दहाये हुए देस का दर्द- 84
आखिर किसने मारा ललित बाबू को ? करोड़ों लोग यह सवाल पिछले 37 साल से पूछ रहे हैं। एक पूरी पीढ़ी, जिसने ललित बाबू के पुरुषार्थ और इकबाल को देखा था, उनमें से अधिकतर बिना जवाब पाये ही इस दुनिया से विदा हो गये। मैं विभिन्न मौकों पर ऐसे दर्जनों वृद्धों से मिला हूं, जो अपने जीवन- काल में ललित बाबू के हत्यारों को फांसी पर चढ़ते देखने के इच्छुक थे। उनमें से अधिकतर अब इस दुनिया में नहीं हैं और वे अपनी अधूरी हसरत के साथ दुनिया से विदा हो चुके हैं। राजनीतिक हलकों में भले ही यह सवाल अब महत्वहीन हो चला है कि ललित बाबू की हत्या किसने की और क्यों की, लेकिन कोशी और मिथिलांचल के करोड़ों लोगों के जेहन में आज भी यह बात शिद्दत से उठती है। ठीक वैसे ही जैसे तीस-पैंतीस साल पहले उनके माता-पिता, दादा-दादियां व्यग्र होकर कहते थे- "माटी के पूत का खून क्यों किया ? जिसने ललित बाबू का खून किया, उसका सर्वनाश होगा।''
मुझे नहीं लगता कि भारत के ज्ञात इतिहास में किसी एक व्यक्ति की हत्या के बारे में किसी समाज ने कभी इतना सवाल किया होगा। जब हम बच्चे थे, तो अक्सर ललित बाबू के किस्से सुनते थे। हमारी उम्र की एक पीढ़ी "ललित कांड'' को सुनते-गुनते जवान हुई है। तब हम जहां जाते थे, "ललित-गान'' ही सुनते थे। उन दिनों खेत में हलवाहे, मेड़ पर घसवाहिनी, चौपाल पर बुजुर्ग, बाजार में व्यापारी और सफर में यात्री; हर कोई ललित बाबू की हत्या के बारे में बात करते थे। कुछ रोते थे, कुछ अफसोस जताते थे। कुछ शाप देते थे-" हड़हड़िया डाक, दोपहरिया ठनका खसेगा। भस्म हो जायेगा। जे जीवेगा से देखेगा, पूरा खानदान के सत्यानाश होगा। गरीबों का आह जरूर लगेगा। के नहीं जानता कि किसने मराया ललित बाबू को? अपनो कहां भोग हुआ!''
इन वाक्यों को सुनने के बाद साफ हो जाता था कि ललित बाबू के हत्यारे कौन रहे होंगे। हालांकि सबूत किसी के पास नहीं था, तर्कों का एक लंबा अनुक्रम है जिन्हें काटना अक्सर नामुमकिन होता है। तब गांव के लोग नाम लेकर शाप देते थे और हमारे जैसे बच्चे मन ही मन मान लेते थे कि लोग ठीक ही कह रहे होंगे। ''एक जुबान झूठी हो सकती है, दस जुबान एक साथ झूठी नहीं होती !'' इस मुहावरे में आज भी कोशी-मिथिलांचल के लोगों को अकाट्य विश्वासस हैं।
पत्रकारिता में आने के बाद मैंने इस हत्याकांड की जांच का हर संभव अध्ययन किया। जांच से जुड़े किसी अधिकारी से जब कभी मिलने का अवसर मिला, उनसे सवाल किये। लेकिन हर किसी ने इसे 'मर्डर मिस्ट्री' ही बताया। यह बात और है कि वे अधिकारी अब इतना जरूर कहते हैं कि जांच राजनीतिक हस्तक्षेप का शिकार हुई। अब जबकि देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी सीबीआइ ने इस जांच को लेकर इतिहास ही रच दिया है, तो यह समझना और भी आसान है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ। चार दशक के बाद भी सीबीआइ किसी को सजा दिलाने में नाकाम रहा। यही कारण है कि बीते दिनों इस ऐतिहासिक देरी को आधार बनाकर आरोपियों ने सुप्रीम कोर्ट से मुकदमा समाप्त करने की मांग कर डाली। आरोपियों ने कहा कि 37 साल से ट्रायल लंबित है। इससे उनके त्वरित न्याय पाने के मौलिक अधिकार का हनन हुआ है। इसलिए जांच और मुकदमे को निरस्त किया जाये।
सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसे गंभीरता से लिया और इस पर सुनवाई भी पूरी हो गयी है। अदालत ने कहा है कि वह फैसला कुछ समय बाद सुनायेगी । न्यायमूर्ति एच एल दत्तू और जस्टिस चंद्रमौलि कुमार प्रसाद की खंडपीठ ने हत्याकांड के आरोपी 65 वर्षीय वकील रंजन द्विवेदी की याचिका पर विस्तार से सुनवाई के बाद कहा कि फैसला बाद में सुनाया जायेगा। रंजन द्विवेदी का कहना है कि चूंकि 1975 में हुई इस हत्या के मुकदमे की सुनवाई में अभूतपूर्व विलंब हो चुका है, इसलिए अदालत को सारी कार्रवाई निरस्त कर देनी चाहिए। गौरतलब है कि हत्याकांड के समय रंजन द्विवेदी 24 साल के नौजवान थे, जो अब बुजुर्ग हो गये हैं। लेकिन सीबीआइ ने द्विवेदी के दलीलों का विरोध करते हुए कहा कि सुनवाई अंतिम चरण में है, इसलिए निचली अदालत को निष्कर्ष तक पहुंचने की अनुमति मिलनी चाहिए। उल्लेखनीय है कि इस मामले में रंजन द्विवेदी के अलावा सुदेवानंद अवधूत, संतोषानंद अवधूत और गोपाल जी नामक शख्स अभियुक्त हैं।
गौरतलब है कि अपने जमाने के करिश्माई कांग्रेसी नेता और केंद्रीय मंत्रिमंडल में रेल और विदेश मंत्रालय संभालने वाले ललित नारायण मिश्र की तीन जनवरी, 1975 को समस्तीपुर जंक्शन पर बम विसफोट में हत्या कर दी गयी थी। जब उनकी हत्या हुई थी, वे संसद के अलावा समाज में भी लोकप्रियता के सातवें आसमान पर थे। आलम यह था कि दो तिहाई से ज्यादा सांसद पहले मिश्र से मशविरा करते थे, बाद में सात रेस कोर्स की ओर जाते थे।
मिश्र कोशी अंचल और बिहार के सच्चे सपूत थे। वह बिहार के पहले नेता थे, जो हर जाति, हर समुदाय और संप्रदाय में समान रूप से लोकप्रिय थे। बढ़ती लोकप्रियता के कारण राजनीति में उनके बहुत सारे दुश्मन हो गये, लेकिन जनता में उनके आलोचक खोजे नहीं मिलते थे। कमिश्नरी मुख्यालय का निर्माण हो, रेलवे या कोशी पर तटबंध का निर्माण हो, मिश्र के प्रयास से कोशी अंचल के आम लोगों को इसके दर्शन हुए। उनसे पहले इलाके के अधिकांश लोग रेलवे के टिकट के बारे में सिर्फ सुनते थे कि वह कूट का होता है, जिस पर लिखी तारीख को पढ़ना सबके बस की बात नहीं। ललित मिश्र के कारण ही इलाके के हजारों बच्चों को उच्च शिक्षा नसीब हुई और कई लोगों को पहली बार ट्रेन पर बैठने का अवसर प्राप्त हुआ। मिश्र के निधन के बाद एक बार फिर यह इलाका उपेक्षा के अंधकार में डूब गया। उसके बाद इलाके से नेता तो बहुत हुए, लेकिन मिश्र जैसा इकबाल किसी का न हो सका। बहुत कम लोग जानते हैं कि मौजूदा प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ललित नारायण मिश्र की ही खोज हैं।
बहरहाल,अदालत का फैसला जो भी हो। मुकदमा निरस्त हो या आरोपियों को सजा मिले या न्यायालय इसे नये सिरे से जांच करने का आदेश दे, लेकिन कोशी के लोगों का इसमें अब खास दिलचस्पी नहीं बची है, क्योंकि उनके लिए ललित नारायण मिश्र हत्याकांड कोई रहस्य नहीं है।खुला सच है। वे कहते हैं, "ऊपर वाले का न्याय हो चुका है। अब बाकी क्या है होने को ?''
