की बात कर रहा हूं। जी हां, मैं नेपाल की ही बात कर रहा हूं, जहां इन दिनों हिन्दी विरोध की राजनीति सातवें आसमान पर है। मैं उस नेपाल की बात कर रहा हूं जिसे भारत ने अपना हृदय के लहू से पाला-पोसा है। अपने हिस्से की रोटी खिलाकर जवान किया है। मैं उस नेपाल की भी बात कर रहा हूं जो आज भी भारत की मदद के बगैर महज दस दिन भी जिंदा नहीं रह सकता। यह वही नेपाल है जिसके भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, स़डक, परिवहन आैर इंर्धन की व्यवस्था आज भी भारत ही करता है, बिल्कुल छोटे भाइर् की तरह।
उप राष्ट्रपति परमानंद झा को कुर्सी से बेदखल किये जाने को लेकर नेपाल के मधेश इलाके में भारी आक्रोश है। नेपाल के सवा करो़ड मधेशी इसे अपना अपमान मान रहे हैं। वैसे भी वर्षों से राजनीतिक आैर सामाजिक उपेक्षा के शिकार मधेशी राजनीतिक हिस्सेदारी के लिए पिछले तीन साल से आंदोलनरत है। हालांकि इसका आगाज आज से चालीस वषर् पहले ही हो गया था। अब मातृभाषा के अपमान ने उनके जले पर नमक छि़डक दिया है, जिसके परिणामस्वरूप मधेश इलाका एक बार फिर से सुलग उठा है।
हालांकि मधेशी आैर गैर-मधेशी नेपाली लोगों के लिए यह भाषाइर् टकराव का मुद्दा है, लेकिन अगर गहराइर् से देखें तो इसकी ज़डें कहीं आैर हैं। दरअसल, यह हिन्दी विरोध का मुद्दा नहीं, बिल्क इसके तार भारत-विरोध की साजिश से जु़डी हुइर् है जिसका नेतृत्व नेपाल की चरमपंथी पाटिर्यां कर रही हैं। कहने की जरूरत नहीं कि नेपाल में तेजी से पांव पसारती चरमपंथी शिक्त्ायां पिछले डे़ढ दशक से वहां भारत-विरोध का माहाैल तैयार करने में लगी हुइर् हैं। ये वहीं शिक्तयां है जो येन-केन-प्रकारेन नेपाल को अपनी मुट्ठी में कैद करने के लिए बेताब हैं। पहले उन्होंने इसके लिए बुलेट को माध्यम बनाया फिर बैलेट को । आैर जब इन सबके बावजूद बात नहीं बनी तो वे अब सामाजिक विद्धेष आैर अिस्थरता फैलाकर अपने नापाक लक्ष्य को हासिल करने में जुट गयी हैं। बुलेट से बैलेट तक के सफर में तो वे बहुत हद तक सफल रहे, लेकिन सेना को गिरफ्त में लेने की उनकी चाल विफल हो गयी। चीन के इशारे पर काम कर रहीं ये शिक्त्ायां (जिन्हें मालूम नहीं कि चीन को दुनिया का सबसे गैरभरोसेमंद देश माना जाता है आैर जिसके बारे में कहा जाता है कि वह किसी का नहीं है) अपनी योजना की नाकामी के लिए भारत को जिम्मेदार मानती हैं। इसलिए अब वे उन तमाम सूत्रों आैर हेतु-सेतु पर हमला बोल रही हैं जो भारत आैर नेपाल को आपस में जो़डते हैं। जाहिर है हिन्दी भाषा, हिन्दवी संस्कृति आैर भारत-नेपाल मैत्री संधि दोनों देशों को एक सूत्र में पिरोते हैं, इसलिए वे बारी-बारी से इन सबों पर आक्रमण कर रही हैं। अब तो वहां ग्रेटर नेपाल की मांग भी होने लगी हैं। ग्रेटर नेपाल का मतलब है आधा बिहार, आधा उत्त्ार प्रदेश,उत्त्ारी बंगाल आैर समूचे सििक्कम को नेपाल में शामिल कराना। नेपाल की स़डकों पर आये दिन ग्रेटर नेपाल के नक्शे के साथ बेध़डक प्रदशर्न होते रहते हैं। नेपाल की किसी भी सरकार ने रिश्ते के इन भस्मासुरों को कभी गिरफ्तार नहीं किया आैर न ही यह जानने की कोशिश की कि आखिर ये बंकारा बछ़डे किन खूंटे के बल उछल-कूद कर रहे हैं।
