अब यह बात लगभग साबित हो चली है कि भारत की अधिकतर नदियां मानवीय हस्तक्षेप के कारण अपना मूल चरित्र खो चुकी है। इसलिए जल संकट इस देश की एक स्थाई समस्या बन गयी है। कहीं नदियां सूख रहीं हैं, कहीं अत्यधिक प्रदूषण के कारण उसका पानी इस्तेमाल करने योग्य नहीं रहा है तो कहीं उसकी जल धारण क्षमता खत्म हो रही है। यानी हर स्थिति में जल-संकट। कमी से सुखाढ़ तो अधिकता से बाढ़। इस समस्या निजात पाने के लिए तीन दशक से नदियों को जोड़ने की बात की जा रही है, लेकिन अभी तक न तो इसकी पुख्ता तैयारी हो सकी है और न ही मतैक्य हो सका है। देश की वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक विसंगतियों को देखते हुए इस बात की उम्मीद भी काफी कम है कि यह योजना कभी धरातल पर उतर सकेगी।
सन 1980 में केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय और केंद्रीय जल आयोग ने इसके लिए एक अध्ययन योजना बनायी जिसे नेशनल पसर्पेिक्टव प्लान (एनपीपी) कहा गया। 1982 में केंद्र सरकार ने इसके विभिन्न आयामों पर अनुसंधान करने के लिए एनडब्लूडीए (नेशनल वाटर डेव्लपमेंट एजेंसी) नामक एजेंसी का गठन किया। इसके बाद लंबे समय तक यह महापरियोजना ठंडे बस्ते में रही। दोबारा 2002 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने इसमें दिलचस्पी दिखाते हुए कुछ कदम उठाये। गाैरतलब है कि अक्तूबर 2002 में उच्चतम न्यायालय ने निर्देश दिया था कि एक दशक के अंदर ही इसके लिए आवश्यक कदम उठाए जाये। बाद के दिनों में देश की प्रमुख नदियों को परस्पर जो़डने आैर डैम व नहरों के माध्यम से अनुपयोगी (सरप्लस) जल को देश भर में वितरित करने वाली इस महापरियोजना को लेकर एक टास्क फोर्स का गठन किया गया। टास्क फोर्स ने विभिन्न प्रकार के अनुसंधान आैर अध्ययन के बाद इस योजना के लिए एक प्रारूप तैयार किया, जिसकी सुसंगता (फिजीविलिटी) आैर विस्तृत परियोजना (डीपीआर) अभी बांकी है। केंद्रीय जल संसाधन विभाग के अनुसार, इस दिशा में काम हो रहा है।
प्रस्तावित प्रारूप में इसके लिए देश में कुल 30 नदी-बेसिन-लिंक बनाने का प्रस्ताव है। इनमें से 16 लिंक दक्षिणी प्रायिद्वपीय (पेनिसुलर) भागों में तथा 14 उत्त्ारी क्षेत्रों बनाये जाने का प्रस्ताव है। प्रारूप को सरकार को साैंपते समय एनडब्लूडीए के अध्यक्ष सुरेश पी प्रभु ने कहा था, "नदियों के जो़डने से देश को जल उपलब्धता के असंतुलन से बहुत हद तक निजात मिल सकता है। परियोजना पूरी होने के बाद समुद्र में मिलकर बेकार हो जाने वाले पानी का समुचित उपयोग हो सकेगा।' एनडब्लूडीए के अनुसार, परियोजना पूरी होने के बाद लगभग 200 अरब घन मीटर (बिलियन क्यूबिक मीटर) पानी को एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जा सकेगा। इसके अलावा लगभग सा़ढे तीन करो़ड हेक्टेयर जमीन की सिंचाइर् हो सकेगी। गंगा, ब्रह्मपुत्र आैर उनकी सहायक नदियों से आने वाली बा़ढ में 20 से 30 फीसद तक कमी होगी। बकाैल सुरेश