" चुनाव जीतने के बाद, कोई काका-काकी-पड़ोसी नहीं। तुम मुखिया और लोग पब्लिक। पांव पकड़कर या आंख दिखाकर, जैसे भी हो चुनाव के वक्त वोट ले लो। इसके बाद सब कुछ भूल जाओ, तो कुछ कमा-धमा सकोगे वरना हाथ मलते रह जाओगे। पांच साल निकल जायेगा और तुम ठन-ठन गोपाल ! माल रहेगा तो फिर जीतोगे, नहीं तो झाल बजाना पड़ेगा। बेटा-बेटी और घरवाली जीवन भर ताना मारती रहेगी कि मुखिया बनकर भी कौन-सी तीर मार ली ? वही खप़ड़ैल मकान और टूटी हुई पंजाबी साइकिल। हाथ में ठेल्ला, पांव में बेमाई।''
यह किसी घाघ राजनेता का पुत्र-उपदेश नहीं है। आपको यह जानकार हैरत होगी कि जिस व्यक्ति ने मुझे यह सब सुनाया उसका जन्म किसी पुश्तैनी राजनीतिक खानदान में नहीं हुआ । उसकेपिता मेहनतकश किसान थे। हम बचपन में साथ पढ़ते थे और आज वह अपने गांव का मुखिया है। मैंने उसे मुखिया होने का कर्त्तव्य याद दिलाया, तो उसने मुझे दोस्त जानकर यह पाठ पढ़ा दिया। मैं हतप्रभ रह गया। पुराने दिन याद आ गये। इसी शख्स के साथ कभी हमने गांव के कमजोर और वंचितों के लिए शहीदी अंदाज में आंदोलन चलाया था। हमारा एक गुट था, जो बिना किसी स्वार्थ के गरीब और कमजोर के पक्ष में लाठी लेकर खड़ा रहता था। इसके लिए हमें घर में ताने और बाहर में धमकी सुनने-सहने पड़ते थे। वह शख्स मुखिया बनते ही इतना बदल गया है कि साथ उठने-बैठने वाले लोग उसे वोटर लगने लगा है। जिसे खाने के लिए दो रोटी नहीं है, उससे भी इंदिरा आवास के नाम पर पांच हजार रुपये अग्रिम रिश्वत की मांग करने में उसे कोई हिचकिचाहट नहीं होती।
दरअसल, पिछले 65 साल में हमारे राजनीतिक कर्णधारों ने जो राजनीतिक संस्कृति विकसित की है, वह अब विधानसभा और लोकसभा के ऊंचे पहाड़ों से उतर कर ग्राम सभा के मैदानों तक पहुंच गयी है। यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि बहुतेरे विद्वान और एक्टिविस्ट पंचायती राज से बहुत उम्मीद लगाए बैठे हैं। उन्हें शायद मालूम नहीं कि जिस सत्ता के विकेंद्रीकरण का नारा दिया गया था, वह बिखर चुका है। तर्क दिया जा सकता है कि अभी पंचायती राज की उम्र ही क्या हुई है? लेकिन मुझे नहीं लगता कि यह कोई तर्क है। जिस संस्था की नींव में ही भ्रष्टाचार की अमरबेल रोप दी गयी हो, उससे छायादार बरगद नहीं जन्म ले सकता। सच तो यह है कि स्वार्थ की जो शर्महीन-असंवेदनशील राजनीति अब तक केंद्र और राज्य की सत्ता के लिए हो रही थी, वह पंचायती राज के द्वारा ग्रास रूट लेवल तक पहुंच गयी है। लेकिन इसके लिए गांवों को दोष नहीं दिया जा सकता। यह व्यवस्था ग्रामीणों ने तैयार नहीं की। इसकी संरचना और नियमन, उन्हीं भ्रष्ट अधिकारी और नेताओं ने किया, जो राजनीति को धंधा समझते हैं। क्या कारण है कि आज भी पड़हा, पंच जैसे दर्जनों पारंपरिक व्यवस्था (अगर कहीं है तो) भ्रष्टाचार और राजनीतिक कुटीलताओं से बची हुई है ?
