शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2009

हिंसा के बीज/ संदर्भ खगड़िया जनसंहार

गरीबी और अमन-चैन एक साथ नहीं रह सकते। जहां गरीबी रहेगी वहां शांति का रहना नामुमकिन है। गरीबी अभिशाप है तो इसमें ताप भी है जो समाज को जला देता है। इसमें घृणा है जो समाज को खंड-विखंड कर देता है। सतत गरीबी हिंसा को न्यौता देती है और एक दिन पूरे समाज को खून के रंग में रंग देती है। लेकिन हमारे नीति-निर्माता आज भी गरीबी को गरीब के हाथों की लकीर मानने की मानसिकता में कैद है। वे समझते हैं कि गरीब कमजोर, अशिक्षित और निरीह होते हैं। वे सत्तानशीनों का कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। लेकिन पिछड़े इलाके में लगातार बढ़ती हिंसक वारदातें साबित करती हैं कि जिसे हम गरीबी कहते हैं वह अब बारूद का रूप लेने लगा है और जिन्हें हम गरीब मानते हैं वे रक्त पिपाशु मानव समुदाय में परिवर्तित हो रहा है। बिहार के खगड़िया जिला का जनसंहार इसका ताजा उदाहरण है।
लगभग एक दर्जन नदियों के बीच बसा यह जिला बिहार के अत्यंत पिछड़े जिलों में से एक है। भले देश ने स्वतंत्रता प्राप्ती का 63वां सालगिरह मना लिया हो, लेकिन खगड़िया जिला आज भी मध्यकालीन युग में है। वर्षों से यहां के लोग घोर गरीबी में जी रहे हैं। साल में छह महीने तक इस जिले का एक तिहाई हिस्सा बाढ़ में डुबा रहता है। इसे आप डुबा जिला भी कह सकते हैं। घर-घर में बेरोजगारी है। मवेशी और मकई के सहारे खगड़िया ने कई दशकों तक गुजारा किया है। बगैर रोड, स्कूल, शिक्षा और चिकित्सा के समय काटा है। लेकिन अब वे जलालत की इस जिंदगी से निजात पाना चाहते हैं। टेलीविजन और मीडिया के जरिये वे भी दुनिया की रंगीनियों को देख रहे हैं। जब वे बांकी की दुनिया से खुद की तुलना करते हैं तो व्यवस्था के प्रति उनके मन में भारी घृणा पैदा होती है। यह अलग बात है कि सरकार को लोगों के आक्रोश का कोई इल्म नहीं । खगड़िया जिले के कुछ गांवों में जाइये, आप पूरा गांव घुम जायेंगे, लेकिन आपको एक अदद मैट्रिक पास युवक नहीं मिलेगा। हां, हर घर में देसी बंदूक , रिवॉल्वर, कारतूस और बम मिल जायेंगे।ज्यादातर सुदूरवर्ती गावों में डकैतों के कई गिरोह हैं। वे घोड़ा और बंदूक रखते हैं । दिन में सोते हैं और रात को दूर-दूर तक डकैती करने चले जाते हैं। कोसी, बागमती,करेह और गंगा का विशाल दियारा उन्हें सुरक्षित ठिकाना मुहैया कराता है, जहां पुलिस कभी नहीं पहुंचती। हर साल इन दियारों में दर्जनों लाशें गिरती हैं, लेकिन पुलिस कुछ नहीं कर पाती।
माओवादी नक्सलियों ने इसका फायदा उठाया है। नक्सलियों को क्या चाहिए ? ...गरीबी, बेरोजगारी और अशिक्षा... खगड़िया जिले में ये तीनों उपलब्ध है। इसलिए विगत पांच-छह वर्षों में नक्सलियों ने इस जिले में भी अपना नेटवर्क तैयार कर लिया। लेकिन सरकार हाथ-पर-हाथ धरकर बैठी रही। सरकार हमेशा इसी मुगालते में रही कि खगड़िया, सहरसा, सुपौल और मधेपुरा में कभी नक्सली पहुंच ही नहीं सकते। क्योंकि कोशी अंचल के समाज में जातीय घृणा और विभाजन जैसी कोई बात नहीं है। यहां हिंसा हो ही नहीं सकती क्योंकि यह अंचल शांति-प्रिय क्षेत्र रहा है। लेकिन सरकार के सारे चिंतक और नियंता भूल गये कि गरीबी से बड़ी घृणा कुछ नहीं होती, कि गरीबी खुद अपने आप में एक भयानक हिंसा है। अगर हिंसा नहीं तो हिंसा के बीज तो है ही।
अमौसी नरसंहार के बाद यह बात साबित हो गयी है कि अब कोशी प्रमंडल भी माओवादी नक्सलियों के चंगुल से मुक्त नहीं रहा। अब उन्होंने अपना नेटवर्क इतना मजबूत कर लिया है कि वह इलाके में ऑपरेट कर सकते हैं। सहरसा के कोशी दियारा में भी दो साल पहले उसने अपने वजूद का एहसास कराया था। तब पुलिस भौचक्क रह गयी थी जब एक दिन अचानक दो दर्जन हथियारबंद माओवादियों से सहरसा पुलिस की भिड़ंत हो गयी थी। इससे पहले वे इस गलतफहमी में थे कि सहरसा जिले में माओवादियों का अस्तित्व नहीं है। जबकि सच्चाई यह है कि पिछले एक दशक से माओवादी कोशी अंचल में अपना नेटवर्क फैलाने में लगे हैं।
खगड़िया के अमौसी जनसंहार को देखकर लगता है कि अब वे इन इलाके में ऑपरेट करने की स्थिति में आ गये हैं। गांवों में ठिकाने खोजने के लिए उन्हें लोगों का समर्थन चाहिए। इसके लिए वे जातियों के बीच खूनी घृणा फैलायेंगे। जब ऐसी पांच-दस घटनाएं घट जायेंगी तब उन्हें आराम से किसी एक समुदाय का समर्थन हासिल हो जायेगा, जिसका वे तथाकथित मसीहा बनेंगे। नारे देंगे। लेवी लेंगे। लाश के बदले लाशें गिरेंगीऔर धीरे-धीरे पूरा इलाका माओवादियों के गिरफ्त में आता चला जायेगा। मध्य बिहार में उसने इसी तरह अपने लिए जमीन तैयार की थी। लेकिन सरकारों के पास इससे निपटने की कोई ठोस नीति नहीं है। अगर सरकार के पास कोई नीति होती, तो खगड़िया आज भी उतना ही दरिद्र नहीं होता जितना वह स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले था।
यह सच है कि कोशी अंचल सामाजिक सद्‌भाव के लिहाज से देश का सबसे आदर्श इलाका है। तमाम उन्मादी राजनीति के बावजूद यह इलाका आज भी सामाजिक समरसता में विश्वास रखता है। लेकिन पिछड़ेपन, गरीबी और सरकारी उपेक्षा (इसमें राज्य और केंद्र दोनों की भूमिका रही है) और अतिवादी शक्तियों के षड़यंत्र के कारण इसमें तेजी से छीजन हो रहा है।