आखिर किसने मारा ललित बाबू को ? करोड़ों लोग यह सवाल पिछले 37 साल से पूछ रहे हैं। एक पूरी पीढ़ी, जिसने ललित बाबू के पुरुषार्थ और इकबाल को देखा था, उनमें से अधिकतर बिना जवाब पाये ही इस दुनिया से विदा हो गये। मैं विभिन्न मौकों पर ऐसे दर्जनों वृद्धों से मिला हूं, जो अपने जीवन- काल में ललित बाबू के हत्यारों को फांसी पर चढ़ते देखने के इच्छुक थे। उनमें से अधिकतर अब इस दुनिया में नहीं हैं और वे अपनी अधूरी हसरत के साथ दुनिया से विदा हो चुके हैं। राजनीतिक हलकों में भले ही यह सवाल अब महत्वहीन हो चला है कि ललित बाबू की हत्या किसने की और क्यों की, लेकिन कोशी और मिथिलांचल के करोड़ों लोगों के जेहन में आज भी यह बात शिद्दत से उठती है। ठीक वैसे ही जैसे तीस-पैंतीस साल पहले उनके माता-पिता, दादा-दादियां व्यग्र होकर कहते थे- "माटी के पूत का खून क्यों किया ? जिसने ललित बाबू का खून किया, उसका सर्वनाश होगा।''
मुझे नहीं लगता कि भारत के ज्ञात इतिहास में किसी एक व्यक्ति की हत्या के बारे में किसी समाज ने कभी इतना सवाल किया होगा। जब हम बच्चे थे, तो अक्सर ललित बाबू के किस्से सुनते थे। हमारी उम्र की एक पीढ़ी "ललित कांड'' को सुनते-गुनते जवान हुई है। तब हम जहां जाते थे, "ललित-गान'' ही सुनते थे। उन दिनों खेत में हलवाहे, मेड़ पर घसवाहिनी, चौपाल पर बुजुर्ग, बाजार में व्यापारी और सफर में यात्री; हर कोई ललित बाबू की हत्या के बारे में बात करते थे। कुछ रोते थे, कुछ अफसोस जताते थे। कुछ शाप देते थे-" हड़हड़िया डाक, दोपहरिया ठनका खसेगा। भस्म हो जायेगा। जे जीवेगा से देखेगा, पूरा खानदान के सत्यानाश होगा। गरीबों का आह जरूर लगेगा। के नहीं जानता कि किसने मराया ललित बाबू को? अपनो कहां भोग हुआ!''
इन वाक्यों को सुनने के बाद साफ हो जाता था कि ललित बाबू के हत्यारे कौन रहे होंगे। हालांकि सबूत किसी के पास नहीं था, तर्कों का एक लंबा अनुक्रम है जिन्हें काटना अक्सर नामुमकिन होता है। तब गांव के लोग नाम लेकर शाप देते थे और हमारे जैसे बच्चे मन ही मन मान लेते थे कि लोग ठीक ही कह रहे होंगे। ''एक जुबान झूठी हो सकती है, दस जुबान एक साथ झूठी नहीं होती !'' इस मुहावरे में आज भी कोशी-मिथिलांचल के लोगों को अकाट्य विश्वासस हैं।
पत्रकारिता में आने के बाद मैंने इस हत्याकांड की जांच का हर संभव अध्ययन किया। जांच से जुड़े किसी अधिकारी से जब कभी मिलने का अवसर मिला, उनसे सवाल किये। लेकिन हर किसी ने इसे 'मर्डर मिस्ट्री' ही बताया। यह बात और है कि वे अधिकारी अब इतना जरूर कहते हैं कि जांच राजनीतिक हस्तक्षेप का शिकार हुई। अब जबकि देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी सीबीआइ ने इस जांच को लेकर इतिहास ही रच दिया है, तो यह समझना और भी आसान है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ। चार दशक के बाद भी सीबीआइ किसी को सजा दिलाने में नाकाम रहा। यही कारण है कि बीते दिनों इस ऐतिहासिक देरी को आधार बनाकर आरोपियों ने सुप्रीम कोर्ट से मुकदमा समाप्त करने की मांग कर डाली। आरोपियों ने कहा कि 37 साल से ट्रायल लंबित है। इससे उनके त्वरित न्याय पाने के मौलिक अधिकार का हनन हुआ है। इसलिए जांच और मुकदमे को निरस्त किया जाये।
सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसे गंभीरता से लिया और इस पर सुनवाई भी पूरी हो गयी है। अदालत ने कहा है कि वह फैसला कुछ समय बाद सुनायेगी । न्यायमूर्ति एच एल दत्तू और जस्टिस चंद्रमौलि कुमार प्रसाद की खंडपीठ ने हत्याकांड के आरोपी 65 वर्षीय वकील रंजन द्विवेदी की याचिका पर विस्तार से सुनवाई के बाद कहा कि फैसला बाद में सुनाया जायेगा। रंजन द्विवेदी का कहना है कि चूंकि 1975 में हुई इस हत्या के मुकदमे की सुनवाई में अभूतपूर्व विलंब हो चुका है, इसलिए अदालत को सारी कार्रवाई निरस्त कर देनी चाहिए। गौरतलब है कि हत्याकांड के समय रंजन द्विवेदी 24 साल के नौजवान थे, जो अब बुजुर्ग हो गये हैं। लेकिन सीबीआइ ने द्विवेदी के दलीलों का विरोध करते हुए कहा कि सुनवाई अंतिम चरण में है, इसलिए निचली अदालत को निष्कर्ष तक पहुंचने की अनुमति मिलनी चाहिए। उल्लेखनीय है कि इस मामले में रंजन द्विवेदी के अलावा सुदेवानंद अवधूत, संतोषानंद अवधूत और गोपाल जी नामक शख्स अभियुक्त हैं।
गौरतलब है कि अपने जमाने के करिश्माई कांग्रेसी नेता और केंद्रीय मंत्रिमंडल में रेल और विदेश मंत्रालय संभालने वाले ललित नारायण मिश्र की तीन जनवरी, 1975 को समस्तीपुर जंक्शन पर बम विसफोट में हत्या कर दी गयी थी। जब उनकी हत्या हुई थी, वे संसद के अलावा समाज में भी लोकप्रियता के सातवें आसमान पर थे। आलम यह था कि दो तिहाई से ज्यादा सांसद पहले मिश्र से मशविरा करते थे, बाद में सात रेस कोर्स की ओर जाते थे।
मिश्र कोशी अंचल और बिहार के सच्चे सपूत थे। वह बिहार के पहले नेता थे, जो हर जाति, हर समुदाय और संप्रदाय में समान रूप से लोकप्रिय थे। बढ़ती लोकप्रियता के कारण राजनीति में उनके बहुत सारे दुश्मन हो गये, लेकिन जनता में उनके आलोचक खोजे नहीं मिलते थे। कमिश्नरी मुख्यालय का निर्माण हो, रेलवे या कोशी पर तटबंध का निर्माण हो, मिश्र के प्रयास से कोशी अंचल के आम लोगों को इसके दर्शन हुए। उनसे पहले इलाके के अधिकांश लोग रेलवे के टिकट के बारे में सिर्फ सुनते थे कि वह कूट का होता है, जिस पर लिखी तारीख को पढ़ना सबके बस की बात नहीं। ललित मिश्र के कारण ही इलाके के हजारों बच्चों को उच्च शिक्षा नसीब हुई और कई लोगों को पहली बार ट्रेन पर बैठने का अवसर प्राप्त हुआ। मिश्र के निधन के बाद एक बार फिर यह इलाका उपेक्षा के अंधकार में डूब गया। उसके बाद इलाके से नेता तो बहुत हुए, लेकिन मिश्र जैसा इकबाल किसी का न हो सका। बहुत कम लोग जानते हैं कि मौजूदा प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ललित नारायण मिश्र की ही खोज हैं।
बहरहाल,अदालत का फैसला जो भी हो। मुकदमा निरस्त हो या आरोपियों को सजा मिले या न्यायालय इसे नये सिरे से जांच करने का आदेश दे, लेकिन कोशी के लोगों का इसमें अब खास दिलचस्पी नहीं बची है, क्योंकि उनके लिए ललित नारायण मिश्र हत्याकांड कोई रहस्य नहीं है।खुला सच है। वे कहते हैं, "ऊपर वाले का न्याय हो चुका है। अब बाकी क्या है होने को ?''
4 टिप्पणियां:
कोशी की जनता सच जानती होगी, लेकिन बाकी देश की जनता को तो कोर्ट के फैसले का इन्तजार करना ही होगा न? आप भी 'मामला विचाराधीन' कहकर निकल लेंगे|
haan, aap sahi kah rahe hain Sonjay jee.
पुराने इतिहास से रचना सजोंकर अवगत कराने के लिये रंजीत जी का धन्यवाद आपको राखी पर्व की शुभकामनाये
यूनिक तकनीकी ब्लाग
Apko bhee Rakhi mubarak sainee jee. thanx.
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