ऐसा नहीं है कि सरकारें इस सब से अनजान हैं। अधूरी ही सही, लेकिन हर योजना की प्रगति रिपोर्ट सरकार को जाती है। मनरेगा को ही लें, तो यह बात केंद्र के अलावा तमाम राज्यों की सरकारें जानती हैं कि इसकी 60-70 प्रतिशत राशि पंचायती राज के प्रतिनिधि और प्रखंड-तहसील के अधिकारी लूट रहे हैं। मनरेगा ही नहीं, गांव तक जाने वाली तमाम योजनाओं का यही हाल है। हाल में ही झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार, मध्य प्रदेश से हाल में ही बच्चादानी निकालने के हैरतअंगेज मामले सामने आये हैं। पता चला है कि पंचायत प्रतिनिधि, दलाल और डॉक्टरों का एक नेक्सस राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना की राशि में भारी लूट मचाये हुए हैं। इसके लिए वे अविवाहित महिलाओं के बच्चेदानी निकाल दे रहे हैं।
यह सच है कि मुखिया, पंचातय प्रमुख आदि विधायकों, सांसदों, मंत्रियों की देखा-देखी कर रहे हैं। लेकिन यह कहना सही नहीं है कि पंचायतों-निकायों को लकवामार बनाने वाली यह भ्रष्ट राजनीतिक संस्कृति गांवों की स्वाभाविक उपज है। अगर यह सच होता तो मुखिया अपने इलाके के विधायक और राजनीतिक पार्टियों के स्थानीय प्रमुखों के घर का त्रिपेक्षण करते नहीं दिखते। सच तो यह है कि पंचायती सत्ता को राजनीतिकदलों ने अपना स्थानीय एजेंट बना लिया है। मुखिया पार्टी नेताओं को अपने गांव का वोट दिलवाता है, पार्टी फंड के नाम पर नेताओं को चंदा पहुंचाता है और बदले में खुल्लमखुल्ला लूट मचाता है। थाने के पास एक मौखिक सूची होती है कि किस मुखिया के खिलाफ होने वाली शिकायत को प्राथमिकी बनानी है और किसकी शिकायत को रद्दी की टोकरी में फेंक देनी है।
सवाल है कि क्या गांधी जी ने इसी ग्राम स्वराज का सपना देखा था? भ्रष्टाचार के मुद्दे को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने के लिए अण्णा हजारे ग्राम सभा तक पहुंचने की बात करते हैं। शायद अण्णा और उनकी टीम को ग्राम सभा की असलियत नहीं मालूम। भष्ट और संवेदनाविहीन राजनीति का गैंग्रीन अब गांवों तक पहुंच चुका है। क्या कहा, दवा ! जी नहीं, गैंग्रीन की दवा नहीं, ऑपरेशन होता है।
दरअसल, पिछले 65 साल में हमारे राजनीतिक कर्णधारों ने जो राजनीतिक संस्कृति विकसित की है, वह अब विधानसभा और लोकसभा के ऊंचे पहाड़ों से उतर कर ग्राम सभा के मैदानों तक पहुंच गयी है। यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि बहुतेरे विद्वान और एक्टिविस्ट पंचायती राज से बहुत उम्मीद लगाए बैठे हैं। उन्हें शायद मालूम नहीं कि जिस सत्ता के विकेंद्रीकरण का नारा दिया गया था, वह बिखर चुका है। तर्क दिया जा सकता है कि अभी पंचायती राज की उम्र ही क्या हुई है? लेकिन मुझे नहीं लगता कि यह कोई तर्क है। जिस संस्था की नींव में ही भ्रष्टाचार की अमरबेल रोप दी गयी हो, उससे छायादार बरगद नहीं जन्म ले सकता। सच तो यह है कि स्वार्थ की जो शर्महीन-असंवेदनशील राजनीति अब तक केंद्र और राज्य की सत्ता के लिए हो रही थी, वह पंचायती राज के द्वारा ग्रास रूट लेवल तक पहुंच गयी है। लेकिन इसके लिए गांवों को दोष नहीं दिया जा सकता। यह व्यवस्था ग्रामीणों ने तैयार नहीं की। इसकी संरचना और नियमन, उन्हीं भ्रष्ट अधिकारी और नेताओं ने किया, जो राजनीति को धंधा समझते हैं। क्या कारण है कि आज भी पड़हा, पंच जैसे दर्जनों पारंपरिक व्यवस्था (अगर कहीं है तो) भ्रष्टाचार और राजनीतिक कुटीलताओं से बची हुई है ?