6 टिप्‍पणियां:

संगीता पुरी ने कहा…

आपका कहना सही है .. पिछड़ापन, गरीबी और सरकारी उपेक्षा .. ये ही कारण हैं इस प्रकार की घटनाओं का !!

रंजना ने कहा…

क्या कहा जाय.......बड़ी ही त्रासद और चिंता जनक स्थिति है.....पता नहीं कितनी लाशें गिनकर सरकार इसके निवारण के लिए कुछ सोचने को उत्सुक होगी....

Kaushal Kishore , Kharbhaia , Patna : कौशल किशोर ; खरभैया , तोप , पटना ने कहा…

रंजीत जी
अमौसी का यह नर संहार ,नक्सलियों ने नहीं किया है. ऐसा सरकार के मुखिया और नक्सलियों के प्रवक्ता दोनों कह रहे हैं.सरकारी सम्वेदन्हींता , मुकम्मल भूमिसुधार और जतोगत वैमन्शय का फायदा sangathit apradhi tatwon ne उठाया है.
सादर

रंजीत/ Ranjit ने कहा…

kishore jee , ise lekar sarkar ke bheetar hee do tarah kee bat ho rahee hai. revenue deptt ise Naxlee ghatna kah raha jabki police jameenee vivad. lekin main us ilake se parichit hun. us ilake me koi bhee full timer maoist nahin hai. apradhee hee kabhee maoist to kabhee dacait ban jate hain. bhale hee maoist party ke order se ise anjam na diya gaya hai, lekin sanhar me shamil logon kee naxlee background hai. khud ek maoist neta ne yah baat sweekar kee hai.
waise mera sawal ilake ke pichdapan aur hinsa ko lekar hai.
thanks
ranjit

दिगम्बर नासवा ने कहा…

abhi aur bhi bahoot kuch hona baaki hai .... insaan ke jeevan ka koi mooly nahi hai .......

गौतम राजऋषि ने कहा…

बिल्कुल सही कहा आपने....मैं तो खगड़िया के पडो़स में ही रहता हूं और अच्छी तरह वाकिफ़ हूं समस्त माहौल से...

किसको क्या कहें रंजीत जी, सब एक ही थैले के चट्टे-बट्टे हैं...और "दो पाटन के बीच" में पिसने को बस वही जो हमेशा से पिसते ही रहे हैं।