वास्तव में उपराष्ट्रपति परमानंद झा का मामला, भारत विरोध की गहरी साजिश की एक क़डी है, जिसे व्यापक फलक में देखनी की जरूरत है। अगर इस क़डी कलइर् खोलनी हो तो पूरी जंजीर की प़डताल करनी प़डेगी। दरअसल, आज से कोइर् साल भर पहले परमानंद झा भारी बहुमत से नेपाल के उपराष्ट्रपति चुने गये थे। एक अप्रत्याशित राजनीतिक घटनाक्रम के तहत तब मधेशी जनाधिकार फोरम के उम्मीदवार श्री झा को नेपाली कांग्रेस आैर एमाले ने समथर्न दिया था। यह समीकरण इसलिए फलीभूत हुआ क्योंकि ये तीनों पाटिर्यां उस समय माओवादियों को रोकना चाहती थी। इस समझाैते के तहत तीनों पाटिर्यों ने राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति आैर संविधान सभा के अध्यक्ष पद आपस में बांट लिया थाआैर माओवादी पार्टी मुंह ताकते रह गयी। लेकिन बाद के दिनों में सत्त्ााइर् टकराव के चलते जनाधिकार फोरम आैर एमाले के रिश्ते में कांटे उग आये । इसलिए हिन्दी भाषा का जिन्न बोतल से बाहर निकाल दिया गया आैर इस पर वहां के उच्चतम न्यायालय ने भी अपनी मुहर लगा दी। जबकि मधेशी जनाधिकार फोरम आैर श्री झा का कहना है कि उच्चतम न्यायालय का फैसला ही गलत है क्योंकि उसने संविधान के जिस आलोक में यह निणर्य सुनाया है उस पर अभी संविधान सभा में फैसला होना है। पूवर् न्यायाधीश श्री झा का तकर् है कि उन्होंने हिन्दी में शपथ लेकर कोइर् गुनाह नहीं किया है, क्योंकि हिन्दी को संविधान में शामिल कराने की मांग को पूरा किये जाने के समझाैता-आश्वासन के बाद ही उसकी पार्टी चुनाव प्रकि्रया में शामिल हुइर् थी। इसके अलावा उन्होंने कहा कि उन्होंने शपथ पत्र पर दस्तखत करने के बाद ही हिन्दी में शपथ लिया था। अगर उनकी शपथ असंवैधानिक थी तो उसके शपथ-पत्र को अभी तक अवैधानिक घोषित क्यों नहीं किया गया है। इसके अलावा अगर उनकी शपथ अमान्य थी तो एक साल तक राष्ट्रपति ने उनके शपथ डाक्यूमेंट को नामंजूर क्यों नहीं किया।
सच तो यह है कि नेपाल सरकार इन दिनों जिस अंतरिम संविधान के तहत काम कर रही है, उसके कइर् प्रावधानों के विरोध में सभी पाटिर्यों ने आवाज उठायी है। अगर नेपाल के माजूदा अंतरिम संविधान के बरक्श देखें तो खुद उच्चतम न्यायालय के अिस्तत्व पर सवालिया निशान लग जाता है। उहापोह की इस िस्थति से मुक्त होने का जो एक मात्र रास्ता है, वह है नये संविधान का निमार्ण। एक साल पहले इसी के लिए संविधान सभा का चुनाव हुआ था। इसलिए श्री झा के मामले के निबटारे के लिए संविधान सभा से बेहतर कोइर् आैर संस्था नहीं थी। लेकिन सबकुछ जानते हुए उनकी हिन्दी में शपथ लेने के फैसले को असंवैधानिक करार दिया गया आैर नेपाली भाषा में शपथ लेने के लिए कहा गया। जाहिर सी बात है कि ऐसा करने के बाद मधेशी पार्टी मधेशियों से नजर नहीं मिला सकती थी, इसलिए श्री झा ने पद छो़डने का फैसला कर लिया।
बहरहाल, भारत ने इसे लेकर कोइर् प्रतिकि्रया नहीं दी है। स्पष्ट है भारत कोइर् बयान देकर नेपाल के अंदरूनी मामले में दखल देने के संभावित आरोप से बचना चाहता है। लेकिन इस मामले पर भाषा शािस्त्रयों की चुप्पी समझ में नहीं आती। उन साहित्यकारों की चुप्पी भी, जो भाषा को सरहद से परे मानते हैं । हालांकि इसमें कोइर् दोमत नहीं कि भाषा बहती सलिला सदृश होती है। इतिहास साक्षी है कि कोइर् भी ताजो-तख्त भाषा का कुछ नहीं बिगा़ड सकी, तो इस मुअॆ राजनीति की हैसियत ही क्याहै। राजनीति तो बदचलन होती है, पल-पल