प्रभु, "देश में जलविद्युत् ऊजार् की असीम संभावना है। लेकिन आज भी हमारी कुल बिजली उत्पादन में जलविद्युत् का हिस्सा मात्र 25 फीसद है । नदियों को जो़डने के बाद इसमें भारी ब़ढोत्त्ारी होगी। हम इस परियोजना की मदद से 34 हजार मेगावाट पनबिजली का उत्पादन कर सकते हैं।' जहां तक लागत राशि की बात है तो एनडब्लूडीए ने अपने प्रस्ताव में कहा था कि वषर् 2002 के मूल्यों आधार पर इसमें कुल 5 लाख 60 हजार करो़ड रुपये खचर् होने का अनुमान है।
लेकिन इन तमाम आकलनों आैर उम्मीदों के बाद भी इस परियोजना को लेकर अभी तक मतैक्य नहीं हो सका है। कइर् पयार्वरणविद् , सामाजिक कायर्कतार् आैर नदी विशेषज्ञ इसकी आलोचना कर रहे हैं। इनमें प्रसिद्ध पयार्वरणविद् अनुपम मिश्र, डाॅ अरुण कुमार सिंह आैर सामाजिक कायर्कतार् मेधा पाटकर आैर वंदना शिवा भी शामिल हैं। आलोचकों का कहना है कि यह योजना न केवल अव्यवहारिक है, बिल्क इससे पानी की समस्या घटने के बजाय ब़ढेगी आैर राज्यों के बीच पानी को लेकर झग़डों में इजाफा होगा।
इस आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता। कोई भी राज्य यह नहीं चाहेगा कि उसका पानी मुफ्त में दूसरे को मिले। प्राकृतिक संपदाओं पर क्षेत्रीय अधिकार को पूरी दुनिया स्वीकार करती है। इसलिए यह सोचना कि किसी क्षेत्र की प्राकृतिक संपदा मुफ्त में अन्य क्षेत्रों को दे दिया जायेगा और विरोध नहीं होगा, सरासर मुर्खता होगी। हालांकि आलोचकों का कहना है कि इससे आम लोग आैर किसानों को लाभ नहीं होगा, बिल्क नेता, अफसरशाही आैर ठेकेदार मालामाल होंगे। यह तर्क भी अपने जगह सोलह आने सच है। देश की राजनीति और अफसरशाही के भ्रष्ट आचरण को देखकर इससे कौन इंकार करेगा। अभी तक का अनुभव यही बताता है कि नदियों के प्रबंधन की योजना इसलिए घातक साबित हो रही है क्योंकि यहां भ्रष्टाचार के कारण हर प्रबंधन अंततः कुप्रबंधन में तब्दील हो गयी। कोसी तटबंध परियोजना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। याद रहे कि साठवें दशक में जब कोशी परियोजना पर काम चालू हुआ था तो उस समय प्रसिद्ध अभियंता केएल राव की अध्यक्षता में इसकी फिजीविलीटी पर अध्ययन कराया गया था। राव ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि तटबंध एक तात्कालिक उपाय है। उन्होंने स्पष्ट हिदायत दी थी कि कोशी तटबंध को हमेशा विशेष निगरानी और नियमित देखरेख में रखना पड़ेगा। लेकिन हुआ इसका उलट। कोशी तटबंध की मरम्मत और अपग्रेडेशन के नाम पर आवंटित राशियों का हमेशा बंदरबांट होता रहा। न तो कभी उसे अपग्रेड किया गया और न ही उसके रखरखाव पर ध्यान दिया। आज परिणाम सबके सामने हैकि कोशी तटबंध लगभग नाकाम हो चुका है और अब उसके अंदर नदी को रख पाना लगभग असंभव हो चुका है। यही हश्र अन्य तटबंधों का भी हुआ।