ऐसा नहीं है कि सरकारें इस सब से अनजान हैं। अधूरी ही सही, लेकिन हर योजना की प्रगति रिपोर्ट सरकार को जाती है। मनरेगा को ही लें, तो यह बात केंद्र के अलावा तमाम राज्यों की सरकारें जानती हैं कि इसकी 60-70 प्रतिशत राशि पंचायती राज के प्रतिनिधि और प्रखंड-तहसील के अधिकारी लूट रहे हैं। मनरेगा ही नहीं, गांव तक जाने वाली तमाम योजनाओं का यही हाल है। हाल में ही झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार, मध्य प्रदेश से हाल में ही बच्चादानी निकालने के हैरतअंगेज मामले सामने आये हैं। पता चला है कि पंचायत प्रतिनिधि, दलाल और डॉक्टरों का एक नेक्सस राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना की राशि में भारी लूट मचाये हुए हैं। इसके लिए वे अविवाहित महिलाओं के बच्चेदानी निकाल दे रहे हैं।
यह सच है कि मुखिया, पंचातय प्रमुख आदि विधायकों, सांसदों, मंत्रियों की देखा-देखी कर रहे हैं। लेकिन यह कहना सही नहीं है कि पंचायतों-निकायों को लकवामार बनाने वाली यह भ्रष्ट राजनीतिक संस्कृति गांवों की स्वाभाविक उपज है। अगर यह सच होता तो मुखिया अपने इलाके के विधायक और राजनीतिक पार्टियों के स्थानीय प्रमुखों के घर का त्रिपेक्षण करते नहीं दिखते। सच तो यह है कि पंचायती सत्ता को राजनीतिकदलों ने अपना स्थानीय एजेंट बना लिया है। मुखिया पार्टी नेताओं को अपने गांव का वोट दिलवाता है, पार्टी फंड के नाम पर नेताओं को चंदा पहुंचाता है और बदले में खुल्लमखुल्ला लूट मचाता है। थाने के पास एक मौखिक सूची होती है कि किस मुखिया के खिलाफ होने वाली शिकायत को प्राथमिकी बनानी है और किसकी शिकायत को रद्दी की टोकरी में फेंक देनी है।
सवाल है कि क्या गांधी जी ने इसी ग्राम स्वराज का सपना देखा था? भ्रष्टाचार के मुद्दे को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने के लिए अण्णा हजारे ग्राम सभा तक पहुंचने की बात करते हैं। शायद अण्णा और उनकी टीम को ग्राम सभा की असलियत नहीं मालूम। भष्ट और संवेदनाविहीन राजनीति का गैंग्रीन अब गांवों तक पहुंच चुका है। क्या कहा, दवा ! जी नहीं, गैंग्रीन की दवा नहीं, ऑपरेशन होता है।
4 टिप्पणियां:
अच्छा आलेख आगे आगे देखिये होता है क्या
भ्रष्टाचार की अमरबेल से खडा पंचायती राज
प्रतिनिधि मिल सब लूटते,मनरेगा को आज,,,,,,
सत्यता को व्यां करता सुन्दर आलेख,,,,
RECENT POST काव्यान्जलि ...: रक्षा का बंधन,,,,
is aalekh ko charcha manch me shamil karne ke liye aabhar, Mayank jee.
Thanks for comlement and comment Rajesh jee and dherendrs jee
बहुत बढ़िया लेख....
सुगठित पोस्ट
अनु
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