बदलती रहती है। नेपाली लोग किसी स्कूल या काॅलेज में हिन्दी नहीं सिखते, इसे वह मां की गोद में ही उच्चारणे लगते हैं। आैर यह समय की कसाैटी पर कसा-परखा सच है कि मां के आंचल से उपजने वाली भाषा किसी कागजी प्रमाणपत्र का मोहताज नहीं होती। परमानंद झा ने इसी सच का साथ दिया है। भाषाइर् प्रतिबद्वता के इतिहास में यह घटना एक मिसाल के ताैर पर याद की जायेगी। भारत के तथाकथित हिन्दी प्रेमी नेताओं को परमानंद झा से प्रेरणा लेनी चाहिए।
उप राष्ट्रपति परमानंद झा को कुर्सी से बेदखल किये जाने को लेकर नेपाल के मधेश इलाके में भारी आक्रोश है। नेपाल के सवा करो़ड मधेशी इसे अपना अपमान मान रहे हैं। वैसे भी वर्षों से राजनीतिक आैर सामाजिक उपेक्षा के शिकार मधेशी राजनीतिक हिस्सेदारी के लिए पिछले तीन साल से आंदोलनरत है। हालांकि इसका आगाज आज से चालीस वषर् पहले ही हो गया था। अब मातृभाषा के अपमान ने उनके जले पर नमक छि़डक दिया है, जिसके परिणामस्वरूप मधेश इलाका एक बार फिर से सुलग उठा है।
हालांकि मधेशी आैर गैर-मधेशी नेपाली लोगों के लिए यह भाषाइर् टकराव का मुद्दा है, लेकिन अगर गहराइर् से देखें तो इसकी ज़डें कहीं आैर हैं। दरअसल, यह हिन्दी विरोध का मुद्दा नहीं, बिल्क इसके तार भारत-विरोध की साजिश से जु़डी हुइर् है जिसका नेतृत्व नेपाल की चरमपंथी पाटिर्यां कर रही हैं। कहने की जरूरत नहीं कि नेपाल में तेजी से पांव पसारती चरमपंथी शिक्त्ायां पिछले डे़ढ दशक से वहां भारत-विरोध का माहाैल तैयार करने में लगी हुइर् हैं। ये वहीं शिक्तयां है जो येन-केन-प्रकारेन नेपाल को अपनी मुट्ठी में कैद करने के लिए बेताब हैं। पहले उन्होंने इसके लिए बुलेट को माध्यम बनाया फिर बैलेट को । आैर जब इन सबके बावजूद बात नहीं बनी तो वे अब सामाजिक विद्धेष आैर अिस्थरता फैलाकर अपने नापाक लक्ष्य को हासिल करने में जुट गयी हैं। बुलेट से बैलेट तक के सफर में तो वे बहुत हद तक सफल रहे, लेकिन सेना को गिरफ्त में लेने की उनकी चाल विफल हो गयी। चीन के इशारे पर काम कर रहीं ये शिक्त्ायां (जिन्हें मालूम नहीं कि चीन को दुनिया का सबसे गैरभरोसेमंद देश माना जाता है आैर जिसके बारे में कहा जाता है कि वह किसी का नहीं है) अपनी योजना की नाकामी के लिए भारत को जिम्मेदार मानती हैं। इसलिए अब वे उन तमाम सूत्रों आैर हेतु-सेतु पर हमला बोल रही हैं जो भारत आैर नेपाल को आपस में जो़डते हैं। जाहिर है हिन्दी भाषा, हिन्दवी संस्कृति आैर भारत-नेपाल मैत्री संधि दोनों देशों को एक सूत्र में पिरोते हैं, इसलिए वे बारी-बारी से इन सबों पर आक्रमण कर रही हैं। अब तो वहां ग्रेटर नेपाल की मांग भी होने लगी हैं। ग्रेटर नेपाल का मतलब है आधा बिहार, आधा उत्त्ार प्रदेश,उत्त्ारी बंगाल आैर समूचे सििक्कम को नेपाल में शामिल कराना। नेपाल की स़डकों पर आये दिन ग्रेटर नेपाल के नक्शे के साथ बेध़डक प्रदशर्न होते रहते हैं। नेपाल की किसी भी सरकार ने रिश्ते के इन भस्मासुरों को कभी गिरफ्तार नहीं किया आैर न ही यह जानने की कोशिश की कि आखिर ये बंकारा बछ़डे किन खूंटे के बल उछल-कूद कर रहे हैं।