नदियों को जोड़ने की योजना की तकनीकी सुसंगता (कंपैटिबिलिटी) पर भी सवाल उठते हैं। केंद्रीय जल आयोग के पूवर् अध्यक्ष आैर जल प्रबंधन के विशेषज्ञ एमएस रेड्डी ने कुछ समय पहले इस परियोजना की तकनीकी खामियों की ओर लोगों का ध्यान दिलाया था। उन्होंने कहा था कि ऐसी परियोजना कि लिए पयाप्तर् वैज्ञानिक अध्ययन आैर सर्वेक्षण की आवश्यकता होती है आैर अभी जो बातें कही जा रहीं हैं उनमें कइर् खामियां हैं। तकनीकी आैर पयार्वरण संबंधी अ़डचनों के अलावा इसकी राह में आैर रो़डे भी हैं। यह नेपाल आैर बांग्लादेश के गंभीर सहयोग के बिना संभव नहीं है। इसके दो डैम आैर तीन नहर नेपाल में बनने हैं। लेकिन नेपाल सरकार ने अभी तक इसमें कुछ खास दिलचस्पी नहीं दिखाइर् है। बांग्लादेश पहले ही विरोध दजर् कर चुका है। लिहाजा योजना अभी भी कागज, कल्पना, चर्चे आैर बहस तक ही सीमित है।
हालांकि इसमें कोइर् दोमत नहीं कि जल संकट अब विकट शक्ल अिख्तयार कर चुका है। प्रदूषण, जलवायु परिवतर्न आैर दोषपूणर् जल प्रबंधन नीति के कारण नदियों के साथ-साथ देश के भू-जल की िस्थति भी लगातार चिंताजनक होती जा रही है। ऐसे में एक व्यापक आैर बहु-स्वीकायर् राष्ट्रीय जल नीति की आवश्यकता से कोइर् इनकार नहीं कर सकता। ऐसा न हो कि हम नदियों को जो़डने की बात करते-करते इतनी देर कर दे कि फिर हमारे हाथ में करने लायक कुछ बचे ही नहीं। लेकिन लाख टके का सवाल है कि क्या भारतीय राजनेता और यहां के नीति-निर्माता इस समस्या की गंभीरता को कभी समझेंगे। हर चीज में व्यक्तिगत नफे-नुकसान की खोज करने वाले आज के राजनेता व अफसर को देखकर तो ऐसा नहीं लगता।
सन 1980 में केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय और केंद्रीय जल आयोग ने इसके लिए एक अध्ययन योजना बनायी जिसे नेशनल पसर्पेिक्टव प्लान (एनपीपी) कहा गया। 1982 में केंद्र सरकार ने इसके विभिन्न आयामों पर अनुसंधान करने के लिए एनडब्लूडीए (नेशनल वाटर डेव्लपमेंट एजेंसी) नामक एजेंसी का गठन किया। इसके बाद लंबे समय तक यह महापरियोजना ठंडे बस्ते में रही। दोबारा 2002 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने इसमें दिलचस्पी दिखाते हुए कुछ कदम उठाये। गाैरतलब है कि अक्तूबर 2002 में उच्चतम न्यायालय ने निर्देश दिया था कि एक दशक के अंदर ही इसके लिए आवश्यक कदम उठाए जाये। बाद के दिनों में देश की प्रमुख नदियों को परस्पर जो़डने आैर डैम व नहरों के माध्यम से अनुपयोगी (सरप्लस) जल को देश भर में वितरित करने वाली इस महापरियोजना को लेकर एक टास्क फोर्स का गठन किया गया। टास्क फोर्स ने विभिन्न प्रकार के अनुसंधान आैर अध्ययन के बाद इस योजना के लिए एक प्रारूप तैयार किया, जिसकी सुसंगता (फिजीविलिटी) आैर विस्तृत परियोजना (डीपीआर) अभी बांकी है। केंद्रीय जल संसाधन विभाग के अनुसार, इस दिशा में काम हो रहा है।
