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वो हमारा पहला प्यार था
इसलिए दुनिया हमें प्यार का समुद्र लगती थी
तब हमें वे पगडंडियां भी खूबसूरत लगतीं
जिधर से वह गुजरती थी
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तब हम सारी दुनिया से भलीभांति अनजान थे
हालांकि हम नादां नहीं थे
हम पाइथागोरस के प्रमेय के साथ न्यूटन के तीनों लॉ में भी सिद्ध थे
भर्तहरि से लेकर प्रेमचंद तक, भिज्ञ थे
यह तब की बात है जब
हमारी आवाज बदल रही थी और मूछों के पोम आने लगे थे
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टोले वाले को शंका हुई
परिवार वाले को चिंता
और वे सभी एक साथ उद्वेलित हो गये
जैसे हम प्यार में नहीं, आसमानी आग में हो
जैसे हम फिर से अबोध हो गये हों
और खेलते-कूदते धथूरे के जंगल पहुंच गये हों
+
हमें मालूम था कि हम
दुनिया के सबसे पवित्र क्षण में हैं
हालांकि पत्रों में वह भी करती थी मोहव्वत
पर हकीकत में भयानक अपराध बोध से ग्रस्त
अपनी नजरों में छोटी होते-होते
अंततः मेरी नजरों में भी छोटी हो गयी
और मेरे लिए प्रेम की परिभाषा बदल दी
हम जान चुके थे
कि वह पाश्चाताप में है
एक बार, दो बार, तीन बार
हमारे पहले प्यार का अंतिम संस्कार
2
वो शायद हमारा दूसरा प्यार था
और हम शहर में थे
वह बेझिझक थी
बेवाक और बेलौस भी
हम साथ-साथ वर्ग, पुस्तकालय और सिनेमा जाते थे
बहुत कुछ कहते-सुनते थे
सिवाय उस 'ढाई आखर' के
+
वह हमारे साथ थी
लेकिन हमारी नहीं थी
खूबसूरती के बावजूद
सच में वह किसी की नहीं थी
न दिन की न दुनिया की
उसे बहुत दूर जाना था
लेकिन मेरी कोई मंजिल नहीं थी
और इस तरह दूसरा प्यार भी मारा गया, बगैर प्यार के
पहली बार रिवाज के हाथों
दूसरी बार बाजार के हाथों
+
हाय !
इस रंध्र रिवाज, इस अंध बाजार
के आगे
"प्यार''
कितना लाचार है
(एक निवेदन- इसे निजी अनुभव नहीं , कविता का अनुभव माना जाये। यह किसी व्यक्ति का नहीं, बल्कि प्रवृत्ति का वर्णन है। कवि तो महज हेतु-सेतु है )
मंगलवार, 13 अक्टूबर 2009
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2 टिप्पणियां:
आप तो कवी टाइप के भी जीव लगते हैं जी। हमें तो मालूम था कि केवल आपको पत्रकारिता की ही बीमारी है। लेकिन आपकी बीमारी तो गंभीर लगती है।
खूबसूरत हैं आपके जज्बात ......... अच्छी रचना है रंजीत जी ...........
आपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ
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