वास्तव में उपराष्ट्रपति परमानंद झा का मामला, भारत विरोध की गहरी साजिश की एक क़डी है, जिसे व्यापक फलक में देखनी की जरूरत है। अगर इस क़डी कलइर् खोलनी हो तो पूरी जंजीर की प़डताल करनी प़डेगी। दरअसल, आज से कोइर् साल भर पहले परमानंद झा भारी बहुमत से नेपाल के उपराष्ट्रपति चुने गये थे। एक अप्रत्याशित राजनीतिक घटनाक्रम के तहत तब मधेशी जनाधिकार फोरम के उम्मीदवार श्री झा को नेपाली कांग्रेस आैर एमाले ने समथर्न दिया था। यह समीकरण इसलिए फलीभूत हुआ क्योंकि ये तीनों पाटिर्यां उस समय माओवादियों को रोकना चाहती थी। इस समझाैते के तहत तीनों पाटिर्यों ने राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति आैर संविधान सभा के अध्यक्ष पद आपस में बांट लिया थाआैर माओवादी पार्टी मुंह ताकते रह गयी। लेकिन बाद के दिनों में सत्त्ााइर् टकराव के चलते जनाधिकार फोरम आैर एमाले के रिश्ते में कांटे उग आये । इसलिए हिन्दी भाषा का जिन्न बोतल से बाहर निकाल दिया गया आैर इस पर वहां के उच्चतम न्यायालय ने भी अपनी मुहर लगा दी। जबकि मधेशी जनाधिकार फोरम आैर श्री झा का कहना है कि उच्चतम न्यायालय का फैसला ही गलत है क्योंकि उसने संविधान के जिस आलोक में यह निणर्य सुनाया है उस पर अभी संविधान सभा में फैसला होना है। पूवर् न्यायाधीश श्री झा का तकर् है कि उन्होंने हिन्दी में शपथ लेकर कोइर् गुनाह नहीं किया है, क्योंकि हिन्दी को संविधान में शामिल कराने की मांग को पूरा किये जाने के समझाैता-आश्वासन के बाद ही उसकी पार्टी चुनाव प्रकि्रया में शामिल हुइर् थी। इसके अलावा उन्होंने कहा कि उन्होंने शपथ पत्र पर दस्तखत करने के बाद ही हिन्दी में शपथ लिया था। अगर उनकी शपथ असंवैधानिक थी तो उसके शपथ-पत्र को अभी तक अवैधानिक घोषित क्यों नहीं किया गया है। इसके अलावा अगर उनकी शपथ अमान्य थी तो एक साल तक राष्ट्रपति ने उनके शपथ डाक्यूमेंट को नामंजूर क्यों नहीं किया।
सच तो यह है कि नेपाल सरकार इन दिनों जिस अंतरिम संविधान के तहत काम कर रही है, उसके कइर् प्रावधानों के विरोध में सभी पाटिर्यों ने आवाज उठायी है। अगर नेपाल के माजूदा अंतरिम संविधान के बरक्श देखें तो खुद उच्चतम न्यायालय के अिस्तत्व पर सवालिया निशान लग जाता है। उहापोह की इस िस्थति से मुक्त होने का जो एक मात्र रास्ता है, वह है नये संविधान का निमार्ण। एक साल पहले इसी के लिए संविधान सभा का चुनाव हुआ था। इसलिए श्री झा के मामले के निबटारे के लिए संविधान सभा से बेहतर कोइर् आैर संस्था नहीं थी। लेकिन सबकुछ जानते हुए उनकी हिन्दी में शपथ लेने के फैसले को असंवैधानिक करार दिया गया आैर नेपाली भाषा में शपथ लेने के लिए कहा गया। जाहिर सी बात है कि ऐसा करने के बाद मधेशी पार्टी मधेशियों से नजर नहीं मिला सकती थी, इसलिए श्री झा ने पद छो़डने का फैसला कर लिया।
बहरहाल, भारत ने इसे लेकर कोइर् प्रतिकि्रया नहीं दी है। स्पष्ट है भारत कोइर् बयान देकर नेपाल के अंदरूनी मामले में दखल देने के संभावित आरोप से बचना चाहता है। लेकिन इस मामले पर भाषा शािस्त्रयों की चुप्पी समझ में नहीं आती। उन साहित्यकारों की चुप्पी भी, जो भाषा को सरहद से परे मानते हैं । हालांकि इसमें कोइर् दोमत नहीं कि भाषा बहती सलिला सदृश होती है। इतिहास साक्षी है कि कोइर् भी ताजो-तख्त भाषा का कुछ नहीं बिगा़ड सकी, तो इस मुअॆ राजनीति की हैसियत ही क्याहै। राजनीति तो बदचलन होती है, पल-पल बदलती रहती है। नेपाली लोग किसी स्कूल या काॅलेज में हिन्दी नहीं सिखते, इसे वह मां की गोद में ही उच्चारणे लगते हैं। आैर यह समय की कसाैटी पर कसा-परखा सच है कि मां के आंचल से उपजने वाली भाषा किसी कागजी प्रमाणपत्र का मोहताज नहीं होती। परमानंद झा ने इसी सच का साथ दिया है। भाषाइर् प्रतिबद्वता के इतिहास में यह घटना एक मिसाल के ताैर पर याद की जायेगी। भारत के तथाकथित हिन्दी प्रेमी नेताओं को परमानंद झा से प्रेरणा लेनी चाहिए।