प्रस्तावित प्रारूप में इसके लिए देश में कुल 30 नदी-बेसिन-लिंक बनाने का प्रस्ताव है। इनमें से 16 लिंक दक्षिणी प्रायिद्वपीय (पेनिसुलर) भागों में तथा 14 उत्त्ारी क्षेत्रों बनाये जाने का प्रस्ताव है। प्रारूप को सरकार को साैंपते समय एनडब्लूडीए के अध्यक्ष सुरेश पी प्रभु ने कहा था, "नदियों के जो़डने से देश को जल उपलब्धता के असंतुलन से बहुत हद तक निजात मिल सकता है। परियोजना पूरी होने के बाद समुद्र में मिलकर बेकार हो जाने वाले पानी का समुचित उपयोग हो सकेगा।' एनडब्लूडीए के अनुसार, परियोजना पूरी होने के बाद लगभग 200 अरब घन मीटर (बिलियन क्यूबिक मीटर) पानी को एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जा सकेगा। इसके अलावा लगभग सा़ढे तीन करो़ड हेक्टेयर जमीन की सिंचाइर् हो सकेगी। गंगा, ब्रह्मपुत्र आैर उनकी सहायक नदियों से आने वाली बा़ढ में 20 से 30 फीसद तक कमी होगी। बकाैल सुरेश प्रभु, "देश में जलविद्युत् ऊजार् की असीम संभावना है। लेकिन आज भी हमारी कुल बिजली उत्पादन में जलविद्युत् का हिस्सा मात्र 25 फीसद है । नदियों को जो़डने के बाद इसमें भारी ब़ढोत्त्ारी होगी। हम इस परियोजना की मदद से 34 हजार मेगावाट पनबिजली का उत्पादन कर सकते हैं।' जहां तक लागत राशि की बात है तो एनडब्लूडीए ने अपने प्रस्ताव में कहा था कि वषर् 2002 के मूल्यों आधार पर इसमें कुल 5 लाख 60 हजार करो़ड रुपये खचर् होने का अनुमान है।
लेकिन इन तमाम आकलनों आैर उम्मीदों के बाद भी इस परियोजना को लेकर अभी तक मतैक्य नहीं हो सका है। कइर् पयार्वरणविद् , सामाजिक कायर्कतार् आैर नदी विशेषज्ञ इसकी आलोचना कर रहे हैं। इनमें प्रसिद्ध पयार्वरणविद् अनुपम मिश्र, डाॅ अरुण कुमार सिंह आैर सामाजिक कायर्कतार् मेधा पाटकर आैर वंदना शिवा भी शामिल हैं। आलोचकों का कहना है कि यह योजना न केवल अव्यवहारिक है, बिल्क इससे पानी की समस्या घटने के बजाय ब़ढेगी आैर राज्यों के बीच पानी को लेकर झग़डों में इजाफा होगा।
इस आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता। कोई भी राज्य यह नहीं चाहेगा कि उसका पानी मुफ्त में दूसरे को मिले। प्राकृतिक संपदाओं पर क्षेत्रीय अधिकार को पूरी दुनिया स्वीकार करती है। इसलिए यह सोचना कि किसी क्षेत्र की प्राकृतिक संपदा मुफ्त में अन्य क्षेत्रों को दे दिया जायेगा और विरोध नहीं होगा, सरासर मुर्खता होगी। हालांकि आलोचकों का कहना है कि इससे आम लोग आैर किसानों को लाभ नहीं होगा, बिल्क नेता, अफसरशाही आैर ठेकेदार मालामाल होंगे। यह तर्क भी अपने जगह सोलह आने सच है। देश की राजनीति और अफसरशाही के भ्रष्ट आचरण को देखकर इससे कौन इंकार करेगा। अभी तक का अनुभव यही बताता है कि नदियों के प्रबंधन की योजना इसलिए घातक साबित हो रही है क्योंकि यहां भ्रष्टाचार के कारण हर प्रबंधन अंततः कुप्रबंधन में तब्दील हो गयी। कोसी तटबंध परियोजना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। याद रहे कि साठवें दशक में जब कोशी परियोजना पर काम चालू हुआ था तो उस समय प्रसिद्ध अभियंता केएल राव की अध्यक्षता में इसकी फिजीविलीटी पर अध्ययन कराया गया था। राव ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि तटबंध एक तात्कालिक उपाय