इधर
इनके सिर पे टूटा है आसमान
इनके सिर पे टूटा है आसमान
और पेट पर बंधे हैं पत्थर
जैसे ये आदमी नहीं
आदम जात का आखिरी मुहावरा हो
जैसे ये आदमी नहीं
आदम जात का आखिरी मुहावरा हो
उधर
वे बनाते हैं तीन को तीस
और डेढ़ बीत के पेट में रखते हैं पूरे कायनात
जैसे वह आदमी नहीं
बरमूडा का अखाड़ा हो
वे बनाते हैं तीन को तीस
और डेढ़ बीत के पेट में रखते हैं पूरे कायनात
जैसे वह आदमी नहीं
बरमूडा का अखाड़ा हो
और
इस तरह बन जाता है एक देश
जैसे वह देश नहीं
देश का कबाड़ा हो
इस तरह बन जाता है एक देश
जैसे वह देश नहीं
देश का कबाड़ा हो
3 टिप्पणियां:
रंजित जी
कविता की विम्ब योजना उमदा है.
आपकी रचना में भी bebas मन की chatpatahat deekhti है ........
गहरा व्यंग्य है आपकी रचना में।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।
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