1 टिप्पणी:
Completely one sided writing without any fact and truth.
Nepali population having hindi mother tongue is less than 0.1 % Please refer to www.cbs.gov.np
According to same document, national language Nepali (नेपाली) is spoken by 57% of total population as Mother tongue. Whereas, other are Maithili (मैथिली)10%, Bhojpuri (भोजपुरी) 7%, Tharu (4%), Tamang (5%) and rest other.
Being a national language almost 100% of population can speak and understand Nepali.
As much as I know, some people living in city and terai area understand Hindi/ Urdu due to access in Indian media. I understand Hindi because I have its complete access and I am interested in languages. Beside Hindi/ Urdu I have fluent command in English, Spanish and French.
About the origin of language, Sankrit is the origin of all languages like Nepali, Maithali, Hindi, Urdu, Bhojpuri and so on. The language sanskrit is believed to origined dated 1500 BCE. Primerily it used to be languages to Rishi Munis. And as you know a lot of hindu literature are written in Sanskrit. Most of Risi Munis used to live in Himalays. Being the center of Himalays, everyone can easily guess that sanskrit originated somewhere in present day Nepal.
Later on it developped to prakrit and then seperated to present day languages listed above. So its obvious to be common nouns and verbs between those languages.
So, your sentence saying all of those languages are subset of Hindi is no more than FUN...he he
About the dependeancy, in this world all of country are linked and interdependet to each other. Its not the time to stone age, where all used to be seperate. Its 21st century. And its obivius Nepal is dependent rest of world and India too.
For the outh:
holding the public-post nobody is authorized to cross the legal rules in any name. Mr. Vice president tried to cross his limit. He used an international language on outh. thts too much. so the reaction was obivious.
but now he realized his mistake and corrected it.
you can see: http://www.bbc.co.uk/nepali/news/story/2010/02/100207_vpoath.shtml
everything is ok now.
Being a citizen of Nepal I never hate nobody. Nepali just love and respect everybody. Its in our blood. We love Hindi, Urdu or all langauge arround the world. We never hate India, Pakistan, China or any county in the world.
We just we want to make sure nobody break our sentiment.
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