है। उन्होंने स्पष्ट हिदायत दी थी कि कोशी तटबंध को हमेशा विशेष निगरानी और नियमित देखरेख में रखना पड़ेगा। लेकिन हुआ इसका उलट। कोशी तटबंध की मरम्मत और अपग्रेडेशन के नाम पर आवंटित राशियों का हमेशा बंदरबांट होता रहा। न तो कभी उसे अपग्रेड किया गया और न ही उसके रखरखाव पर ध्यान दिया। आज परिणाम सबके सामने हैकि कोशी तटबंध लगभग नाकाम हो चुका है और अब उसके अंदर नदी को रख पाना लगभग असंभव हो चुका है। यही हश्र अन्य तटबंधों का भी हुआ।
नदियों को जोड़ने की योजना की तकनीकी सुसंगता (कंपैटिबिलिटी) पर भी सवाल उठते हैं। केंद्रीय जल आयोग के पूवर् अध्यक्ष आैर जल प्रबंधन के विशेषज्ञ एमएस रेड्डी ने कुछ समय पहले इस परियोजना की तकनीकी खामियों की ओर लोगों का ध्यान दिलाया था। उन्होंने कहा था कि ऐसी परियोजना कि लिए पयाप्तर् वैज्ञानिक अध्ययन आैर सर्वेक्षण की आवश्यकता होती है आैर अभी जो बातें कही जा रहीं हैं उनमें कइर् खामियां हैं। तकनीकी आैर पयार्वरण संबंधी अ़डचनों के अलावा इसकी राह में आैर रो़डे भी हैं। यह नेपाल आैर बांग्लादेश के गंभीर सहयोग के बिना संभव नहीं है। इसके दो डैम आैर तीन नहर नेपाल में बनने हैं। लेकिन नेपाल सरकार ने अभी तक इसमें कुछ खास दिलचस्पी नहीं दिखाइर् है। बांग्लादेश पहले ही विरोध दजर् कर चुका है। लिहाजा योजना अभी भी कागज, कल्पना, चर्चे आैर बहस तक ही सीमित है।
हालांकि इसमें कोइर् दोमत नहीं कि जल संकट अब विकट शक्ल अिख्तयार कर चुका है। प्रदूषण, जलवायु परिवतर्न आैर दोषपूणर् जल प्रबंधन नीति के कारण नदियों के साथ-साथ देश के भू-जल की िस्थति भी लगातार चिंताजनक होती जा रही है। ऐसे में एक व्यापक आैर बहु-स्वीकायर् राष्ट्रीय जल नीति की आवश्यकता से कोइर् इनकार नहीं कर सकता। ऐसा न हो कि हम नदियों को जो़डने की बात करते-करते इतनी देर कर दे कि फिर हमारे हाथ में करने लायक कुछ बचे ही नहीं। लेकिन लाख टके का सवाल है कि क्या भारतीय राजनेता और यहां के नीति-निर्माता इस समस्या की गंभीरता को कभी समझेंगे। हर चीज में व्यक्तिगत नफे-नुकसान की खोज करने वाले आज के राजनेता व अफसर को देखकर तो ऐसा नहीं लगता।
4 टिप्पणियां:
MUJHE LAGTA HAI NADIYON KO JODNA EK ACHHA SUJHAAV HAI .... PAR AGAR KHULI BAHAS HO TO SHAAYAD AUR TATHY BHI SAAMNE AA SAKEN ..... JAROORAT IS PAR BAHAS KI HAI ....
भोज के समय कोंहड़ा रोपने की हमारे यहाँ प्रवृत्ति सी है....जब बुरी तरह से हाहाकार मचेगा तब जाकर हमारे देश का यह राजनितिक अजगर कुछ करने को हिलेगा...लेकिन समस्या यह है कि जब यह हिलेगा जागेगा तो जितना बड़ा आहार लेगा,उसकी चोट भी तो हमारी जेब पर ही पडेगा...
बड़ा ही विचारणीय गंभीर मुद्दा उठाया है आपने...इस सुप्रयास हेतु आपका आभार.
चिट्टा के इस असीम संसार में आपका स्वागत है...
आप लिखते रहे और अच्छा लिखते रहें.
मेरी शुभकामनायें हैं आपके साथ.
narayan narayan
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